पंचायत से संसद तक मोदी लहर 

Publsihed: 26.Apr.2017, 22:57

दिल्ली नगर निगम का चुनाव एक प्रयोगशाला थी , जिस में सभी के टिकट काट दिए गए , विधानसभाओं में 75 प्रतिशत तक और लोकसभा में 50 प्रतिशत टिकट कटेंगे | 
अजय सेतिया / दिल्ली नगर निगम के चुनाव नतीजे दिल्ली से बाहर कोई महत्त्व नहीं रखते | बावजूद इस के दिल्ली नगर निगम के चुनाव नतीजों की देश भर में चर्चा हो रही है | तो इस का कारण यह है कि 2014 में मोदी लहर के बाद  2015 में हुए  दिल्ली विधान सभा के चुनावों में भाजपा को शर्मनाक हार का सामना करना पडा था | विधानसभा की 70 सीटों में से भाजपा सिर्फ तीन जीत पाई थी, और यह तब हुआ था जब खुद नरेंद्र मोदी ने जम कर प्रचार किया था | दिल्ली नगर निगम के चुनाव नतीजों  की राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का दूसरा बड़ा कारण यह है कि जिस आम आदमी पार्टी ने मोदी लहर के बावजूद विधानसभा की 70 में से 67 सीटें जीत ली थी , उस का नगर निगम चुनावों में सफाया हो गया | दिल्ली नगर निगम के चुनावों में सभी वोटर वही हैं , जो विधानसभा चुनावों में वोटर थे | दिल्ली में एक नहीं, अलबत्ता तीन नगर निगम हैं , तीनों पर ही भाजपा का कब्जा बरकरार रहा है | देश के सब से बड़े राज्य उत्तरप्रदेश के बाद दिल्ली नगर निगम के चुनाव नतीजे यह सन्देश दे रहे हैं कि पंचायत से ले कर संसद तक मोदी लहर चल रही है, जिस का मुकाबला सारा विपक्ष इकट्ठा हो कर भी नहीं कर सकता | 
बिहार और दिल्ली ने 2015 में मोदी लहर को सफलता पूर्वक रोक दिया था | इन दोनों राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों में भाजपा बुरी तरह हारी थी | तब हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा कहने लगे थे कि अगर हरियाणा विधानसभा के चुनाव लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद नहीं हुए होते तो हरियाणा के चुनाव नतीजे भी बिहार और दिल्ली जैसे ही होते | लेकिन उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड विधान सभा चुनाव नतीजों ने इस धारणा को तोड़ दिया है कि देश में मोदी विरोधी लहर शुरू हो चुकी है | जनवरी 2015 में हुए दिल्ली विधानसभा के चुनाव मोदी की पहली अग्नि परीक्षा थी, इस लिए मोदी ने जम कर जोर लगाया था, लेकिन उन से एक ही बड़ी गलती हुई थी कि उन्होंने  किरन बेदी को भाजपा में शामिल करवाया और उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट कर दिया | किरन बेदी भाजपा के स्थानीय नेताओं के साथ कोई तालमेल नहीं बना पाई , जिस से चुनाव पटरी से उतर गया | दिल्ली से सबक लेकर बिहार विधानसभा चुनावों में भाजपा ने किसी को भी मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट नहीं किया , लेकिन जब भाजपा वहां भी चुनाव हार गई तो विश्लेष्णकर्ताओं का कहना था कि अगर भाजपा किसी को प्रोजेक्ट करती तो शायद यह हालत न होती | जबकि भाजपा नेतृत्व अपने विश्लेष्ण में इस नतीजे पर पहुंची थी कि नीतीश और लालू यादव का गठजोड़ और जातिवादी राजनीति का गठबंधन तोड़ने में भाजपा नाकाम रही | 
बिहार का विश्लेष्ण भाजपा की उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड की रणनीति बनाने में सहायक सिद्ध हुआ | उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में भी जातिवादी समीकरणों का खेल था , भाजपा ने बिहार की तरह ही इन दोनों राज्यों में भी मुख्यमंत्री पद पर किसी को प्रोजेक्ट नहीं किया , लेकिन दोनों ही राज्यों में रिकार्ड तोड़ विजय हासिल की | इस की वजह थी जातीय समीकरणों की जमीनी रणनीति समय से पहले तैयार करना | उत्तर प्रदेश भाजपा के संगठन मंत्री सुनील बंसल और प्रदेश प्रभारी ओम माथुर ने दो साल तक तैयारी की , तब जा कर समाजवादी पार्टी को पिछड़ों से अलग थलग कर के यादवों तक सीमित करने और बहुजन समाज पार्टी को दलितों से अलग थलग कर सिर्फ जाटवों तक सीमित करने में कामयाब हुए | उत्तरप्रदेश में बड़ी संख्या में पिछड़े और दलितों को भाजपा के साथ जोड़ा गया , भाजपा ने सभी दलों से आने वाले सभी नेताओं के लिए अपने दरवाजे खोल दी थे | भाजपा ने उत्तर प्रदेश में हिंदूओ को एकजुट करने की रणनीति बनाई थी, सर्वजातीय हिन्दू रणनीति को कामयाब करने के लिए भाजपा ने पहली बार किसी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया | समाजवादी पार्टी और बसपा की मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति को जवाब देने के लिए भाजपा की इस रणनीति ने हिन्दुओं में नवजागरण का सन्देश देने में संजीवनी का काम किया | उत्तराखंड में भी ठाकुरों और ब्राहमणों का समीकरण बनाना आसान काम नहीं है, इस समीकरण को बनाने के लिए ही भाजपा ने किसी को मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट नहीं किया, जिस से दोनों जातियों के मुख्यमंत्री पद के दावेदारों ने जम कर काम किया | 
इन दोनों राज्यों में भाजपा के पास नरेंद्र मोदी के चेहरे के साथ साथ राजनीति के नए चाणक्य के रूप में उभरे अमित शाह की रणनीति भी थी | अमित शाह की रणनीति भाजपा के संगठन मंत्रियों जैसी है | वह दोहरी रणनीति बना कर चलते हैं, जहां एक तरफ नरेंद्र मोदी को लोकप्रिय चेहरे के तौर पर जनता के सामने पेश करते हुए उन से राष्ट्रीय मुद्दों के साथ राज्य के महत्वपूर्ण विषयों पर घोषणाएं करवा कर विरोधियों को उलझाना , वहीं दूसरी ओर खुद एक कुशल संगठनकर्ता की तरह चुनाव प्रबंधन की निगरानी करना | उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा के जातीय किले तोड़ने की रणनीति भी अमित शाह की बनाई हुई थी , जिसे सुनील बंसल और ओम माथुर ने अमली जामा पहनाया | 
पंजाब की बात अलग है, पजांब में भाजपा मुख्य खिलाड़ी नहीं थी , गठबंधन की बड़ी पार्टी अकाली दल थी, जिस का नेतृत्व बेहद बदनाम हो चुका था | पंजाब की तेरह लोकसभा सीटों में से जब तीन पर आम आदमी जीती थी , तो पंजाब प्रदेश भाजपा और संघ परिवार के बाकी घटको में भी एक सहमति बन रही थी कि अकाली दल से गठबंधन तोड़ कर अपने बूते पर अलग हो कर विधान सभा चुनाव लड़ने चाहिए | मदन लाल खुराना जब पंजाब भाजपा के प्रभारी थे, तभी उन्होंने अकाली दल के साथ सीटों का समझौता किया था , उस समझौते के अनुसार 23 सीटें भाजपा को मिली थी और 94 सीटें अकाली दल को , तभी से सीटों का वही समीकरण पिछले 40 साल से चल रहा है, नतीजा यह है कि पंजाब की 23 विधानसभा सीटों को छोड़ कर बाकी सारे प्रदेश में भाजपा नगरपालिका स्तर की पार्टी बन कर रह गई है | भाजपा के लिए मौक़ा था कि महाराष्ट्र में जैसे शिवसेना से गठबंधन तोड़ कर चुनाव लड़ कर भाजपा अपना मुख्यमंत्री बनाने में कामयाब हुई , वही रणनीति पंजाब में दोहराई जाती | भाजपा के पास उस समय नवजोत सिंह सिद्धू जैसा लोकप्रिय और दबंग चेहरा भी था ,जो बादल परिवार के खिलाफ खड़ा हो कर विकल्प देने की स्थिति में था | संघ परिवार के घटक संगठन भी इस बात पर सहमत थे कि भाजपा एक बार सभी सीटों पर चुनाव लड़ कर अपनी ताकत का आकलन कर ले | लेकिन भाजपा नेतृत्व की रणनीतिक चूक के कारण नवजोत सिंद्धु ने कांग्रेस में शामिल हो गए और आम आदमी पार्टी के मुकाबले कांग्रेस को विकल्प के रूप में खडा कर दिया |  अगर भाजपा नवजोत सिंह सिद्धू के नेतृत्व में अकाली दल से अलग हो कर चुनाव लड़ती तो वह सब से बेहतर साबित होती | भाजपा की रणनीतिक विफलता के कारण पंजाब में भाजपा की दुर्गति हुई है | 
दिल्ली नगर निगम चुनाव में नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने पिछली गलतियों से सबक ले कर रणनीति बनाई | सब से पहले तो दिल्ली प्रदेश भाजपा को अल्पमत में आ चुके पंजाबियों और बनियों के चगुल से बाहर निकाल कर प्रवासी बिहार मूल के भोजपुरी गायक मनोज तिवारी को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनाया | कांग्रेस ने यह बात  2002 में ही भांप ली थी कि दिल्ली में बड़ी तादाद में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों के आ कर बसने के बाद स्थानीय परम्परागत पंजाबियों और बनियों का प्रभाव कम हो गया है , इस लिए सोनिया गांधी ने स्थानीय कांग्रेस नेताओं को दरकिनार कर उत्तर प्रदेश की शीला दीक्षित को दिल्ली की कमान सौंप दी थी | भाजपा ने यह बात 15 साल बाद की और नतीजा सामने है कि लगातार दस साल तक दिल्ली नगर निगम पर कब्जा होने और 2015 के विधानसभा चुनाव में सूपड़ा साफ़ हो जाने के बावजूद भाजपा की सीटें 148 से बढ़ कर  184 हो गई | भाजपा ने दूसरी रणनीति यह अपनाई कि अपने तीनों मेयरों सहित सभी निगम पार्षदों को टिकट नहीं दिया | सारे के सारे नए चेहरे नए उतारे गए | दिल्ली नगर नियम का चुनाव एक प्रयोगशाला थी , यह प्रयोग कामयाब रहा है, अमित शाह की यही रणनीति इसी साल होने वाले हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधानसभा चुनावों में भी होगी, अगर सारे टिकट नहीं बदले जाएंगे , तो 75 प्रतिशत तो बदले ही जाएंगे | भाजपा में पिछले कई दिनों से चर्चा चल रही है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में आधे सांसदों का टिकट कटेगा, जिस की एक्सरसाईज शुरू हो चुकी है |  

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