अपने यहां लोकतंत्र के तीन अंग। लेजिस्लेचर, ज्यूडिश्यरी, एक्जीक्यूटिव। यानि चुने हुए सदन, अदालतें और सरकार। बहुत पुरानी बात नहीं। बात सिर्फ तीन साल पुरानी। जब झारखंड के गवर्नर सिब्ते रजी ने बिना बहुमत के शिबू सोरेन को सीएम बनाया। बहुमत साबित करने का वक्त भी अच्छा-खासा दे दिया। बहुमत अर्जुन मुंडा के साथ था। प्रोटर्म स्पीकर की तैनाती हुई। खरीद-फरोख्त शुरू हो गई।
गवर्नर भी अपना, स्पीकर भी अपना। पर अर्जुन मुंडा सुप्रीम कोर्ट गए। तो चार दिन में बहुमत साबित करने की हिदायत हुई। सुप्रीम कोर्ट के इस दखल से अपने सोमनाथ दादा इतने खफा थे। उनने कोर्ट की हिदायत को लेजिस्लेचर में दखल कहा। फौरन स्पीकरों की मीटिंग बुला ली। पर अब जब लेजिस्लेचर और एक्जीक्यूटिव में टकराव खड़ा हुआ। तो दादा के रुख में लचीलापन। सदन और सरकार में टकराव का एक किस्सा एटमी करार का। तो दूसरा उड़ीसा एसेंबली का। इन किस्सों की बात बाद में। पहले स्पीकर मंच का इतिहास बता दें। यों तो स्पीकर मंच आजादी से पहले 1921 में ही शुरू हो चुका था। पर आजादी के बाद 1952 में एसेंबलियों के पहले चुनाव हुए। तो 1955 में स्पीकरों की पहली कांफ्रेंस शिलांग में हुई। तब मुंबई विधानसभा के स्पीकर डी.के. कुंते अध्यक्ष चुने गए। पर 1984 में बाकायदा आल इंडिया प्रजाइडिंग आफिसर फोरम का गठन हुआ। तब से मोटेतौर पर लोकसभा के स्पीकर ही अध्यक्ष। सो स्पीकर के नाते दादा फोरम के अध्यक्ष। अब बात सरकार और सदन के टकराव की। एटमी करार पर संसद और सरकार में टकराव की नौबत। भले ही लेफ्ट ने एटमी करार पर उस नियम में बहस नहीं होने दी। जिससे वोटिंग होती, तो सदन की राय सामने आती। लेफ्ट ने एनडीए के साथ मिलकर वाकआउट भी नहीं किया। पर गुरुवार को गुरुदास दासगुप्त बोले-'सदन की राय करार के खिलाफ।' लेफ्ट ने खुद को ऐसा हाथी साबित किया। जिसके दांत खाने के और, दिखाने के और। तीसरे मोर्चे के दो दावेदार लेफ्ट से भी बड़े मक्कार निकले। बाहर करार की मुखालफत करते रहे। अंदर सरकारी बीन बजाने लगे। मुलायम के भाई लोकसभा में करार पर मुलायम हो गए। मुलायम पर भ्रष्टाचार के मुकदमें। सो मुलायम का मुलायम होना तो समझ में आया। पर थर्ड फ्रंट का दूसरा दल टीडीपी भी नरम हो गया। पर इसके बावजूद सदन के अंदर तो बहुमत सरकार के खिलाफ दिखा। यह स्पीकर फोरम को लेजिस्लेचर पर खतरा न दिखे। तो स्पीकर फोरम जाने। पर एटमी करार वाली सरकार की ढींगामुश्ती लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी। खतरे की दूसरी घंटी उड़ीसा एसेंबली में बजी। जिसका नजारा अपन ने गुरुवार को लोकसभा में देखा। पर पहले अपन बैकग्राउंड बता दें। सोनिया गांधी ने दो मंत्रियों को प्रदेश कांग्रेस का प्रभारी बना दिया। पृथ्वीराज चव्हाण को बीजेपी-जेडीएस रूल स्टेट कर्नाटक दी गई। अजय माकन को बीजेपी-बीजेडी रूल स्टेट उड़ीसा। दोनों राष्ट्रपति भवन में ली गई बिना लाग लपेट के काम करने की शपथ से पाबंद। पर चव्हाण ने कर्नाटक के गवर्नर से खिचड़ी पकाई। माकन ने तो कांग्रेसी विधायकों को लिखकर भेजा- 'दो दिसंबर तक स्टेट एसेंबली न चलने दो।' सो नौ दिन से एसेंबली नहीं चल रही। गुरुवार को यह मामला लोकसभा में उठा। तो दादा के सामने गंभीर संकट था। पर उनने कहा- 'चिट्ठी मंत्री के नाते नहीं। पार्टी लीडर के नाते लिखी गई। और मैं उसे चिट्ठी वापस लेने के लिए मजबूर नहीं कर सकता।' पर दादा को लगा तो जरूर होगा- 'मंत्री का शपथ लेकर ऐसी चिट्ठी लिखना लेजिस्लेचर मे दखल।' सो उनने सोच समझकर कहा- 'भले ही यह संसद का मामला नहीं। पर यह हर एसेंबली के लिए चिंता की बात। प्रजाइडिंग अफसरों के फोरम का चेयरमैन होने के नाते, मेरी सभी चुने हुए नुमाइंदों से अपील- क्या ऐसा करके हम संसदीय लोकतंत्र की सेवा कर रहे हैं?'
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