तो यूपीए सरकार तीन दिन में तीन बार झुकी। पहले गन्ना मूल्य के आर्डिनेंस पर। फिर विपक्ष के दबाव में लिब्राहन आयोग की रपट पेश करने पर। और इस बीच मंगलवार को विपक्ष के दबाव में ही लाटरी बिल वापस नहीं ले पाई। लिब्राहन आयोग की रपट पेश हो गई। खोदा पहाड़ निकली चूहिया। रपट में ऐसा कुछ भी नहीं। जो अपन सबको पता न हो। वही सब कुछ- 'बीजेपी-शिवसेना हालात को इस मोड़ पर ले आए थे। आडवाणी ने रथयात्रा से माहौल बनाया। आरएसएस-वीएचपी ने भीड़ जुटा दी। वाजपेयी-बाल ठाकरे रणनीति के तहत मौजूद नहीं थे। ढांचा भीड़ ने तोड़ दिया।' अब इस रपट में नया क्या है। वाजपेयी पर लिब्राहन आयोग का आरोप किसी जज की टिप्पणी नहीं लगती।
लिखते हैं- 'कुछ नेताओं को उनकी सेक्युलर छवि के लिए दूर रखा गया।' अपन को यह कहने में कतई हर्ज नहीं- जस्टिस लिब्राहन की यह टिप्पणी यूपीए सरकार बन जाने का नतीजा। वाजपेयी सरकार के समय रपट आती। तो यह टिप्पणी नहीं होती। जस्टिस लिब्राहन से यह तो पूछा ही जाना चाहिए- उनने वाजपेयी को बुलाया क्यों नहीं। नहीं बुलाने का फैसला तो खुद उनका था। यूपीए सरकार बनने के बाद ही तलब कर लेते। छह साल हिम्मत नहीं पड़ी थी तो। अपन ने कल भी लिखा था। वाजपेयी का नाम किसी को नहीं जंचा। मंगलवार को ए.बी. वर्धन बोले- 'नरसिंह राव लंबी तान कर सोए थे। उनका तो नाम नहीं। पर वाजपेयी का नाम। वाजपेयी के नाम पर मैं कतई सहमत नहीं।' तो क्या अब लिब्राहन खुद कटघरे में। उनने सत्रह साल बर्बाद किए। सिफारिश में मीडिया से खुन्नस साफ दिखी। जो बार-बार लंबे वक्त पर टिप्पणियां करता रहा। वह खुन्नस सोमवार को भी दिखी। जब उनने मीडिया से कहा- 'दफा हो जाओ।' लिब्राहन की सातवीं और आखिरी सिफारिश तो मीडिया पर। यों अपन लिब्राहन की सिफारिश से सहमत। उनने पीत पत्रकारिता पर रोक का अच्छा सुझाव दिया। बार एसोसिएशन, मेडिकल काउंसिल जैसी संस्था तो बननी चाहिए। जो पत्रकारों और अखबारों के आचरण की निगरानी करे। चुनावों में न्यूज कंटेंट की सौदेबाजी पर तभी रोक लगेगी। पर उन्हें मीडिया पर नहीं। बाबरी ढांचा टूटने पर रपट लिखनी थी। आडवाणी, जोशी, कल्याण, उमा ने तो राहत महसूस की। बाकी 64 नेताओं-अफसरों ने भी। जिनके खिलाफ उनने कोई सिफारिश नहीं की। आडवाणी तो इस रपट से तिलमिला रहे होंगे। उन्हें कटघरे में खड़ा करते। तो उनकी राजनीति फिर से चमकती। रपट संघ परिवार के खिलाफ। पर इस बात का ख्याल रखा- कांग्रेस को कोई नुकसान न पहुंचे। ज्यूडिशरी पर भी कोई टिप्पणी नहीं की। जिसके कारण कार सेवकों के सब्र का प्याला भरा। संघियों पर हालात इस मोड़ पर लाने का आरोप तो सही। पर जो अदालत 1948 से मुकदमें का फैसला न करे। उस पर कोई टिप्पणी नहीं। खुद 17 साल आयोग की कुर्सी पर बैठे रहे लिब्राहन अदालत पर टिप्पणी कैसे करते। और जो ए.बी. वर्धन ने कहा। उसे सुना आपने। यों तो विनय कटियार ने भी यही कहा। पर अपन ने जानबूझकर संघ विरोधी वर्धन का जिक्र किया। नरसिंह राव के वक्त एक कानून बना था- 'धार्मिक स्थल संरक्षण कानून।' इसमें था 'राम जन्मभूमि को छोड़ सभी स्थल जस के तस रहेंगे।' अब सवाल खड़ा होगा- 'राव सरकार ने राम जन्मभूमि को क्यों छोड़ा।' क्या इसलिए क्योंकि ढांचे का ताला राजीव गांधी ने खुलवाया था। पूजा राजीव गांधी ने ही 1986 में शुरू करवाई थी। जस्टिस लिब्राहन कहते हैं- 'राव क्या करते। गवर्नर की रपट नहीं थी।' जस्टिस भूल गए- उन्हें किसी का बचाव करने का जिम्मा नहीं दिया था। तो उनने राव का बचाव किसलिए किया। क्या इसलिए- राव ने ही उन्हें 17 साल की आलीशान नौकरी दी। जिसमें नौकर-चाकर और विज्ञान भवन में दफ्तर था। जो किसी फाईव स्टार से कम नहीं। कोई आठ करोड़ रुपए का खर्चा हुआ उन पर। रपट में केंद्र-राज्य संबंधो जैसे घिसे-पिटे मुद्दे। जो कई आयोग पहले भी कह चुके। आयोग में संविधान समीक्षा आयोग बनाने की सिफारिश। जो वाजपेयी के वक्त बनकर रिपोर्ट दे चुका। और खुफिया एजेंसियों के कोआर्डिनेशन कौन सी नई सिफारिश। कारगिल के बाद बने आयोग की भी यही सिफारिश थी। सरकार एमएसी-एसएमएसी का गठन भी कर चुकी। राष्ट्रीय खुफिया और जांच एजेंसी भी बन चुकी। सेक्युलरिज्म का जो पाठ उनने पढ़ाया। उस पर बीसियों बार बहस हो चुकी। चुनाव आयोग लागू भी कर चुका। उसी राजनीतिक दल को मान्यता मिलती है। जो सेक्युलरिज्म की शपथ ले। उनने ब्यूरोक्रेसी पर भी फब्तियां कसीं। रोज-रोज की ट्रांसफरों में राजनीतिक दखल पर ऐतराज किया। पर केंद्र सरकार वाजपेयी के जमाने में भी दो साल तक कोई ट्रांसफर नहीं की पॉलिसी बना चुकी। और बात धर्म-राजनीति के घालमेल की। तो यह 'हज' यात्रा की सब्सिडी रोक कर ही खत्म होगी। सांप्रदायिक हिंसा पर भी लिब्राहन ने क्या नया कहा। बिल पहले से संसद में पेंडिंग। लिब्राहन को तो 8 करोड़ की रिकवरी का नोटिस जाना चाहिए।
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