चुनाव नतीजे आने में अब दस दिन बाकी। अपन को अगली सरकार के अस्थिर होने का पूरा खतरा। पर गांधी परिवार के वारिसों में जंग एक-दूसरे पर हावी होने की। वरुण की मार्किट वैल्यू बढ़ने लगी। तो दस जनपथ में बेचैनी। दो दिन पत्रकारों से राहुल को मिलवाया। बात बनती नहीं दिखी। तो अब अशोका होटल में प्रेस कांफ्रेंस। मकसद राहुल को वरुण से ज्यादा राजनीतिक समझ वाला बताने की। राहुल कांग्रेसियों की वह बेचैनी भी दूर करेंगे। जो प्रियंका और दिग्गी राजा ने पैदा की। दोनों ने कुछ ऐसे कहा- "सरकार न भी बनी। तो आसमान नहीं टूट जाएगा।" राहुल ने मनमोहन की जिद पकड़ तो ली। पर सेक्युलर दलों में मनमोहन पर ऐतराज अब और ज्यादा। बोफोर्स ने आग में घी डाल दिया। मनमोहन ने क्वात्रोची की पैरवी कर कमाल ही किया। ऐसी पैरवी तो राजीव गांधी ने भी कभी नहीं की। हां, सोनिया ने 1999 में जरूर की थी।
अपन को वह दिन नहीं भूलता। सोनिया ने चुनाव घोषणा पत्र जारी किया। अनिल शास्त्री के हाथ में माईक था। उनने चुनिंदा पत्रकारों को बुलाना शुरू किया। तय सवाल, तय जवाब। बवाल तो तब मचा। जब सबको प्लांटेड सवाल समझ आने लगे। दक्षिण का पत्रकार अड़ गया। तो शास्त्री ने मजबूरी में हामी भरी। सवाल सुन सब सन्न रह गए। सोनिया का चेहरा तमतमा गया। सवाल क्वात्रोची पर था। सोनिया बोली- "क्वात्रोची के खिलाफ सबूत क्या है।" यूपीए सरकार बनी। तो यह जवाब सीबीआई के सामने था ही। सो सीबीआई ने वही किया-धरा। क्वात्रोची का मामला सुप्रीम कोर्ट में पेंडिंग। फिर भी पीएम ने क्वात्रोची को क्लीनचिट दे दी। तो अपनी ज्यूडिशरी की ताकत कहां रही। आडवाणी को अब मनमोहन सिंह पर गुस्सा नहीं आता। तरस आता है। बोफोर्स हो या स्विस खाते। मनमोहन उल्टे आडवाणी पर हमले करने लगे। बात स्विस खातों की। आडवाणी को भले ही मनमोहन चुनावी स्टंट कहें। पर सरकार सुप्रीम कोर्ट के कटघरे में बेचैन। पीआईएल को भाजपाई बता दिया। जावड़ेकर कह रहे थे- "राम जेठमलानी तो बीजेपी में नहीं। वह तो गालियां निकाल कर एनडीए से गए थे। सोनिया ने लखनऊ में वाजपेयी के खिलाफ उतारा। फिर राज्यसभा में नोमिनेट किया। स्विस बैंकों के खातों पर पीआईएल जेठमलानी की ही।" स्विस खातों को सरकार ने गंभीरता से क्यों नहीं लिया? यह है पीआईएल का सवाल। कौन है यह हसन अली खान। जिसके स्विस खाते का जिक्र सरकारी जवाब में। हसन और उसकी बीवी के खाते में किसका पैसा? राजनेताओं का बेनामी खाता तो नहीं चला रहे हसन? पर बात मनमोहन की। एक बात पल्ले बांध लीजिए। सेक्युलर दल इकट्ठे न हुए। तो कांग्रेस की सरकार नहीं बननी। कांग्रेस की सरकार तभी बनेगी। जब कांग्रेस मनमोहन की जिद छोड़े। वैसे अपन को तो अगली सरकार के अस्थिर होने का पूरा खतरा। यों इस नाजुक दौर में जरूरत स्थिर सरकार की। अपने पड़ोसियों की हालत देखिए। तालिबान का निशाना पाक के बाद भारत। श्रीलंका के अंदरूनी बवाल ने अपने यहां भूचाल मचा ही रखा। बांग्लादेश तो अपने लिए सबसे बड़ी मुसीबत है ही। चीन का निशाना भी नेपाल के रास्ते भारत। जहां लाल झंडा फहरा। तो मनमोहन सरकार फूली नहीं समाई थी। सीताराम येचुरी बिचौले बने घूम रहे थे। अब चीन ने माओवादी पीएम प्रचंड से सेनाध्यक्ष कटवाल को बर्खास्त करवा दिया। इरादा चीन समर्थक सेनाध्यक्ष बनाने का। अपने लिए अच्छा हुआ। जो राष्ट्रपति ने सेनाध्यक्ष की बर्खास्तगी में फच्चर फंसा दिया। अब प्रचंड के इस्तीफे से नेपाल में नई अस्थिरता। पर अपन को फिक्र नेपाल की उतनी नहीं। जितनी नेपाल पर होने वाले चीन के दबदबे की। चीन के रास्ते में पहले तिब्बत था। चीन ने उस पर कब्जा कर लिया। अब चीन के दूसरे रास्ते में नेपाल। चीन बढ़ रहा है नेपाल की ओर। ऐसे में अपनी सरकार लुंज-पुंज हुई। तो क्या होगा? जरा सोचिए।
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