आपने वह इश्तिहार तो देखा होगा। वोटर का नेता से उसकी डिग्री पूछने वाला। मेरा इंटरव्यू ले रहे हो। कौन सी जॉब? देश चलाने की जॉब। अपन हैरान, इस इश्तिहार ने गजब का काम किया। जो इस बार वोटर नेताओं से सवाल पूछ रहे हैं। कहीं कहीं तो जूते भी मार रहे हैं। अपन ने 1977 के बाद दर्जनों चुनाव देख लिए। दसवां चुनाव तो लोकसभा का ही देख रहे। विधानसभाओं के चुनाव अलग से। पर वोटर अपने उम्मीदवारों पर इतने हमलावर कभी नहीं देखे। अलबत्ता इस बार मीडिया की धार कमजोर पड़ी। अरुण जेटली ने मीडिया को कटघरे में खड़ा किया। बोले- 'बोफोर्स मामले में इतनी बड़ी बात हो गई। किसी ने सोनिया से सवाल नहीं पूछा। भ्रष्टाचार शायद मीडिया के लिए मुद्दा नहीं रहा।'
बात बोफोर्स की चली। तो बताते जाएं। मंगलवार को जब रेड कार्नर वारंट रद्द होने का खुलासा हुआ। तो लॉ मिनिस्टर हंसराज भारद्वाज बोले- 'सीबीआई ने अटार्नी जनरल से राय ली। अटार्नी जनरल ने राय दी। इसमें सरकार का क्या लेना देना।' उनने अटार्नी जनरल को कांस्टिटयूशन अथारिटी भी कहा। अपन को मायावती का मामला याद आ गया। मायावती के केस में भी यही हुआ था। सीबीआई ने अटार्नी जनरल से राय ली। वह भी मिलन बनर्जी ही थे। मिलन बनर्जी की राय थी- 'मायावती के खिलाफ केस नहीं बनता।' खबर लीक हुई तो पीआईएल वाले अजय अग्रवाल सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। कोर्ट ने सीबीआई को फटकारा- 'आपको अटार्नी जनरल से राय लेने को किसने कहा।' हू-ब-हू ऐसा ही क्वात्रोची के सीज खाते में हुआ। तब भी कोर्ट ने सीबीआई को फटकार लगाई। खाते फिर से सील कराने को भी कहा। पर तब तक क्वात्रोची पैसा निकाल ले गया। अपन बात कर रहे थे हंसराज भारद्वाज की। जिनने पहले कहा- 'सरकार का क्या लेना देना।' उनने अब मान लिया- 'अटार्नी जनरल की राय वाली फाईल पर मैंने दस्तखत किए। मेरी मंजूरी से रद्द हुए क्वात्रोची के वारंट।' आप सारी कहानी को दो लाइन में समझिए। यूपीए सरकार बनी। तो मिलन बनर्जी ने लिखा- 'बोफोर्स मामले में हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ एसएलपी की जरूरत नहीं।' अब जब सरकार का वक्त खत्म हुआ। तो उन्हीं मिलन बनर्जी ने फाइल पर लिखा- 'एसएलपी दाखिल नहीं की गई। सो रेड कार्नर वारंट की जरूरत नहीं।' अपन नहीं जानते बोफोर्स से बीजेपी को फायदा होगा। पर कांग्रेस की मुश्किल तो बढ़ेगी ही। आडवाणी पहले कहते थे- 'एनडीए सरकार बनी। तो एटमी करार रिव्यू करेंगे।' अभी तो पीएम बने भी नहीं। कहना शुरू कर दिया- 'इंटरनेशनल समझौते रिव्यू नहीं हो सकते।' आडवाणी पीएम बने। तो भी अब बोफोर्स घोटाला हमेशा के लिए दफन। वीपी सिंह, देवगौड़ा, वाजपेयी सुनारों की तरह ठुक-ठुक करते रहे। मनमोहन सिंह ने लुहारों की तरह मुद्दा ही खत्म कर दिया। पर जनता अपने मुद्दे दफन नहीं करती। तभी तो हर रैली में चल रहे जूते। जनता जब जूता मारने लगे। तो समझिए नेताओं की साख रसातल में। नीतीश कुमार गए थे नालंदा में वोट मांगने। वोटरों ने नारे लगाए- 'पुल नहीं, तो वोट नहीं।' दिल्ली में इस बार कांग्रेस-बीजेपी से बड़े पोस्टर तो जनता के। जिन पर लिखा है- 'स्कूलों की फीस अभिभावक तय करें। ऐसा कानून बनाओ, वोट ले जाओ।' 'नेताओं से इस बार स्वराज मांगिए।' 'स्वराज दो, वोट लो।' सोनिया-आडवाणी के फोटू लगाकर पूछा है- 'आपमें से कौन देगा स्वराज।' ये जनता के जूते ही तो हैं, जो इस बार दनादन पड़ रहे। पर सबसे बड़ा जूता तो जम्मू में चला। जम्मू के आचार्य नरेंद्र देव मेडिकल कालेज में। कनवोकेशन समारोह शुरू हुआ। सीएम उमर अब्दुल्ला ने हाथ में माईक लिया ही था। मंच पर बैठे डा. पंकज गुप्ता करीब आए। गुप्ता को ही गोल्ड मेडल देना था उमर ने। गुप्ता ने उमर से दो मिनट के लिए माईक मांगा। माईक हाथ में आते ही वह बोला- 'मैं जम्मू और कश्मीर में भेदभाव करने वाली सरकार के सीएम से अवार्ड नहीं लूंगा।' खूब तालियां बजी। कनवोकेशन ही रद्द हो गया। तो नेताओं के सामने अब उठने लगी आवाज।
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