सुनते हैं कांग्रेस ने 'जय हो' का पेटेंट एक करोड़ में खरीदा। पर 'गांधी' के पेटेंट पर धेला खर्च नहीं किया। गांधी के चश्मे, चप्पल, प्लेट-कटौरी, घड़ी की नीलामी पर अपन ने देखा ही। गांधी की नामलेवा कांग्रेस बोली लगाने नहीं गई। न कांग्रेस की यूपीए सरकार गई। वाजपेयी की सरकार होती। तो सोनिया-मनमोहन भूख हड़ताल पर बैठे होते। विजय माल्या ने सवा नौ करोड़ की बोली लगाकर नीलामी छुड़ाई। तो अंबिका-अभिषेक अपनी सरकार की पीठ थपथपा रहे थे। अभिषेक सिंघवी के नाम पर याद आया। 'स्लमडॉग मिलेनियर' को आस्कर मिला। तब भी उनने अपनी सरकार की पीठ थपथपाई थी। वैसे 'स्लमडाग मिलेनियर' पर कांग्रेस का पीठ ठोकना सौ फीसदी सही। आखिर देशभर में कांग्रेस ने ही तो बनवाई हैं झुग्गी-झोपड़ियां। कनाट प्लेस के चारों ओर भी झुग्गियां बसा दी थी। पिछली बार जगमोहन जीते। तो उनने सारी झुग्गियां हटवा दीं। झुग्गियों की जगह हरे-भरे पार्क बन गए। पर 2004 में जगमोहन हार गए। पता है क्यों- अजय माकन वोट डलवाने के लिए झुग्गी वालों को ढो-ढो कर लाए। सो स्लमडॉग मिलेनियर के आस्कर पर सचमुच कांग्रेस का पहला हक।
तभी तो खबर आई- 'कांग्रेस स्लमडॉग मिलेनियर के बाल कलाकारों अजहर-रुबिना से प्रचार करवाएगी।' सुन रहे हैं- गोपालस्वामी। यह बाल मजदूरी कानून के खिलाफ। चावला के सीईसी बनने से पहले ही कदम उठा लें। गोपालस्वामी तक अपनी आवाज न पहुंचे। तो जिम्मेदारी कैलाश सत्यार्थी की। जो दुनियाभर में बाल मजदूरी के खिलाफ अलख जगा रहे। पर आज बात स्लमडॉग मिलेनयर की नहीं। बात गांधी की चीजें लौटने की। अपने विजय माल्या भले ही गांधीवादी नहीं। गांधी के 'सादा जीवन' में भरोसा न हो। पर 'उच्च विचार' तो रखते ही होंगे। तभी तो गांधी की विरासत लाने का काम चुपके से किया। कांग्रेस और यूपीए सरकार पीठ ठोकती हो। तो पूछना ही पड़ेगा- 'फिर आपको 'बीयर किंग' विजय माल्या ही क्यों मिला। गांधी तो शराब के खिलाफ थे।' अपन नहीं जानते- कांग्रेस माल्या को क्या ऑफर करेगी। राज्यसभा की सीट या कुछ और। वैसे माल्या पदमश्री के तो हकदार। पर अभिषेक या अंबिका ने नहीं बताया- 'सरकार ने टाटा, बिडला या मुकेश अंबानी से गुहार क्यों नहीं लगाई।' माल्या को तो खुद एतिहासिक चीजों का शौक। अपन टीपू सुल्तान के प्रशंसक नहीं। पर माल्या 2004 में जब डेढ़ करोड़ में टीपू की 205 साल पुरानी तलवार लाए। तो यूपीए सरकार ने देश में घुसने नहीं दी। माल्या तलवार को विदेश में रखे हुए हैं। जहां तक बात गांधी की। तो यह कोई पहली बार नहीं। जब कांग्रेस सरकारों ने गांधी से मुंह मोड़ा हो। बात 1993 की। नरसिंह राव की सरकार थी। लंदन में गांधी के कुछ दस्तावेजों की नीलामी हुई। सरकार और कांग्रेस मुंह ढक कर सोए रहे। एनआरआई सर गुलाम नून और लार्ड राज बागडी ने 14000 पौंड से बोली छुड़ाई। फिर ऐसी ही नौबत 1998 में भी आई। तब कांग्रेस की मदद से यूएफ सरकार थी। गांधी की मौलाना अब्दुल बरी को लिखी चिट्ठियां नीलाम हुई। जमात-ए-उलेमा ए हिंद के फाउंडर थे बरी। तब सर गुलाम नून और एनआरआई नेत पुरी ने इज्जत बचाई। गांधी की चिट्ठियों-लेखों की नीलामी 2007 में भी हुई। पर बात ताजा नीलामी की। जिस पर सरकार और कांग्रेस आखिर तक सोई रही। ताकि सनद रहे, सो बताते जाएं। चश्मा गांधी ने जूनागढ़ के नवाब को दिया था। जो अपने 300 कुत्ते लेकर पाक भाग गया था। पर बीवियां सिर्फ 18 साथ ले गया। बाकी 162 यहीं छोड़ गया। हां, गांधी का चश्मा ले जाना नहीं भूला। गांधी गोलमोल कांफ्रेंस के लिए 1931 में लंदन गए। तो उनने वहां चप्पलें ब्रिटिश आर्मी अफसर एडन को दी थी। और प्लेट कटोरी तो उनने अपनी पोत्री आभा को ही दी थी। पर असल कहानी तो अब शुरू होगी। सभी चीजों के मौजूदा मालिक जेम्स ओटिस ने कहा है- 'अभी तो मेरे पास गांधी की अस्थियां और खून का सैंपल भी।'
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