अपने सुखराम भी सजायाफ्ता हो गए। नरसिंह राव के एक और मंत्री पर भ्रष्टाचार साबित। शीला कौल, पीके थुंगन, सतीश शर्मा पहले ही दोषी साबित हो चुके। नरसिंह राव खुद भ्रष्टाचार के बूते पीएम बने रहे। सो भ्रष्टाचार को पनाह देते रहे। सुखराम भोले पहाड़ी थे। जिनने नकदी अपने घर में ही छुपा रखी थी। सो पकड़ी गई। राव ने सरकार बचाने के लिए जो चार सांसद खरीदे। वे भी आदिवासी भोले भंडारी थे। नकदी बैंक में जमा करा दी। पर वह तो संसद के अंदर की बात पर अदालत के हाथ बंध गए। वरना रिश्वत देने, लेने वाले अंदर होते। बेचारे सुखराम। पर एन चुनाव के वक्त आए फैसले से कांग्रेस की हवा खराब। सो बुधवार को ब्रीफिंग ही गोल कर गई। सोनिया का संसदीय दल मीटिंग में भाषण हुआ। फिर भी ब्रीफिंग नहीं। बात सोनिया के भाषण की। लिखा हुआ भाषण बंट गया। सोनिया को गुटबाजी से हार का अंदेशा। कहते हैं ना दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीता है। मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में कांग्रेस हारी। तो सोनिया ने कहा था- 'आपसी फूट के कारण हारे।' यों सोनिया को यूपीए सरकार के पांच साल पूरे होने पर संतोष।
भले ही आधे वादे भी पूरे नहीं हुए। सोनिया ने दम भरा सारे वादे निभाने का। पर बात सिर्फ कांग्रेसी गुटबाजी की नहीं। यूपीए को एकजुट रखना भी आसान नहीं। अपन ने वह सर्कस वाला झूला खेल तो बताया ही था। करुणानिधि कब क्या करें, कौन जाने। गफलत के लिए जयललिता गठबंधन का दाना फेंक ही चुकी। शरद पवार की छटपटाहट भी कम नहीं। यों आडवाणी- बाल ठाकरे मुलाकात नहीं हुई। तो उसे अपन ज्यादा गंभीर नहीं मानते। मंगलवार को आडवाणी गए थे मुंबई। सोचा, हो सके तो बीमार का हाल जान लें। पर वक्त ही कम था। सो मुलाकात नहीं हो सकी। पर खबर ऐसी छपवाई- जैसे ठाकरे ने मिलने से इनकार किया हो। अपन ने टटोला। तो पता चला- 'पवार शिवसेना में सेंध लगा चुके। उन्हीं के दूतों ने फैलाई यह खबर।' राज तब खुला जब मनोहर जोशी बुधवार को बोले- 'बीजेपी-शिवसेना में कोई दरार नहीं। गठबंधन था, गठबंधन रहेगा। आडवाणी ही गठबंधन के नेता। शरद पवार आना चाहते हैं। तो यूपीए छोड़कर एनडीए में आएं।' आप समझ गए होंगे। पवार समर्थक शिवसेना सांसद ने बालठाकरे के कान भरे। इसकी भनक शिवसेना के बाकी सांसदों को भी। वैसे अपन भैरोंसिंह शेखावत का राष्ट्रपति चुनाव नहीं भूले। पहली चूल बाल ठाकरे ने ही हिलाई थी। आडवाणी-ठाकरे की मुलाकात नहीं हुई। वह तो इतने फिक्र की बात नहीं। पर बुधवार को 'सामना' में जो ठाकरे के नाम से छपा। वह बाल ठाकरे की घबराहट का सबूत। आडवाणी ने जब से महाराष्ट्र की कमान मोदी को सौंपी। तब से ठाकरे की नींद हराम। मोदी कहीं बूढ़े शेर की जमीन न हड़प लें। शिवसेना वैसे भी उध्दव-राज में बंट चुकी। सो मोदी से शिवसेना का कद घटने की घबराहट छुपा नहीं पाए। उनने क्या लिखा, जरा गौर करें। पहली बात- 'गुजरात दंगों के बाद मैंने आडवाणी से मोदी को बनाए रखने की वकालत की।' दूसरी- 'मोदी-महाजन की बराबरी नहीं हो सकती।' तो लब्बोलुबाब मोदी को महाजन से छोटा बताने की। साथ में सीएम की कुर्सी बचाने का श्रेय लेने की। अपन जरा उस वक्त को याद दिला दें। दंगों के बाद वाजपेयी दबाव में थे। याद है- वह 'राजधर्म' वाला डायलॉग। आडवाणी बनाए रखना चाहते थे। एनडीए दोफाड़ दिखने लगा। चंद्रबाबू, ममता, फारुक ने मोदी को हटाने का दबाव बनाया। तो बाल ठाकरे-मायावती ने मोदी का साथ दिया। मायावती की मजबूरी थी। बाल ठाकरे का अपना एजेंडा था। मोदी की कुर्सी कोई बाल ठाकरे के कारण नहीं बची। वह तो एसेंबली भंग कराकर चुनाव की रणनीति से बची। रणनीति के सूत्रधार अरुण जेटली थे, बालठाकरे नहीं। अपन को याद है जब 12 से 14 अप्रेल को गोवा में वर्किंग कमेटी थी। तो जेटली वाया अहमदाबाद पणजी पहुंचे थे। मोदी इस्तीफे और एसेंबली को भंग करने का फार्मूला लाए थे।
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