अपने प्रणव दा के लिए खुश होने वाली बात ही थी। विपक्ष का नेता लालकृष्ण आडवाणी भरी संसद में तारीफ करें। तो प्रणव दा खुश क्यों न होते। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस शुरू हुई। तो आडवाणी ने प्रणव दा की तारीफ के पुल बांधे। प्रणव दा तो खुश दिखे। पर सोनिया थोड़ी असहज दिखी। वैसे आडवाणी की तारीफ प्रणव दा के लिए घाटे का सौदा। लेफ्ट से तारीफ क्या कम थी। जो अब बीजेपी भी। लेफ्ट की पैरवी के कारण ही तो प्रणव दा पीएम नहीं बन पाए। खैर बात आडवाणी की। उनने कहा- 'मैं तो लंबे समय से प्रणव दा की क्षमताओं का कायल। संकट के समय प्रणव दा की रफ्तार बढ़ जाती है। मैं कई बार सोचता हूं। यूपीए के पास प्रणव दा जैसा संकट मोचक न होता। तो यूपीए सरकार का क्या होता।' आडवाणी की बात में दम। प्रणव दा 42 केबिनेट कमेटियों के मुखिया। इतनी जिम्मेदारी तो मनमोहन की भी नहीं। सोनिया भी प्रणव दा की क्षमताओं से वाकिफ। पर पीएम नहीं बनाएंगी। मनमोहन बीमार पड़े। तो एक्टिंग पीएम भी नहीं बनने दिया। नंबर दो का आफिशियल दर्जा भी नहीं लेने दिया।
सो आडवाणी जब तारीफ कर रहे थे। तो सोनिया-प्रणव एक-दूसरे को कनखियों से देख रहे थे। पर आडवाणी ने सिर्फ तारीफ की हो। ऐसा भी न समझना। उनने भिगो-भिगोकर मारा भी। जब उनने कहा- 'जनता महंगाई बढ़ाने वाला हाथ पहचान चुकी। किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर करने वाला हाथ पहचान चुकी। सांसदों की खरीद-फरोख्त कर सरकार बचाने वाला हाथ भी पहचान चुकी। आंतरिक सुरक्षा से खिलवाड़ करने वाला हाथ भी पहचान चुकी।' याद है- प्रणव दा ने सोमवार को बजट पेश करते हुए कहा था- 'जनता आम आदमी का ख्याल रखने वाला हाथ पहचानती है।' यह तो रही नहले पर दहला मारने की बात। पर मंगलवार को राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस शुरू हुई। तो कांग्रेस आडवाणी से बेहद भयभीत दिखी। कांग्रेस ने वी. किशोरचंद्र देव को बहस में आगे किया। तो आडवाणी का खतरा उनकी जुबान पर आ ही गया। आडवाणी को मुखातिब होकर बोले- 'दिल्ली का नतीजा ही देश का पैमाना। चुनाव में यूपीए ही लौटेगी।' अपन नहीं जानते। कांग्रेस आडवाणी से इतनी भयभीत क्यों। राहुल गांधी ने भी खुद को मैदान से बाहर कर लिया। सूरत में जाकर बोले- 'पीएम पद के मेरे उम्मीदवार मनमोहन सिंह।' पर मनमोहन सिंह की हालत देखिए। पांच साल पीएम बने हो गए। लोकसभा चुनाव लड़ने की हिम्मत अभी भी नहीं। दो दिन पहले की ही तो बात। जब कांग्रेस के प्रवक्ता से पूछा- 'मनमोहन सिंह चुनाव लड़ेंगे?' तो वह बगलें झांकने लगे। बोले- 'पीएम के लिए लोकसभा का मेंबर होना जरूरी नहीं।' वह भूल गए- इंदिरा गांधी जब पीएम बनी। तो राज्यसभा की मेंबर थी। पर उनने लोकसभा का उपचुनाव जीतकर राज्यसभा से इस्तीफा दिया। पर बात हो रही थी आडवाणी से डरने की। किशोर चंद्र देव आडवाणी के मुद्दों से भी डरे-सहमे दिखे। बोले- 'आतंकवाद चुनावी मुद्दा नहीं बनेगा।' आतंकवाद के जिस मुद्दे से कांग्रेस मुंह चुराती थी। अब उसी आतंकवाद को मुद्दा नहीं मानती। तो यह सिर्फ दिल्ली-राजस्थान के चुनाव नतीजों का उत्साह। पर आडवाणी से इतना क्यों डर रही है कांग्रेस। इसके अपन दो सबूत देते जाएं। पहला सबूत- सांसदों की खरीद-फरोख्त का। इन्हीं किशोर चंद्र देव ने अमर सिंह को बरी किया। पर आडवाणी के करीबी सुधींद्र कुलकर्णी पर कार्रवाई की सिफारिश की। अब सुधींद्र कुलकर्णी के खिलाफ एफआईआर। इसे कहते हैं- चोर कोतवाल को डांटे। दूसरा सबूत- राजस्थान में हाई सिक्योरिटी नंबर प्लेटों की खरीद का। गहलोत सरकार ने खरीद-फरोख्त में घोटाला बताकर एफआईआर दर्ज कराई। तो उसमें आडवाणी के ओएसडी दीपक चोपड़ा का भी नाम। अपन इस पर ज्यादा नहीं कहेंगे। मामला अदालत में। पर जगदीप धनकड़ बता रहे थे- 'खरीद कोर्ट की हरी झंडी के बाद ही हुई थी।'
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