कांग्रेस को मध्यप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, उड़ीसा, केरल और छत्तीसगढ़ में फायदा होगा। लेकिन असम, गुजरात, तमिलनाडु, हरियाणा में नुकसान होगा। सपा, राजद और द्रमुक को भी होगा अच्छा-खासा नुकसान।
भाजपा को गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार में बढ़ोत्तरी मिलेगी। वक्त देखकर जयललिता, मायावती दे सकती हैं एनडीए को समर्थन। पलड़ा किसी का भारी नहीं, टक्कर कांटे की।
यूपीए सरकार ने अल्पमत में होते हुए अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा कर लिया है। यूपीए लोकसभा में पहले वामपंथी दलों के समर्थन से और बाद में समाजवादी पार्टी के समर्थन से बहुमत में है। हालांकि यूपीए की सरकार कभी भी बहुमत की सरकार नहीं थी क्योंकि मंत्रिमंडल बाहरी समर्थन पर टिका हुआ था। इसीलिए विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी चार साल तक सरकार के कार्यकाल पूरा नहीं होने की उम्मीद लगाए रहे। दूसरी तरफ एनडीए सरकार 1999 के बाद आखिर तक पूरी तरह बहुमत में थी मई 2004 में यूपीए सरकार बनने का कारण दक्षिण के दो बड़े राज्य आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु थे। आंध्र प्रदेश की 42 में से 29 सीटें जीतकर कांग्रेस देश की सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभर आई थी और तमिलनाडु में कांग्रेस खुद दस और उसका सहयोगी द्रमुक गठबंधन बाकी की सभी 29 सीटें जीत गया था। इस तरह यूपीए को मिली 211 सीटों में से 68 यानी करीब तिहाई सीटें तो इन्हीं दो राज्यों की थी।
अब जबकि लोकसभा चुनाव सिर पर आ गए हैं तो राजग और यूपीए में टिकटों का बंटवारा शुरू हो चुका है। पिछले तीन लोकसभा चुनावों की तरह मुकाबला इस बार भी दोनों बड़े गठबंधनों के बीच होगा। यूपीए और एनडीए क्षेत्रीय दलों को अपने-अपने साथ लाने की कोशिशों में जुट गए हैं। पिछले छह महीनों में चार क्षेत्रीय दलों ने गठबंधनों के साथ अपनी निष्ठाएं नए सिरे से तय की हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की 80 में से 35 सीटें और उत्तराखंड की एक सीट जीतने वाली समाजवादी पार्टी ने इस बार यूपीए में शामिल होकर कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया है। पिछले लोकसभा चुनाव से ठीक पहले तक एनडीए सरकार में शामिल नेशनल कांफ्रेंस ने भी जम्मू कश्मीर में कांग्रेस के समर्थन की एवज में यूपीए से चुनावी गठबंधन का ऐलान किया है। पिछले चार-साढ़े चार साल से एनडीए से अलग होकर तीसरे मोर्चे का हिस्सा बने रहे हरियाणा के इनलोद और असम के असमगण परिषद ने एनडीए में फिर से प्रवेश कर लिया है। उत्तर प्रदेश के एक अन्य छोटे दल अजित सिंह के लोकदल की एनडीए से सीटों के बंटवारे पर बात चल रही है, लेकिन वह आखिरी समय में किस तरफ जाएंगे, कोई दावे के साथ नहीं कह सकता। अजित सिंह मौसम के साथ-साथ साथी बदलने में माहिर हैं, वह भाजपा से दस लोकसभा सीटें मांग रहे हैं, जबकि अरुण जेटली सात देने को राजी हुए हैं।
बड़ा सवाल यह है कि क्या यूपीए-एनडीए के अलावा तीसरे मोर्चे की भी कोई संभावना बनती है। पिछले लोकसभा चुनावों के वक्त वामपंथी दलों और उत्तर प्रदेश के समाजवादी दल ने मिलकर चुनाव तो नहीं लड़ा था लेकिन दोनों दल एक-दूसरे के काफी करीब थे। चारों वामपंथी दल और समाजवादी पार्टी मिलकर 96 सीटें ले गए थे। पांच सीटें जीतने वाली आंध्र प्रदेश की तेलगूदेशम भी इन्हीं के साथ थी। यानी तीसरे मोर्चे को 101 सीटें हासिल हुई थी और उनके समर्थन के बिना कोई सरकार नहीं बन सकती थी। माकपा के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने चुनाव नतीजों के फौरन बाद सोनिया गांधी को समर्थन देकर तीसरे मोर्चे की ताकत को फ्यूज कर दिया था। कांग्रेस ने उसका भरपूर फायदा उठाते हुए तीसरे मोर्चे को पहले ही दिन तोड़ दिया। वामपंथी दलों ने समाजवादी पार्टी को धोखा देकर बीच मझधार में छोड़ दिया था। कांग्रेस ने अपनी परंपरा का पालन करते हुए दोनों दलों में फूट डाले रखी। पहले चार साल माकपा का इस्तेमाल किया और आखिरी साल उनको ठोकर मारकर समाजवादी पार्टी को अपने साथ जोड़ लिया। पिछले साल एटमी करार के मुद्दे पर जब गठबंधन नए सिरे से बन और बिगड़ रहे थे तो तीसरे मोर्चे में समाजवादी पार्टी की जगह बहुजन समाज पार्टी ने ले ली थी। केंद्र की एनडीए सरकार को समर्थन दे चुके अन्ना द्रमुक, बसपा, इनलोद, तेलगूदेशम, असमगण परिषद और पिछले लोकसभा चुनाव में ही उभरे टीआरएस ने मिलकर तीसरा मोर्चा गठित किया। समाजवादी पार्टी जब यूपीए सरकार बचाने के लिए तीसरा मोर्चा छोड़ गई तो इस नए तीसरे मोर्चे ने वामपंथी दलों के साथ मिलकर यूपीए सरकार गिराने का बीड़ा उठाया था। लेकिन मायावती की रहनुमाई वाला तीसरा मोर्चा सरकार गिराने में विफल रहा तो खुद ही रेत के महल की तरह बिखरने लगा। जयललिता को पहले मुलायम की रहनुमाई मंजूर नहीं थी और बाद में मायावती की मंजूर नहीं हुई। मायावती इस समय न तो एनडीए में है, न यूपीए में और न ही तीसरे मोर्चे में। इस बीच तीसरे मोर्चे के इनलोद और अगप वापस एनडीए में लौट चुके हैं वामपंथी दलों ने एनडीए के दो पूर्व सहयोगी दलों तेलगूदेशम और अन्नाद्रमुक के अलावा यूपीए के सहयोगी टीआरएस को अपने साथ जोड़ा है। लेकिन इस बार तीसरे मोर्चे की हालत पिछली बार जैसी मजबूत नहीं है। वामपंथी दलों की हालत केरल में बेहद पतली है और बंगाल में भी वैसी मजबूती नहीं रही। पिछली बार केरल की बीस में से 18 सीटें वामपंथी गठबंधन जीता था। बंगाल में भी 42 में से 35 सीटें वामपंथी जीते थे अब इन दोनों राज्यों में कम से कम दस सीटों का नुकसान तय है। इसकी भरपाई कहीं से होती दिखाई नहीं देती। वामपंथी दलों के नए साथी अन्ना द्रमुक की हालत में जरूर सुधार होगा। पिछली बार तो अन्ना द्रमुक लोकसभा में एक भी सीट नहीं जीत पाई थी, इस बार उसका खाता जरूर खुलेगा लेकिन द्रमुक की हालत इतनी पतली भी नहीं। इसी तरह आंध्र प्रदेश में नए बनी चिरंजीवी की पार्टी प्रजा रायम ने तेलगूदेशम की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। कुल मिलाकर तीसरा मोर्चा कोई रूप लेता दिखाई नहीं देता। देखना होगा कि मायावती और जयललिता की सीटें कितनी आती हैं, लेकिन ये दोनों ही पहले एनडीए सरकार का समर्थन कर चुकी हैं। मुलायम अगर कांग्रेस के साथ रहेंगे तो मायावती मजबूरी में आडवाणी का साथ देंगी। करुणानिधि अगर सोनिया के साथ रहेंगे तो जयललिता भी आडवाणी का समर्थन कर देंगी।
जहां एक तरफ मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ ने कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। बिहार, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में यूपीए की ताकत बढ़ने के बजाए घटने जा रही है। वहां चिरंजीवी आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के लिए संजीवनी बनकर प्रकट हुए हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में आंध्र प्रदेश में कांग्रेस को सर्वाधिक 29 सीटें मिली थी, इस बार अगर आंध्र प्रदेश में सीटें घटीं तो कांग्रेस का सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरना आसान नहीं। तेलगूदेशम के प्रभाव वाले क्षेत्र में प्रजा रायम के प्रभावशाली ढंग से उभरने का सीधा फायदा कांग्रेस को होगा। प्रजा रायम बनने के बाद आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी सर्वाधिक खुश हैं। आंध्रप्रदेश विधानसभा का चुनाव भी लोकसभा के साथ होगा और कांग्रेस का पलड़ा अभी से भारी दिखाई देने लगा है। कांग्रेस का असम में 9, गुजरात में 12, तमिलनाडु में 10 सीटें, हरियाणा में 9 सीटें बरकरार रहना आसान नहीं है। आंध्र प्रदेश समेत इन सभी पांचों राज्यों में कांग्रेस की कम से कम 20 सीटें घट रही हैं। कांग्रेस को मौजूदा 145 सीटें बनाए रखने के लिए मध्यप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, उड़ीसा, केरल और छत्तीसगढ़ से इसकी भरपाई करनी पड़ेगी। हालांकि कांग्रेस इन छह राज्यों में अपनी ताकत दोगुनी से तिगुनी कर सकती है। इस समय इन छह राज्यों की 133 लोकसभा सीटों में से कांग्रेस के पास सिर्फ 20 सीटें हैं और कांग्रेस की रणनीति इसे 50 तक ले जाने की है। छह में से पांच राज्यों में भाजपा की सीटें घटेंगी और छटे केरल में वामपंथी दलों की। कांग्रेस अगर अपनी रणनीति में कामयाब रही तो वह अपनी ताकत 175 सीटों की बना सकती है। लेकिन कांग्रेस को तमिलनाडु, बिहार और उत्तर प्रदेश में अपने प्रमुख सहयोगियों द्रमुक और राजद को होने वाले नुकसान की भरपाई का रास्ता भी निकालना होगा। द्रमुक, राजद और सपा की मौजूदा 76 सीटें घटकर आधी तक हो जाएंगी। यानी कांग्रेस अगर 30 सीटों की अपनी ताकत बढ़ाएगी तो उसे सहयोगियों की 40 सीटों का नुकसान होगा। आम धारणा के विपरीत गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार और हरियाणा में भाजपा की ताकत में बढ़ोत्तरी हो रही है। अगर वह 20 सीटें मध्यप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ में घटाएगी, तो उसकी भरपाई इन चारों राज्यों से कर लेगी। इसलिए इस बार भी लड़ाई कांटे की ही है, पलड़ा किसी का भारी नहीं है।
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