छत्तीसगढ़ में हार के बाद सोनिया गांधी के दरबार में जोगी का रुतबा घटा। मध्यप्रदेश की हार ने दिग्गज नेताओं की चमक घटा दी। राजस्थान की हार के बाद भाजपा की फूट विस्फोटक होकर सामने आई।
दिल्ली और राजस्थान की हार से भारतीय जनता पार्टी में मायूसी छाई हुई है। उतनी ही मायूसी कांग्रेसी हलकों में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की हार पर भी है। लालकृष्ण आडवाणी ने राजस्थान की हार का कारण गुटबाजी बताया है और दिल्ली की हार का कारण टिकटों का गलत बंटवारा बताया है। सोनिया गांधी ने छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश दोनों ही राज्यों में पार्टी की हार का कारण स्थानीय नेताओं की गुटबाजी बताया है। दोनों ही बड़े नेताओं ने अपनी-अपनी राय अपने-अपने संसदीय दल की बैठक में पेश की।
कांग्रेस ने दिल्ली को छोड़कर किसी राज्य में मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट नहीं किया था। हालांकि छत्तीसगढ़ में अजित जोगी को सांसद होने के बावजूद विधानसभा का टिकट देकर संकेत कर दिया था और मिजोरम में ललथनहवला को मुख्यमंत्री पद का स्वाभाविक उम्मीदवार माना जाता था। राजस्थान में मुख्यमंत्री का फैसला करने में कांग्रेस को उतनी देर नहीं लगी, जितना छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में विधायक दल का नेता चुनने में लगी।
कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में सोनिया गांधी ने दो टूक शब्दों में कहा कि दिल्ली और राजस्थान में पार्टी एकजुट होकर लड़ी, इसलिए जीती जबकि छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में नेता एकजुट नहीं थे। उनके कहने का मतलब यह था कि इन दोनों ही राज्यों में नेता आपस में ही लड़ रहे थे। सोनिया गांधी ने छत्तीसगढ़ की हार का ठीकरा एक तरह से अजित जोगी के सिर पर फोड़ दिया है। जोगी सांसद होने के बावजूद यह कहकर विधानसभा का चुनाव लड़े थे कि उन्हें एक मौका और दिया जाए। सोनिया गांधी ने राज्य में जोगी का विरोध होने के बावजूद उन्हें यह मौका इस भरोसे पर दिया था कि वह सबको साथ लेकर चलेंगे और पार्टी को जिताकर लाएंगे। लेकिन वह दोनों ही मोर्चों पर विफल हुए। चुनाव के दौरान और नतीजों के बाद भी सोनिया गांधी के पास रिपोर्ट पहुंची कि अजित जोगी अपने विरोधी खेमे के उम्मीदवारों को हराने की कोशिशों में जुटे हुए हैं। इन्हीं रिपोर्टों के आधार पर सोनिया गांधी ने रवीन्द्र चौबे को छत्तीसगढ़ कांग्रेस विधायक दल का नेता मनोनीत कर दिया। रवीन्द्र चौबे विधानसभा चुनावों से पहले तक अजित जोगी खेमे में ही थे, लेकिन चुनाव नतीजों के बाद विद्याचरण शुक्ल ने उन्हें बड़ी सफाई से जोगी के खिलाफ खड़ा कर दिया। वैसे चौबे राजनीति में अजित जोगी से सीनियर हैं, जोगी 1986 में अपने राजनीतिक गुरु अर्जुन सिंह की कृपा से पहली बार राज्यसभा में पहुंचे थे, जबकि रवीन्द्र चौबे 1985 में विधायक बन चुके थे। काफी लंबे समय तक इधर-उधर भटकने के बाद विद्याचरण शुक्ल ने अब पहली बार छत्तीसगढ़ की राजनीति के माध्यम से कांग्रेस में अपनी स्थिति मजबूत बनाना शुरू कर दिया है। रवीन्द्र चौबे का विधायक दल का नेता मनोनीत होना अजित जोगी पर सोनिया गांधी के विश्वास का अंत माना जा रहा है। जिस तरह विद्याचरण शुक्ल अपने साथ चौबे को लेकर दिल्ली आए और उसके बाद जिस तरह उनकी तैनाती हुई, उससे छत्तीसगढ़ कांग्रेस में शुक्ल की स्थिति मजबूत होने के संकेत हैं। रवीन्द्र चौबे ने भी अपनी नियुक्ति पर जिन लोगों का आभार व्यक्त किया, उनमें विद्याचरण शुक्ल का नाम खास तौर पर लिया, जबकि हाल ही तक वह हाशिए पर थे। सोनिया गांधी को मध्यप्रदेश में नेता चुनने में छत्तीसगढ़ से भी ज्यादा देर लग रही है। विधानसभा चुनावों में मध्यप्रदेश में गुटबाजी सबसे ज्यादा रही। सोनिया गांधी मध्यप्रदेश के सभी नेताओं से काफी खफा हैं। कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में उनका गुस्सा फूटना इसका साफ संकेत है। सोनिया गांधी के निशाने पर दिग्विजय सिंह, कमलनाथ के साथ सुरेश पचौरी भी होंगे, जिन्हें सबको साथ लेकर चलने के लिए मध्यप्रदेश भेजा गया था। मध्यप्रदेश की हार के बाद सोनिया गांधी के दरबार में अर्जुन सिंह का कद पहले से भी घटेगा, क्योंकि उनके गृह जिले में कांग्रेस सबसे कमजोर होकर उभरी है। इस नाते अर्जुन सिंह के बेटे राहुल सिंह की स्थिति भी कमजोर हुई है, जबकि वह मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब देख रहे थे। हालांकि अभी भी कोशिश हो रही है कि राहुल सिंह को विधायक दल का नेता बना दिया जाए, लेकिन भाजपा के लगातार दो बार ओबीसी को मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करके जीतने से उनका गणित गड़बड़ा रहा है।
जैसे सोनिया गांधी को हारे हुए राज्यों मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधायक दल का नेता चुनने में देरी लगी, वैसे ही भारतीय जनता पार्टी को हारे हुए राजस्थान में हार के बाद सामने आई फूट ने मुसीबत में डाल दिया है। राजस्थान की फूट चुनावों से पहले टिकटों के बंटवारे के समय ही सामने आ गई थी, जब कम से कम चालीस सीटों पर मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और प्रदेश अध्यक्ष ओम प्रकाश माथुर में सीधा टकराव हुआ। प्रदेश के संगठन महासचिव प्रकाश चंद्र ने वसुंधरा राजे का साथ देकर प्रदेश अध्यक्ष ओम प्रकाश माथुर को अलग-थलग और लाचार बना दिया था। माथुर ने वसुंधरा और प्रकाश चंद्र गुट के सामने घुटने टेकने के बजाए अपना विरोध जताने के लिए बैठक से वाकआउट भी किया था। बाद में जब 55 बागी उम्मीदवार खड़े हो गए, तो पार्टी आलाकमान के होश फाख्ता हो गए थे। ठीक चुनाव के वक्त इतनी बड़ी तादाद में बागियों का खड़ा होना भारतीय जनता पार्टी की हार का कारण बना। भाजपा के सिर्फ तीन बागी ही चुनाव में जीत पाए, लेकिन 33 बागियों ने पार्टी को कांग्रेस के हाथों हार दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। ओमप्रकाश माथुर ने पार्टी आलाकमान को अपना इस्तीफा देते हुए यह याद भी दिला दिया है कि जिन चालीस उम्मीदवारों पर उन्होंने विरोध जताया था, उनमें से सिर्फ तीन ही जीते हैं। ठीक चुनाव के वक्त वसुंधरा सरकार में मंत्री रहे किरोड़ीलाल मीणा का बागी होकर चुनाव लड़ना भारतीय जनता पार्टी के लिए अंतिम कील साबित हुआ। किरोड़ी लाल मीणा ने अपनी सीट के अलावा तीन और सीटों पर अपनी इच्छा के उम्मीदवार खड़े करने की मांग की थी। लेकिन वसुंधरा राजे उन्हें उनकी सीट के अलावा एक भी सीट देने को तैयार नहीं हुई। वसुंधरा राजे जितने अड़ियल किरोड़ीलाल मीणा भी हैं, आलाकमान इसे जानते हुए भी सही वक्त पर सही फैसला नहीं ले सका। किरोड़ीलाल मीणा का अपने इलाके में अच्छा प्रभाव है और इसी नाते वह भैरोंसिंह शेखावत से भी टक्कर लिया करते थे। टिकट बंटवारे से ठीक पहले किरोड़ीलाल मीणा ने पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह से मुलाकात करके अपने तर्क पेश कर दिए थे। लेकिन उन्होंने यह भी साफ कर दिया था कि अगर उनकी मर्जी के चार उम्मीदवार नहीं बनाए गए, तो वह चुनाव नहीं लड़ेंगे। भाजपा ने दूसरी गलती यह की कि वसुंधरा राजे के दबाव में आकर किरोड़ीलाल मीणा का नाम भी सूची से गायब कर दिया। नतीजा यह निकला कि उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार खड़े किए, अपने समेत चार उम्मीदवार जिताने में कामयाब रहे, जबकि भाजपा को सात सीटों पर कांग्रेस के हाथों हरवा दिया। किरोड़ीलाल मीणा संघ नेताओं के संपर्क में हैं और वसुंधरा राजे को दरकिनार किए जाने पर पार्टी में लौटने को तैयार हैं, अब भाजपा आलाकमान के सामने संकट यह है कि किरोड़ीलाल मीणा और पार्टी में वसुंधरा विरोधियों के दबाव में आकर फैसला करे, या विपरीत परिस्थितियों में भी 76 सीटें दिलाने का श्रेय देकर वसुंधरा राजे को ही विपक्ष के नेता की कुर्सी सौंपे। भारतीय जनता पार्टी एक तरफ विधायक दल का नेता चुनने की मुश्किल में फंसी है, तो दूसरी तरफ ओमप्रकाश माथुर ने भी मौजूदा संगठन मंत्री के रहते अध्यक्ष पद पर बने रहने में असमर्थता जता दी है। सोनिया गांधी को हारे हुए राज्यों में विधायक दल का नेता चुनने में उतनी मुश्किल नहीं आई, जितना राजस्थान में चुनाव हारने के बाद भाजपा आलाकमान के सामने खड़ी है।
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