पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश के बाद गुजरात और कर्नाटक में कांग्रेस लगातार हारी। अब उसमें मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ भी जुड़ गया। पंद्रहवीं लोकसभा के लिए कांग्रेस की सारी उम्मीद मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान पर टिकी थी। अब कांग्रेसी नेताओं के माथे पर परेशानी की लकीरें दिखने लगीं।
पांच राज्यों के चुनाव नतीजों से कांग्रेस और भाजपा में आत्ममंथन शुरू हो गया है। विधानसभा चुनावों को सेमीफाइनल मानकर चलने वाली दोनों ही पार्टियों को चुनाव नतीजों ने परेशानी में डाल दिया है। भारतीय जनता पार्टी राजस्थान की हार को लेकर उतनी चिंतित नहीं है, जितनी दिल्ली की हार को लेकर है। दूसरी तरफ कांग्रेस दिल्ली, मिजोरम और राजस्थान हासिल करने से उतनी खुश नहीं है, जितनी मध्यप्रदेश में हार से परेशान है। अगली लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरने के लिए कांग्रेस की निगाह मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान पर ही टिकी हुई थी। तीनों ही राज्यों के चुनाव नतीजे कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फेरने वाले हैं।
राजस्थान में सरकार बनने के बावजूद कांग्रेस लोकसभा चुनावों की दृष्टि से ज्यादा उत्साहित नहीं है। भारतीय जनता पार्टी यह मानकर चल रही है कि राजस्थान में उसकी हार मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार वसुंधरा राजे के सामंती व्यवहार के कारण हुई है। पार्टी का एक खेमा यह भी मानता है कि आलाकमान को टिकट बंटवारे के समय वसुंधरा राजे पर अंकुश लगाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं करके पार्टी ने बहुत बड़ी भूल की थी। इसका ठीकरा प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी पर फोड़ा जा रहा है, जिन्होंने संगठन से लगातार मिल रही चेतावनियों के बावजूद वसुंधरा राजे को टिकटों पर फैसले में खुला हाथ देने का समर्थन किया था। भारतीय जनता पार्टी राजस्थान में हुई अपनी गलती को सुधारने की तैयारियों में जुट चुकी है, जिसका संकेत खुद लालकृष्ण आडवाणी ने गुरुवार को लोकसभा में आतंकवाद पर बहस में हिस्सा लेते हुए दिया। जब उन्होंने कहा- 'हम अगर राजस्थान और दिल्ली में हार गए हैं, तो इसका यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि आतंकवाद देश के सामने मुद्दा नहीं है। इन दोनों ही राज्यों में हम अपनी गलतियों से हारे हैं, कांग्रेस की वजह से नहीं।' दिल्ली में हार की वजह भी भाजपा को समझ आने लगी है, पार्टी के नेता यह मानते हैं कि विजय कुमार मल्होत्रा को मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करना पहली गलती थी और अति उत्साह में टिकटों का ऊल-जलूल बंटवारा दूसरी गलती थी। यह दोनों ही गलतियां लोकसभा चुनावों में सुधारी जाएंगी।
कांग्रेस को दिल्ली, मिजोरम और राजस्थान में सरकार बनाने पर संतोष जाहिर करना चाहिए। आखिर दिल्ली बचाकर कांग्रेस ने मिजोरम और राजस्थान भी हासिल किया है लेकिन कांग्रेस आलाकमान की पेशानी पर इन चुनाव नतीजों से बल पड़ गया है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की हार तीन राज्यों में जीत पर भारी पड़ रही है। इन दोनों राज्यों की हार कांग्रेस के लिए सचमुच चिंता का विषय है, क्योंकि इससे पहले तो सिर्फ यह माना जाता था कि देश के किसी भी राज्य में कांग्रेस अगर एक बार हार भी जाए तो अगली बार लौट आती है। तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल ही ऐसे उदाहरण थे, जहां कांग्रेस लंबे समय से सत्ता से विमुख थी, दो दशक पहले उसमें उत्तर प्रदेश जुड़ गया था तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश तीनों ऐसे राज्य हैं, जहां गैर कांग्रेस-गैर भाजपा दलों ने अपना दबदबा कायम किया था, लेकिन भारतीय राजनीति का अब दूसरा दौर शुरू हो गया है जिसमें भारतीय जनता पार्टी भी दूसरे राज्यों में अपनी जड़ें जमाने लगी है। गुजरात और कर्नाटक हाल ही के उदाहरण थे, जहां पिछले दस साल से भारतीय जनता पार्टी का पलड़ा कांग्रेस पर भारी था। गुजरात में तो भाजपा अपनी जीत की हेटट्रिक बना चुकी है, कर्नाटक में पिछली बार उसकी सीटें कांग्रेस से ज्यादा थी लेकिन इस बार वह खुद की सरकार बनाने में कामयाब हो गई। अब मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में लगातार दूसरी बार जीत से यह दायरा बढ़ गया है। गुजरात-कर्नाटक-मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ देश के चार ऐसे राज्य बन गए हैं, जहां भाजपा ने अपनी जड़ें मजबूत करने के संकेत दे दिए हैं, जो कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी है।
पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में अगर बिहार भी जोड़ लिया जाए, तो इन आठ राज्यों में लोकसभा की 294 सीटें बनती हैं। केरल, त्रिपुरा, पंजाब, उड़ीसा, उत्तराखंड, हिमाचल और मेघालय में भी गैर कांग्रेसी सरकारें हैं। उपरोक्त पंद्रह राज्यों की कुल लोकसभा सीटें 361 हैं। कांग्रेस के पास इस समय सिर्फ महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश ही दो बड़े राज्य हैं, असम-झारखंड में राजस्थान और दिल्ली को जोड़कर कांग्रेस डेढ़ सौ पर ही पहुंचती है। अगला लोकसभा चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस की निगाह राजस्थान के अलावा मध्यप्रदेश पर सबसे ज्यादा टिकी थी। राजस्थान में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत नहीं मिला है और विधानसभा चुनाव नतीजों के हिसाब से अंदाज लगाया जाए तो दोनों दलों को आधी-आधी सीटें मिल सकती हैं। कांग्रेस अगले लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, असम में होने वाले नुकसान की भरपाई राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ से करने की उम्मीद पाले हुए थी। अब जबकि लोकसभा चुनाव में सिर्फ छह महीने बाकी रह गए हैं, तो कांग्रेस की मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान से होने वाले फायदे की उम्मीद पर पानी फिर गया है।
यही वजह है कि दिल्ली, मिजोरम में जीत और राजस्थान में सत्ता कांग्रेस नेताओं के चेहरे पर रौनक नहीं ला सकी है, अलबत्ता कांग्रेस मुख्यालय में खतरे की घंटी बजनी शुरू हो गई है। कांग्रेस ने पहली बार सोनिया गांधी से ज्यादा राहुल गांधी को चुनाव मैदान में उतारा था, कांग्रेस को उम्मीद थी कि मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में इसके सकारात्मक नतीजे निकलेंगे। पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में पचास फीसदी मतदाताओं की उम्र चालीस साल से नीचे होने के कारण कांग्रेस की रणनीति लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी को युवा मुखौटे की तरह पेश करने की है। राहुल गांधी को लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के वोट कैचर के तौर पर पेश किया जाना है, इसलिए कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों में सोनिया गांधी को उतारने की बजाए राहुल को ट्रायल के तौर पर आजमाया था। भाजपा शासित इन तीनों ही राज्यों में सकारात्मक नतीजे नहीं निकलने से राहुल गांधी सबसे ज्यादा हताश बताए जाते हैं। खासकर मध्यप्रदेश को लेकर बेहद क्षुब्ध हैं। मध्यप्रदेश में कांग्रेस के पास नेताओं की कमी नहीं है, अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह, कमलनाथ, ज्योतिरादित्या सिंधिया और सुरेश पचौरी कांग्रेस के दिग्गज नेताओं में से हैं। अर्जुन सिंह और दिग्विजय सिंह दो-दो बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। कमलनाथ और सुरेश पचौरी कम से कम आठ-दस साल केंद्र में मंत्री रहे हैं। ज्योतिरादित्य के पास राजनीति की पारिवारिक विरासत है। इसके बावजूद कांग्रेस लगातार दूसरी बार चुनाव हार गई है। छत्तीसगढ़ में विद्याचरण शुक्ला चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस में लौट आए थे, इसलिए कांग्रेस की ताकत दुगुनी हो जानी चाहिए थी। मोती लाल वोरा और अजित जोगी जैसे दो पूर्व मुख्यमंत्रियों ने भी अपनी पूरी ताकत झोंकी थी, इसके बावजूद वहां कांग्रेस लगातार दूसरी बार हार गई। राहुल गांधी के ताजा नेतृत्व ने कांग्रेस को यह कड़वा घूंट पीने पर मजबूर कर दिया है, इसलिए लोकसभा चुनाव को लेकर कांग्रेसी नेताओं की धड़कनें तेज हो गई हैं।
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