इस्तीफे की पेशकश तो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार ने भी की। आखिर पीएम ने शुक्रवार को समीक्षा की। तो पाटिल के अलावा नारायणन भी नदारद थे। पर इस्तीफा सिर्फ पाटिल का मंजूर हुआ। पीएम ने बृजेश मिश्र को बुलाया। तो नारायणन ने इसे इशारा समझा। बृजेश-मनमोहन मुलाकात से अपने कान भी खड़े हुए। अपन को याद आया- 'अमेरिकी समझाइश पर बृजेश मिश्र ने एटमी करार पर यू टर्न लिया था।' जरूर अमेरिकी सलाह से मुलाकात हुई होगी। पर फिलहाल नारायणन बच गए। यों खबर तो रॉ-आईबी चीफ पर भी गाज गिरने की। अपन उन दोनों का कसूर नहीं मानते। कसूर राजनीतिक लैवल पर हुआ।
पाटिल हर चेतावनी को हवा में उड़ाते रहे। दिल्ली में जब बम फुट रहे थे। पाटिल पल-पल कपड़े बदल रहे थे। पर तब पाटिल का कुछ नहीं बिगड़ा। लालू-पासवान ने इस्तीफा मांगा। तो पाटिल ने साफ कहा- 'जब तक सोनिया नहीं चाहेंगी, इस्तीफा नहीं दूंगा।' अब जब सोनिया ने चाहा। तो पाटिल को जाना ही था। लालू की तो जैसे दिली ख्वाहिश पूरी हो गई। बोले- 'यह काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था।' वैसे अपन अभी से बताते जाएं। चिदंबरम भी कोई बेहतर साबित नहीं होंगे। चुनावों में कांग्रेस का दो दिक्कतों से सामना हुआ। महंगाई और आतंकवाद। सोनिया ने एक तीर से दो निशाने साधे। पाटिल को होम मिनिस्ट्री से हटाया। चिदंबरम को वित्त मंत्रालय से। कपिल सिब्बल होम मिनिस्ट्री पर निगाह टिकाए थे। कांग्रेस में वह पाटिल के घोर विरोधी थे। पर मुंह ताकते रह गए। पर सोनिया की मुसीबत इसी से खत्म नहीं हुई। यूपीए मीटिंग में लालू ने कहा- 'उनने साढ़े चार साल पाटिल को देश पर क्यों लादे रखा।' पाटिल ने भी चौदह सितम्बर को खुद कहा था- 'सोनिया चाहेंगी, तभी हटूगां।' आप अंदाज लगाओ, कांग्रेसी भी कितने परेशान थे। पाटिल के इस्तीफे की खबर आते ही चहकने लगे। जैसे चार साल की गलतियों के पाप धुल गए हों। वीरप्पा मोइली बोले- 'संसद पर हमले के बाद आडवाणी ने इस्तीफा नहीं दिया था। आतंकवाद पर हम गंभीर या बीजेपी।' अपने अशोक गहलोत को वसुंधरा के हमलों का जवाब देने का एक मुद्दा तो मिला। पर एक सवाल का जवाब अभी बाकी। जयपुर, बेंगलुरु, अहमदाबाद, दिल्ली में मरने वालों का खून क्या खून नहीं था? मुंबई की लोकल टे्रनों में मरने वालों का खून क्या पतला था? ताज-ओबराए में मौत का तांडव हुआ। तब ही पाटिल लच्चर होम मिनिस्टर दिखे। राजनीतिक गलियारों में फौरी सवाल उठ गए- क्या अमेरिकी दबाव में पाटिल का पटिया उलाल हुआ। बात अमेरिका की चली। तो बताते जाएं- कूटनीतिक गलियारों की बात। हवा उड़ी- 'अमेरिका में जब सत्ता हस्तांतरण होगा। तो भारत बार्डर पर फौज भेज देगा।' क्रिकेट टीम का जनवरी दौरा रद्द कर टेंशन बनाई। टेंशन की वजह बना- पाक का आईएसआई डीजी अहमद शुजा पाशा को भेजने से मुकरना। पर जरदारी ने कहा- 'ना मनमोहन ने आईएसआई डीजी को भेजने की मांग की। न मैंने वादा किया। बात डायरेक्टर की हुई थी।' यों सब जानते हैं- डीजी को भेजने की बात पीएम गिलानी ने कही थी। जिसे विदेशमंत्री कुरैशी ने दोहराया। पर आर्मी चीफ कियानी ने फच्चर फंसा दिया। यों बार्डर पर टेंशन की हवा ने फुर्ति से काम किया। कोंडालीसा राइस ने इस्लामाबाद में फोन लगाकर समझाया। प्रणव बाबू को भी समझाया गया। ऐसी नौबत तब आई। जब दिल्ली से सीज फायर खत्म करने के संकेत जाने लगे। पाक ने भी अफगानिस्तान बार्डर से फौजें भारतीय बार्डर पर लाने के संकेत दे दिए। रविवार शाम होते-होते भारत-पाक टेंशन कम हो गई थी। मनमोहन सिंह ऑल पार्टी मीटिंग में बोल रहे थे- 'फेडरल एजेंसी बनाएंगे। प्रशासनिक सुधार कमेटी की सिफारिशें लागू करेंगे। और भी जरूरी कानूनी कदम उठाएंगे। मीटिंग से देश में एकजुटता का संदेश जाना चाहिए।' पर एकजुटता की पेशकश तो आडवाणी ने की थी। जब उनने कहा- 'मुंबई साथ चलूंगा।' पर मनमोहन वादा करके पलट गए थे।
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