अजय सेतिया / भाजपा में नरेंद्र मोदी काल शुरू होने के बाद मीडिया में बड़ी भारी अटकल लगी थी कि वह पार्टी में आमूल चूल परिवर्तन करने के इरादे से रमन सिंह , शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री पद से हटा कर केंद्र में मंत्री बना देंगे और अपने मुख्यमंत्री नियुक्त करंगे | लेकिन उन्होंने तीनों में से किसी को दिल्ली आने के लिए नहीं कहा था , सिर्फ गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर परिकर को आग्रह कर अपनी केबिनेट में रक्षा मंत्री बनाकर लाए थे | मोदी काल शुरू होने के बाद छोटी मोटी शिकायतों के बावजूद किसी भी मुख्यमंत्री को अपने कार्यकाल के अधबीच में हटाया नहीं गया | उन्हें अपना कार्यकाल पूरा करने दिया गया | 2018-19 में हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के खिलाफ भाजपा के एक वर्ग की शिकायत के बाद भी उन्हें नहीं हटाया गया था , अलबत्ता चुनाव बाद पूर्ण बहुमत नहीं मिलने के बावजूद उन्हें ही मुख्यमंत्री बनाया गया |
2016 में आनंदीबेन को गुजरात के मुख्यमंत्री पद से इसलिए हटाया गया था क्योंकि प्रदेश प्रभारी ओम माथुर की रिपोर्ट थी कि अगर मुख्यमंत्री नहीं बदला गया तो 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को भारी नुक्सान होगा | प्रधानमंत्री खुद अपने गृह राज्य में यह जोखिम नहीं उठा सकते थे , इस लिए उन्हें हटा कर विजय रूपानी को मुख्यमंत्री बनाया गया | उस के बाद से पिछले लगभग सात साल में त्रिवेंद्र सिंह रावत दूसरे मुख्यमंत्री हैं , जिन्हें उसी कारण से हटाया गया है , जिस कारण से आनंदीबेन पटेल को हटाया गया था | मोदी के दूसरे कार्यकाल के पहले साल से उनकी लोकप्रियता दाव पर लगी है | अंतर्राष्ट्रीय ताकतें उन को अस्थिर करने की साजिशें रच रही हैं | महाराष्ट्र में शिवसेना के हाथों राजनीतिक मात खाने और दिल्ली विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद वह ज्यादा सावधान हैं | अब वह ऐसा कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते कि आने वाले तीन साल तक पार्टी को किसी बड़ी हार का सामना करना पड़े |
बंगाल में अगर भाजपा की सरकार नहीं बनती है , तो उस से कोई फर्क नहीं पड़ेगा , केरल , तमिलनाडू और पुदुचेरी में भाजपा को अगर दस-दस सीटें भी नहीं मिलती तो उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा | लेकिन असम में पार्टी हार गई तो मोदी के नेतृत्व को बहुत फर्क पड़ेगा , असम की हार का ठीकरा इसलिए मोदी के सिर भी फूटेगा क्योंकि वहां डबल इंजन की सरकार है , सरकार हारती है , तो दोनों ईंजन जिम्मेदार माने जाएंगे | इसी तरह उत्तराखंड में भी डबल ईंजन की सरकार है और 11 महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनाव मोदी के लिए प्रतिष्ठा का सवाल होंगे | जो लोग यह समझते हैं कि मोदी तानाशाह की तरह काम करते हैं , किसी की नहीं सुनते , फीडबैक के आधार पर काम नहीं करते , उन्हें उत्तराखंड में किए गए परिवर्तन ने गलत साबित कर दिया है |
मोदी–अमित शाह ने भले ही 2017 में बिना फीडबैक के त्रिवेंद्र सिंह रावत को मौक़ा दिया था , और यह मौक़ा पूरे चार साल दिया , लेकिन अंतत चली कार्यकर्ताओं की | त्रिवेंद्र सिंह रावत ने इस्तीफा देने के बाद दो बातें साफ़ साफ़ कहीं , पहली यह की भाजपा में निर्णय सहमति के आधार पर होते हैं , और दूसरी यह कि उन्हें क्यों हटाया गया , इस सवाल का जवाब दिल्ली से मिलेगा | यानी दिल्ली के पार्टी हाईकमान ने फीडबैक और आपसी सहमति के आधार पर नेतृत्व परिवर्तन का फैसला किया है | त्रिवेंद्र सिंह रावत को भाजपा आलाकमान ने किसी गुटबाजी के आधार पर नहीं हटाया , जैसे कि 2014 में सोनिया गांधी ने विजय बहुगुणा को हटाया था | न ही वैसी गुटबाजी त्रिवेंद्र सिंह रावत के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देते समय दिखाई दी | सारा काम बड़ी ख़ूबसूरती से मात्र 72 घंटे में हो गया |
वैसे त्रिवेंद्र सिंह अपना कार्यकाल पूरा नहीं करेंगे , यह उन के शपथ ग्रहण के तुरंत बाद तय हो गया था , जब उन्होंने मंत्रियों विधायकों और प्रदेश संगठन की अनसुनी शुरू कर दी थी | कोई भी मुख्यमंत्री या तो खुद इतना ताकतवर और विजनरी हो कि संगठन उन के हर निर्णय को स्वीकार करे , और अगर ऐसा नहीं हो तो लोकतंत्र में मुख्यमंत्रियों को अपने सभी सहयोगी घटकों को साथ लेकर और संतुलन बना का चलना चाहिए | यह संतुलन बना कर वसुंधरा राजे भी चलती थी और रमन सिंह भी चलते थे | शिवराज सिंह चौहान तो अभी तक यह संतुलन बना कर चलते हैं , उन्होंने ब्यूरोक्रेसी की मनमानी कभी नहीं चलने दी | जबकि दिग्विजय सिंह इस के उलट थे , इसलिए जब वह डूबे तो कभी उबर नहीं पाए | भाजपा हो या कांग्रेस , मुख्यमंत्री वही सफल रहता है , जो उन्हें बनाने वालों का फीडबैक लेता रहता है |
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