अमरनाथ यात्रा के मार्ग में पड़ने वाले बालताल गांव के पास जंगलात विभाग की जमीन यात्रा के दौरान दो महीनों के लिए श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई थी। अलगाववादी हुर्रियत कांफ्रेंस की ओर से इसका कड़ा विरोध किए जाने के कारण गुलाम नबी सरकार ने अपने इस फैसले को वापस लिया। जम्मू कश्मीर के लोग इसे तत्कालीन कांग्रेस सरकार की आतंकवादियों के तुष्टिकरण का कदम मानते हैं। यही वजह है कि दो महीने बीत जाने के बावजूद जम्मू के लोगों का आंदोलन मध्यम नहीं पड़ा है।
जम्मू के लोग अपने आंदोलन को धार्मिक भावनाओं के साथ जोड़कर नहीं देखते, अलबत्ता राष्ट्रीय भावनाओं से जोड़कर देखते हैं। कश्मीरी मुसलमानों के दबाव में केंद्र और राज्य सरकार पिछले साठ साल से जम्मू के साथ भेदभाव करती रही है। दलील यह दी जाती रही कि कश्मीर को भारत के साथ रखना है। श्री अमरनाथ संघर्ष समिति का कहना है कि कश्मीर को अपने साथ रखने के लिए मुस्लिम तुष्टिकरण तक तो ठीक था, आतंकवादियों के तुष्टिकरण को कतई बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। यह भावना सिर्फ संघर्ष समिति के नेताओं की नहीं, अलबत्ता पूरे जम्मू के हिंदुओं की भावना है। यही वजह है कि पिछले दो महीनों में जम्मू का आंदोलन सांप्रदायिक आधार पर नहीं, अलबत्ता राष्ट्रीय भावना के आधार पर खड़ा हो गया है। इन दो महीनों में जम्मू क्षेत्र में जितने राष्ट्रीय ध्वज बिके हैं, उतने पिछले साठ साल में नहीं बिके। जम्मू के लोग राष्ट्रीय ध्वज लेकर सड़कों पर उतरते हैं तो अर्ध्द सैनिक बल और सेना के लिए गंभीर संकट खड़ा हो जाता है। एक तरफ कश्मीर घाटी में पाकिस्तान और इस्लामिक झंडा लेकर आंदोलनकारी सड़कों पर उतर रहे हैं, तो दूसरी तरफ जम्मू में राष्ष्ट्रीय ध्वज आंदोलन का केंद्र बिंदु बन गया है।
हुर्रियत कांफ्रेंस ने श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई जमीन का विरोध की सांप्रदायिकता के आधार पर किया था, गुलाम नबी सरकार को समर्थन दे रही पीडीपी ने मुस्लिम वोट बैंक के लिए हुर्रियत कांफ्रेंस की मांग का समर्थन किया। घाटी के सारे मुस्लिम वोट पीडीपी को जाते देख नेशनल कांफ्रेंस ने भी श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने का विरोध कर दिया। लेकिन अब जब घाटी में चल रहा आंदोलन पूरी तरह भारत विरोधी हो गया है, तो नेशनल कांफ्रेंस खुद को दुविधा में महसूस कर रही है। लोकसभा में विश्वास मत के समय सांप्रदायिक भाषण देने पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी समेत यूपीए के सभी सांसदों ने मेजें थपथपाई थीं। जबकि अब उमर अब्दुल्ला और फारुख अब्दुल्ला भी श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दो महीने के लिए जमीन देने का विरोध नहीं कर रहे। नेशनल कांफ्रेंस को अब जाकर समझ आया है कि गुलाम नबी सरकार से दबाव में फैसला करवाने के कितने गंभीर नतीजे निकल रहे हैं। असल में गुलाम नबी आजाद को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और गृह मंत्री शिवराज पाटिल का समर्थन मिल जाता, तो वह शायद ही जमीन का आवंटन रद्द करने को तैयार होते। गुलाम नबी आजाद चारों तरफ से दबाव में घिर गए थे।
अलगाववादियों के दबाव में आकर श्राइन बोर्ड की जमीन रद्द करके अब पर्यटन विभाग को यात्रियों की सुविधाओं का जिम्मा देना संविधान के अनुच्छेद 26 और 27 का उल्लंघन भी है। संविधान के अनुच्छेद 26 के मुताबिक धार्मिक संगठनों को धार्मिक स्थलों का प्रबंधन करने का हक है। इसी हक के तहत गुरुद्वारा प्रबंधन कमेटी गुरुद्वारों का और वक्फ बोर्ड मुस्लिम धार्मिक संस्थाओं का प्रबंध देखते हैं। संविधान के अनुच्छेद 27 के मुताबिक सेक्युलर सरकार करदाताओं का धन धार्मिक मामलों पर खर्च नहीं करेगी। इसीलिए धार्मिक स्थलों के रख-रखाव और सुविधाएं मुहैया करवाने के काम के लिए श्राइन बोर्ड जैसी कानूनन संस्थाएं गठित की जाती हैं। श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड तो खुद जम्मू कश्मीर विधानसभा ने गठित किया था, इसलिए अब यात्रियों को सुविधाएं मुहैया करवाने का काम पर्यटन मंत्रालय को दिया जाना संविधान के अनुच्छेद 26 और 27 का खुला उल्लंघन भी है। गुलाम नबी सरकार ने जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट के पंद्रह अप्रेल 2005 के फैसले और जम्मू कश्मीर विधानसभा की ओर से पास किए गए श्राइन एक्ट 2000 के मुताबिक श्राइन बोर्ड को यात्रियों को सुविधाएं मुहैया करवाने के लिए 39.88 हेक्टेयर जमीन अलॉट की थी। श्राइन बोर्ड लंबे समय से यात्रियों को सुविधाएं मुहैया करवाने के लिए जमीन मांग रहा था, राज्य सरकार जमीन नहीं दे रही थी, इसलिए हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई, इस याचिका पर फैसला पंद्रह अप्रेल 2005 को आया। हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि बोर्ड को फौरन जमीन उपलब्ध करवाई जाए। राजीव गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन करते हुए तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के गुजारा भत्ते का हक खत्म किया था, तो मौजूदा केंद्र सरकार ने जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट के फैसले का उल्लंघन करके आवंटित की गई जमीन रद्द की है।
सवाल खड़ा होता है कि सरकारें सांप्रदायिक आधार पर फैसले क्यों लेती हैं, सांप्रदायिक दबाव में फैसले क्यों लेती हैं, वोट बैंक के लिए फैसले क्यों लेती हैं और वोट बैंक के लिए फैसले क्यों बदलती हैं। श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने और जमीन रद्द करने के दोनों फैसलों का आधार ऊपर लिखे चारों कारण हैं। हुर्रियत कांफ्रेंस के विरोध के कारण कांग्रेस आलाकमान को लगा कि इससे उसकी चार साल की मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति का बंटाधार हो जाएगा। इसलिए सोनिया गांधी और गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने गुलाम नबी आजाद और राज्यपाल एनएन वोहरा पर श्राइन बोर्ड को दी गई जमीन रद्द करने का दबाव बनाया। राज्यपाल एनएन वोहरा कश्मीर मामलों के विशेषज्ञ रहे हैं, अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे, तो उन्होंने वोहरा को कश्मीर से जुड़े मामले देखने को कहा था। वोहरा की विशेषज्ञता को देखते हुए मनमोहन सरकार ने भी उन्हें यह काम सौंपे रखा। राजग शासनकाल के समय नियुक्त राज्यपाल सिन्हा का कार्यकाल खत्म हुआ, तो शिवराज पाटिल ने वोहरा को राज्यपाल बनाकर भिजवा दिया। नए-नए राज्यपाल बने वोहरा ने केंद्र सरकार के दबाव में आकर श्राइन बोर्ड के अध्यक्ष के नाते जमीन स्वीकार नहीं करने का फैसला किया। राज्यपाल का यह फैसला सुनाए जाने से पहले ही खबरें छप गई थीं कि राज्यपाल खुद जमीन लेने से इंकार कर देंगे, बाद में यही हुआ भी। इससे स्पष्ट है कि मुख्यमंत्री और राज्यपाल पर केंद्र सरकार और कांग्रेस आलाकमान का कितना दबाव था।
शाहबानो केस के समय राजीव गांधी ने महिला विरोधी कट्टरपंथियों के दबाव में आकर मुस्लिम तुष्टिकरण शुरू किया था, लेकिन अब जंगलात विभाग की जमीन के मामले में आतंकवादियों और अलगाववादियों के तुष्टिकरण की भारत विरोधी राजनीति शुरू हो गई है। जम्मू कश्मीर की मौजूदा समस्या हिंदू बनाम मुसलमान नहीं है, इसे हिंदू बनाम मुसलमान बनाया जा रहा है, यह समस्या जम्मू बनाम कश्मीर भी नहीं है। अलबत्ता आतंकवादियों और अलगाववादियों के दबाव में आकर सरकार की ओर से लिए गए फैसले के कारण राष्ट्रवादियों बनाम राष्ट्र विरोधियों की समस्या बन गई है। इसे सिर्फ जम्मू के लोग इस नजर से नहीं देख रहे हैं अलबत्ता पूरे देश में इसी नजर से देखा जा रहा है। यूपीए सरकार का जमीन रद्द करवाने का कदम कोई पहला कदम नहीं है, जिससे देश की जनता में आतंकवादियों के तुष्टिकरण वाली सरकार की धारणा बनी हो। इससे पहले पोटा कानून को मुस्लिम विरोधी बताकर रद्द करना आतंकवादियों का तुष्टिकरण था। उसके बाद गृह मंत्री शिवराज पाटिल की ओर से संसद पर हमले की साजिश रचने वाले अफजल गुरु को फांसी पर चढ़ाने के बजाए उसकी पैरवी करना आतंकवादियों का तुष्टिकरण था। अब इस तीसरे कदम ने यूपीए सरकार की आतंकवादियों के तुष्टिकरण की राजनीति पर मुहर लगा दी है।
आपकी प्रतिक्रिया