अजय सेतिया / अपनी पक्की धारणा है कि आज़ादी के बाद अंग्रेजों की बनाई ब्यूरोक्रेसी को जस का तस बनाए रखना लोकतंत्र को सही अर्थों में लागू करने में सब से बड़ी बाधा है | 1980 बैच के आईएएस और नरेंद्र मोदी के सब से प्रिय निति आयोग के सीईओ अमिताभ कान्त का ताज़ा बयान अपनी धारणा की पुष्टि करता है | स्वराज पत्रिका के एक वीडियो कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए अमिताभ कान्त ने कहा कि लोकतंत्र भारत की सब से बड़ी समस्या है | अंग्रेजों ने ब्यूरोक्रेसी को भारत पर शाषण करने में सहयोग करने के लिए बनाया था , तब भारत गुलाम था और ये अंग्रेजों की औलाद अपन गुलामों पर राज करने के लिए बनाई गई थी | चयन के बाद आईएएस अफसरों को शायद अभी भी यही ट्रेनिंग दी जाती है कि वे स्थाई शाषक हैं जबकि लोकतंत्र में चुने हुए जन प्रतिनिधि आते जाते रहेंगे |
देश का दुर्भाग्य यह है कि शाषण में बाधा बनने के बावजूद ये लोकतंत्र विरोधी ब्यूरोक्रेट्स राजनीतिक नेताओं को अपना आका बनाने में कामयाब हो जाते हैं , जिस कारण रिटायरमेंट के बाद भी सालों साल निति निर्धारक बने रहते हैं , हालांकि निर्णायक पदों पर बैठ कर कारपोरेट घरानों के हित में क़ानून बनवाने का काम करते हैं | लोकप्रिय जन प्रतिनिधि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तीन कृषि बिल बनवा कर इसी अमिताभ कान्त ने फंसाया है , जो अब किसानों के आन्दोलन के सिलसिले में लोकतंत्र पर छींटाकसी करने वाली टिप्पणी करने से भी बाज़ नही आ रहे | उन का कहने का मतलब है कि किसानों का मौजूदा आन्दोलन भारत के ज्यादा ही लोकतांत्रिक देश होने के कारण है | लोकतंत्र के खिलाफ इस से बड़ी टिप्पणी नहीं हो सकती |
तेज तर्रार क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को यह कह कर जान छुडानी पड रही है कि हमें अपने लोकतंत्र पर गर्व है | पर सवाल यह कि अगर लोकतंत्र पर गर्व है तो ब्यूरोक्रेसी का अलोकतांत्रिक बोझ क्यों ढो रहे हो | अलोकतांत्रिक ब्यूरोक्रेट अमिताभ कान्त ने लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई मोदी सरकार को ऐसा फंसाया है कि अब अमित शाह , राजनाथ सिंह और बेचारे नरेंद्र तोमर वामपंथी प्रभाव वाले किसान संगठनों के चक्रव्यूह में अभिमन्यू बन कर फंसे हुए हैं | मंगलवार रात को जब अमित शाह ने हड़ताली किसानों को बातचीत के लिए बुलाया था , तो ऐसा लगा था कि वह चक्रव्यूह तोड़ने में सफल हो जाएंगे | लेकिन किसानों के 32 संगठनों के भीतर बैठे वामपंथियों ने अमित शाह की इस कोशिश को नाकाम बना दिया |
अमित शाह ने अमिताभ कान्त के बनाए कृषि कानूनों के उन 9 प्रावधानों को बदलने का फार्मूला भेजा था , जो मोटे तौर पर कारपोरेट घरानों के पक्ष में हैं | बदलाव का फार्मूला यह था कि राज्य सरकारें प्राइवेट मंडियों पर भी शुल्क/फीस लगा सकती है ताकि कारपोरेट घराने और उद्ध्योगपति खरीददारी कर के पतली गली से न निकल सकें | राज्य सरकार चाहे तो मंडी से बाहर खरीदारी करने वाले व्यापारियों का रजिस्ट्रेशन कर सकती है | कारपोरेट घरानों के पक्ष में फैसला देने वाले सरकारी बाबुओं यानि ब्यूरोक्रेट्स से झगड़े का फैसला करवाने की बजाए किसानों को कोर्ट कचहरी का विकल्प भी दिया जाएगा | किसान और कंपनी के बीच कॉन्ट्रैक्ट की 30 दिन के अंदर रजिस्ट्री होगी ताकि कारपोरेट घराना किसान पर मनमर्जी न लाद सके | सरकार कॉन्ट्रैक्ट कानून में स्पष्ट कर देगी कि कांट्रेक्ट करने वाला कारपोरेट घराना किसान की जमीन या बिल्डिंग पर न तो कर्ज ले सकेगा , न गिरवी रह सकेगा | किसान की ज़मीन की कुर्की नहीं हो सकेगी |
सरकार ने एमएसपी की मौजूदा खरीदी व्यवस्था के संबंध में लिखित आश्वासन का वायदा भी किया था | एनसीआर में पराली जलाने से प्रदूषण वाले कानून पर किसानों की आपत्तियों का समाधान करने का वादा भी जोड़ा था | बिजली बिल को किसानों के पक्ष में संशोधित किए बिना में संसद में नहीं रखने का वादा भी किया था | हालांकि अमिताभ कान्त ने तो बिल पास हुए बिना ही केंद्र शासित प्रदेशों से वितरण कंपनियों के निजीकरण के आदेश भिजवा दिए हैं |
पर किसानों ने चक्रव्यूह में फंसे अभिमन्यू के सारे प्रस्ताव ठुकरा दिए , अलबत्ता आन्दोलन को राष्ट्रव्यापी बनाने का फैसला कर लिया | हालांकि तीन किसान संगठन इस राय के थे कि सरकार काफी झुकी है , अक्टूबर में जब वार्ता शुरू हुई थी तो सरकार का दिमाग सातवें आसमान पर था , कोई मंत्री भी वार्ता में नहीं आया था , ब्यूरोक्रेट्स को वार्ता के लिए भेज दिया था , किसानों ने उन से वार्ता करने से इनकार कर दिया था | इन तीन संगठनों का कहना था कि कृषि मंत्री , वाणिज्य मंत्री के बाद अब गृह मंत्री तक बात करने के लिए टेबल पर आ गए हैं , इस लिए इन सुझावों के बाद बातचीत जारी रखते हुए आन्दोलन स्थगित कर देना चाहिए , लेकिन वामपंथी किसान संगठनों ने ऐसा सुझाव रखने वालों की बोलती बंद कर दी , क्योंकि उन्होंने तो बुराड़ी को शाहीन बाग़ बनाने की ठान रखी है |
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