यों अपन आज बात करेंगे जश्न-ए-आजादी की। फिर भी शुरूआत मनमोहन सिंह को एक और बधाई से कर दें। अबके महंगाई के नए रिकार्ड पर बधाई। तीन महीने पहले मुद्रास्फीति सात फीसदी हुई। तब अखबारों में बैनर छपे थे- 'महंगाई सातवें आसमान पर।' अब 12.44 फीसदी होकर महंगाई तेरहवें आसमान पर। पर लीड भी नहीं छपती। अपन महंगाई के इतने अभ्यस्त हो गए। मनमोहन-चिदंबरम को इसीलिए महंगाई की फिक्र नहीं। सो सोलह साल का रिकार्ड तोड़ने पर दोनों को बधाई। सोलह साल पहले मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने थे। तो यह रिकार्ड बनाया था। जिसकी बराबरी आज फिर से कर ली है। अपन बाजार से जो सब्जी बीस रुपए की लाते थे। अब पचास रुपए में भी नहीं आती। नेता लोग सब्जी लेने बाजार नहीं जाते। अपन ने मोती लाल वोरा का जिक्र किया था। जिनने अपन को एक दिन सेंट्रल हाल में बताया- 'मेरी पत्नी बता रही थी, महंगाई अब काबू हो रही है।' सो इस बार आजादी का जश्न महंगाई का। गुरुवार को पाकिस्तान जब जश्न-ए-आजादी मना रहा था। तो अपनी केबिनेट सरकारी कर्मचारियों की तन्ख्वाहें बढ़ा रही थी। यानी आने वाले महीने महंगाई और बढ़ेगी। अपन को सरकारी अमले की तन्ख्वाहें बढ़ने पर एतराज नहीं। ईमानदार सरकारी कर्मचारियों की हालत तो बेहद खस्ता थी। बात पाकिस्तान के जश्न-ए-आजादी की चली। तो चलो मुकाबला हो जाए। भारत-पाक की जम्हूरियत का कोई मुकाबला नहीं। अपनी जम्हूरियत ज्यादा मैच्योर। यों दो बार अपने सांसदों ने बिक कर सरकार बचाई। यह बात अलग। एक बार जम्हूरियत का इमरजेंसी में एक्सीडेंट भी हुआ। पर पाकिस्तान में तो जम्हूरियत से कई एक्सीडेंट हो लिए। पहले अयूब खां ने शासन पर कब्जा किया। फिर याहियां खां ने। तीसरी बार जिया उल हक ने। अब चौथा फौजी शासक परवेज मुशर्रफ। सो पाकिस्तान में जम्हूरियत के साथ चार एक्सीडेंट हुए। चारों बार जम्हूरियत फिर पांवों पर खड़ी हुई। अबके फरवरी के चुनावों में जम्हूरियत खड़ी हुई। तो अपन ने बीस फरवरी को लिखा था- 'पाक में जम्हूरियत का आगाज काबिल-ए-तारीफ।' इक्कीस फरवरी को अपन ने साफ-साफ लिखा था- 'यों अपन जनादेश को समझें। तो एक बात और साफ। मुशर्रफ का दुबारा राष्ट्रपति चुना जाना नाजायज। जिस नेशनल एसेंबली ने मुशर्रफ को चुना। जिन प्रोविंसिएल एसेंबलियों ने मुशर्रफ को चुना। उन्हें पाकिस्तानी आवाम ने हरा दिया।' बेहतर होता मुशर्रफ जनादेश कबूल कर लेते। राष्ट्रपति पद से खुद इस्तीफा दे देते। सुप्रीम कोर्ट ने जब राष्ट्रपति चुनाव का नतीजा रोका था। तब मुशर्रफ ने कोर्ट में वादा किया था- 'नई चुनी हुई नेशनल एसेंबली से अपने चुनाव की मुहर लगवाऊंगा।' मुशर्रफ ने यह वादा भी नहीं निभाया। अब चारों एसेंबलियों में प्रस्ताव पास करके कहा- 'अपना वादा निभाओ या इस्तीफा दो।' पर मुशर्रफ अभी भी बाजिद्द। अब फिर अमेरिका और ब्रिटेन मुशर्रफ के बचाव में। अपन ने इक्कीस फरवरी को लिखा था- 'यों तो अमेरिका जम्हूरियत का ढोल पीटता है। पर पाकिस्तान, इराक, अफगानिस्तान में जम्हूरियत का कातिल। अमेरिका जम्हूरियत पसंद होता। तो मुशर्रफ के बचाव में न उतरता।' चुनाव नतीजों के बाद भी अमेरिका ने शरीफ-जरदारी में फूट की कोशिश की। अब जब पाक सरकार मुशर्रफ से इस्तीफा मांग रही है। महाभियोग की तैयारी कर रही है। तो अमेरिका और ब्रिटेन एक बार फिर मुशर्रफ के बचाव में। ब्रिटेन के राजनीतिक मामलों के निदेशक लॉयल ग्रांट ने जरदारी को समझाया-बुझाया। अमेरिका के डिप्टी एम्बेस्टर पीटर बोडे भी जरदारी से मिले। अपने हिसाब से मुशर्रफ के दिन थोड़े। वह याहियां खां की तरह पाक में रहने को बाजिद। पर भूल गए- याहियां खां का बुढ़ापा गुमनामी में बीता। सऊदी अरब में जाकर मरे। मुशर्रफ का हश्र भी याहियां खां जैसा होगा। पर भले ही पाकिस्तान की जम्हूरियत बार-बार पटरी से उतरती रही। फिर भी कई मामलों में अपन से बेहतर। वहां की नेशनल एसेंबली में महिलाओं की सौ सीटें रिजर्व। अपराधियों के बरी होने तक चुनाव लड़ने पर रोक। मुशर्रफ को मनमोहन की तरह सांसदों के एबस्टेन रहने पर भरोसा था। जो मनमोहन की तरह पूरा होता नहीं दिखता।
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