अजय सेतिया / क्या आप हैरान नहीं हुए कि सोशल मीडिया पर स्वीडन में मुस्लिम हिंसा की खबरों की भरमार के बावजूद भारत के मेनलाईन मीडिया में ये खबरें क्यों दिखाई नहीं दी | यह समझना मुश्किल नहीं है , लेकिन हमें समझना चाहिए | अगर हम समझ जाएंगे , तो आने वाले समय में भारत को स्वीडन बनने से बचा सकते हैं , नहीं तो 50 साल बाद भारत का हर शहर बेंगलुरु की तरह जलेगा | इस की वजह है कम्यूनिस्टों की ओर से मुस्लिम कट्टरपंथ को अपना हथियार बनाया जाना , भले ही मोदी सरकार आने के बाद भारतीय मीडिया के राष्ट्रवादी पत्रकार खुल कर पत्रकारिता करने लगे हैं , लेकिन ज्यादातर मीडिया घरानों के महत्वपूर्ण पदों पर अभी भी कम्यूनिस्ट पत्रकारों का कब्जा है , जो मुस्लिम आतंकवाद को छुपाने की कोशिशे करता रहता हैं , वह आतंकवाद श्रीनगर में हो , दिल्ली में हो , बेंगुलुरु में हो या स्वीडन में |
इसी साल फरवरी में दिल्ली और आसपास के इलाकों में हुए मुस्लिम हिंसक दंगों के असली अपराधियों को छुपाने में भी मीडिया ने कोई कसर नहीं छोडी थी | खुद को सहिष्णु और विरोधियों को असहिष्णु बताने वाले वामपंथियों ने दिल्ली के दंगों का सच बताने वाली किताब का प्रकाशन रुकवाने की भी कोई कोर कसर नहीं छोडी | दिल्ली की मशहूर वकील मोनिका अरोड़ा ने दिल्ली यूनिवर्सिटी की दो प्राध्यापिकाओं के साथ साक्ष्यों और तथ्यों के आधार पर दिल्ली के दंगों के पीछे का सच बताने के लिए कितान लिखी है , जिसे ब्रिटेन का एक पब्लिशिंग हॉउस छाप रहा था | किताब छप चुकी थी , लेखकों को सौ प्रतियाँ उपलब्ध करवाई जा चुकी थी | इस के बावजूद ब्रिटेन के वामपंथी बुद्धिजीवियो का इस्तेमाल कर के किताब को मार्किट में आने से रोका गया ताकि कम्युनिस्टों का बदरंग चेहरा उजागर न हो जाए | दिल्ली में मुसलमानों को दंगों के लिए भडकाने वाली जेएनयू के वामपंथी संगठन पिंजडा तोड़ की एक्टिविस्ट देवांगना कलिता को तो पिछले शनिवार को कोर्ट ने यह कहते हुए जमानत नहीं दी कि दंगें की रणनीति बनाने और भडकाने के सबूत मौजूद हैं |
दिल्ली के बाद जो कुछ बेंगुलुरु में हुआ , उसे भी तो छुपाने की कोशिश की गई | वामपंथियों के स्कूल में मुस्लिम कट्टरपंथियों को ट्रेनिंग दी जा जाती है कि वे अपना असहिष्णु , संविधान विरोधी कट्टरपंथ , दुसरे धर्मों के प्रति नफरत और हिंसक रूप छुपाने के लिए संविधान , बाबा साहिब अम्बेडकर , महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरु के चेहरों का इस्तेमाल किया करें | दिल्ली में शाहीन बाग़ के धरने के समय वही हुआ था , और बाद में बेंगलुरु में मंदिर के सामने मुस्लिम युवा लड़के लडकियों की मानवीय शृंखला बना कर हिन्दुओं के पवित्र स्थल की रक्षा करने वाला साबित करने की कोशिश की गई थी , तो मंदिर पर हमला क्या हिन्दू कर रहे थे , जिन से बचाया जाना था | देश में हजारों लाखों मंदिरों को तोड़े जाने का इतिहास भी तो वामपंथी इतिहासकारों ने भारत की मौजूदा पीढी से छुपाने का कुकृत्य किया है | यहाँ तक कि कम्युनिस्ट फेसबुकियों ने बेंगुलुरु की तरह स्वीडन की भी एक फर्जी फोटो वायरल की , जिस में मुस्लिम युवा चर्च को दंगाईयों से बचा रहे हैं |
अपन ने दिल्ली और बेंगुलुरु की घटनाओं का इस लिए जिक्र किया , क्योंकि इस से आप को स्वीडन की घटना भी आसानी से समझ आ जाएगी | स्वीडन की घटना भी इसलिए पूरी तरह आप के सामने नहीं आ सकी , क्योंकि मीडिया में बैठे कम्युनिस्ट ऐसा नहीं चाहते थे | आप को पता चल जाता कि दिल्ली , बेंगलुरु और स्वीडन की घटनाओं में कितनी समानताएं हैं | इन घटनाओं का सच छुपाने के पीछे कौन लोग होते हैं | भारत की तरह स्वीडन में भी पिछले बीस साल से वामपंथी विचारधारा और स्थानीय डेमोक्रेट्स में मुस्लिम शरणार्थियों को ले कर संघर्ष चल रहा है | जर्मनी और स्वीडन ने ईराक , अफगान , सीरिया के मुस्लिम शरणार्थियों को पनाह दे कर मुसीबत मोल ली है | 2003 , 2005 और 2013 में भी स्वीडन में इसी तरह की हिंसक वारदातें हुई थीं | देश में कड़े विरोध के बावजूद प्रधानमंत्री ने 2018 के राष्ट्रीय चुनावों से पहले अज़ान की इजाजत देने का फैसला स्थानीय प्रसाशन पर छोड़ दिया था | नतीजतन 25 मई 2018 को स्वीडन में पहली बार अज़ान की आवाज सुनाई दी , जिस के खिलाफ संघर्ष चल रहा है | स्वीडिश लोग यह मानते हैं कि ईसाई जीवन पद्धति स्वीडन की राष्ट्रीयता और जीवन पद्धति है , शरणार्थियों को यहाँ की परम्पराएं और राष्ट्रीयता अपनानी चाहिए |
स्वीडन में तब से संघर्ष चल रहा है | स्वीडन के मालमो शहर में सटराम कुर्स नाम के दक्षिणपंथी संगठन ने इसी संघर्ष की शृंखला में शरणार्थी विरोधी एक कार्यक्रम रखा था , जिस में हिस्सा लेने के लिए डेनमार्क से रसमस पलुदान नाम के एक नेता आ रहे थे , उन्हें स्वीडन की सीमा पर रोक दिया गया , जिस पर उन के समर्थक भडक गए | उन में से कुछ ने कुरआन की प्रति जला दी , जो कि स्वीडन का पवित्र ग्रन्थ नहीं है , न ही इस्लाम वहां का धर्मं है | इस घटना ने स्वीडन के शरणार्थी मुसलमानों को अपने कट्टरपंथी होने का असली चेहरा दुनिया को दिखाने का मौक़ा दे दिया | वही चेहरा जिसे अबू सुफ़ियान से लेकर यज़ीद तक और बग़दादी से लेकर हाफ़िज़ सईद तक सब ने तमाम मौकों पर ज़ाहिर किया और बताया कि दुनिया को इस्लाम के रास्ते पर ही चलना होगा , जो नहीं चलेगा उसे नेस्तनाबूद कर देंगे |
श्रीनगर , दिल्ली और बेंगुलुरु की तरह स्वीडन में भी 'अल्लाह हू अकबर' के नारे के साथ दंगाइयों की भीड़ सड़क पर उतरी और नियम कानूनों को दरकिनार करते हुए हर चीज जलाकर राख कर दी | अब स्वीडन में भी वामपंथी विचारधारा वाली पार्टियों पर सवाल उठाए जा रहे हैं, जो इस्लामिक देशों से आने वाले शरणार्थियों को शरण देने की हिमायती रहीं हैं | मुस्लिम कट्टरपंथियों ने अपनी करतूतों से स्वीडन के दक्षिणपंथियों की शंकाओं को सही साबित कर दिया है और कुछ गिने चुने उदार मुसलमानों को शर्मसार कर दिया है |
आपकी प्रतिक्रिया