गुलामनबी आजाद भले ही खुले तौर पर न मानें, लेकिन वास्तविकता यही है कि जम्मू कश्मीर के चुनाव नजदीक होने के कारण पीडीपी को मिलने वाले मुस्लिम वोटों के फायदे को रोकने के लिए ही उन्होंने श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई जमीन वापस ली थी। इससे साबित होता है कि जम्मू कश्मीर की मौजूदा सांप्रदायिक आग जम्मू के हिंदुओं की वजह से नहीं है, अलबत्ता घाटी के मुस्लिम वोट हासिल करने के लिए पीडीपी की ओर से अपनाई गई सांप्रदायिकता है। यही वजह है कि कांग्रेस बचाव की मुद्रा में है, क्योंकि जम्मू कश्मीर की सियासत उसके लिए दो धारी तलवार बन गई है।
बुधवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ओर से बुलाई गई सर्वदलीय बैठक से पहले यूपीए की बैठक में सारे घटनाक्रम की जानकारी देते हुए गुलामनबी आजाद यह सफाई नहीं दे पाए कि उनका पहले वाला कदम सही था या बाद वाला। अगर हम पहले कदम की तह में जाएं, तो पाएंगे कि श्राइन बोर्ड को जमीन देने के फैसले की बाबत जम्मू कश्मीर के जंगलात विभाग के प्रमुख सचिव माधव लाल ने केबिनेट के लिए जो नोट तैयार किया था, उसमें सुप्रीम कोर्ट की राय लेने को कहा गया था, दलील दी गई थी कि सत्ताईस अप्रेल 2007 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अंतरिम फैसले में हिदायत दी थी कि जंगलात विभाग की जमीन किसी अन्य काम के लिए हस्तांतरित किए जाने से पहले अदालत की इजाजत ली जाए। लेकिन गुलामनबी आजाद ने जंगलात विभाग के सचिव की सलाह को दरकिनार करते हुए श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को यात्रियों को सुविधाएं मुहैया करवाने के लिए जंगलात विभाग की सौ एकड़ जमीन को केबिनेट की मंजूरी दिला दी। हालांकि यह बात अलग है कि श्राइन बोर्ड की याचिका पर विभाग ने यह जमीन स्थाई काम्प्लैक्स बनाने के लिए देने की सिफारिश की थी, लेकिन केबिनेट ने सिर्फ यात्रा के दौरान इस्तेमाल करने के लिए देने का फैसला किया। गुलामनबी आजाद और कांग्रेस के नेता अब यह कहते हैं कि उन पर जमीन देने के लिए तत्कालीन राज्यपाल एस के सिन्हा का दबाव था और पीडीपी की सांप्रदायिक राजनीति के कारण जमीन रद्द करने का फैसला करना पड़ा। लेकिन वास्तविकता कुछ और है, गुलामनबी आजाद शुरू से ही जम्मू की राजनीति कर रहे थे, क्योंकि घाटी में कांग्रेस की कोई गुंजाइश नहीं बची। घाटी से कश्मीरी पंडित तो जा ही चुके हैं, मुसलमान या तो नेशनल कांफ्रेंस के साथ हैं, या कट्टरवादी पीडीपी के साथ। विधानसभा के पिछले चुनाव में भी कांग्रेस को जम्मू की 37 में से 17 सीटें मिली थी, गुलामनबी आजाद की राजनीति जम्मू में कांग्रेस का आधार बढ़ाने की थी। इसलिए जब तत्कालीन राज्यपाल एसके सिन्हा ने श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड के अध्यक्ष के नाते जंगलात विभाग की सौ एकड़ जमीन यात्रियों को सुविधाएं मुहैया करवाने के लिए देने की सिफारिश की, तो गुलामनबी आजाद ने इसे जम्मू में कांग्रेस का आधार बढ़ाने का हथियार समझते हुए मंजूरी दी थी।
कांग्रेस जम्मू में अपना आधार मजबूत करने के लिए मंदिर का इस्तेमाल कर रही थी, तो वह कतई सांप्रदायिक नहीं था। लेकिन जब उसी मंदिर को जमीन दिलाने के लिए भाजपा आंदोलन कर रही है, तो यह सांप्रदायिक है। गुलामनबी आजाद हिंदू सांप्रदायिकता कर रहे थे, लेकिन जब घाटी में इसके जवाब में मुस्लिम सांप्रदायिकता हो गई, तो उन्हें मजबूरी में अपना कदम पीछे हटाना पड़ा। मुख्यमंत्री की कुर्सी फिर भी नहीं बची, क्योंकि पीडीपी को कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने से कोई फायदा नहीं होने वाला। अगर पीडीपी को कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने से फायदा होता, तो गुलामनबी सरकार गिरने से बच सकती थी, क्योंकि गुलामनबी ने पीडीपी के दबाव में श्राइन बोर्ड को दी गई जमीन तो वापस ले ही ली थी। जम्मू की राजनीति में औंधे मुंह गिरने और मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवाने के बाद अब दिल्ली आकर गुलामनबी आजाद भाजपा पर मुद्दे को सांप्रदायिक रंग देने का आरोप लगा रहे हैं। लेकिन मौजूदा हालात के लिए अगर कोई जिम्मेदार है तो वह सिर्फ गुलामनबी आजाद हैं, जिन्होंने जंगलात विभाग की सलाह को दरकिनार करके अपनी सुविधाजनक राजनीति के लिए श्राइन बोर्ड को जमीन देने का फैसला किया था।
श्राइन बोर्ड को जमीन देने के बाद हुर्रियत कांफ्रेंस ने जब आंदोलन शुरू किया, तो मांग जमीन का आवंटन रद्द करने की नहीं थी, अलबत्ता गवर्नर की रहनुमाई वाले श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड से बाहरी लोगों को निकालकर बोर्ड का पुनर्गठन करने की थी। तत्कालीन राज्यपाल एसके सिन्हा ने जो बोर्ड बनाया था, उनमें से आधों का कुछ अता-पता नहीं था। कोई मेरठ का रहने वाला था तो कोई अंबाला का। आठ सदस्यों में से सिर्फ दो कश्मीरी पंडित थे। इसलिए हुर्रियत कांफ्रेंस को यह अफवाह फैलाने का मौका मिल गया कि श्राइन बोर्ड को दी गई जमीन जम्मू कश्मीर से बाहर के लोगों को चोर दरवाजे से जमीन पर कब्जा करवाने की साजिश है। जम्मू कश्मीर में क्योंकि बाहर के लोग जमीन नहीं खरीद सकते, इसलिए हुर्रियत कांफ्रेंस को भड़काने का मौका मिल गया। श्राइन बोर्ड को जमीन रद्द करने की मांग पीडीपी ने की, क्योंकि वह इस मुद्दे का राजनीतिक फायदा उठाना चाहते थे। पीडीपी को राजनीतिक हथियार भी तत्कालीन राज्यपाल के सचिव और बोर्ड के सदस्य अरुण कुमार ने मुहैया करवाया। केबिनेट के फैसले के अगले दिन अरुण कुमार ने एक प्रेस कांफ्रेंस करके कहा कि श्राइन बोर्ड को दी गई जमीन स्थाई है। उनसे पूछा गया कि यह जमीन कब तक श्राइन बोर्ड के पास रहेगी, तो उन्होंने कहा कि जब तक दुनिया है, तब तक यात्रा चलती रहेगी, जब यात्रा चलती रहेगी, तब तक श्राइन बोर्ड इस जमीन का यात्रियों को सुविधाएं मुहैया करवाने के लिए इस्तेमाल करेगा। अरुण कुमार की इस प्रेस कांफ्रेंस के अगले दिन ही घाटी में आंदोलन ने जोर पकड़ लिया और पीडीपी ने फौरन मौके का फायदा उठाया। इसलिए मौजूदा हालात के लिए गुलामनबी आजाद के बाद पीडीपी जिम्मेदार है। पीडीपी की ओर से जमीन वापस मांगने का आंदोलन खड़ा किए जाने के बाद नेशनल कांफ्रेंस ने भी यही मांग रख दी, क्योंकि उसे भी चुनाव के वक्त घाटी के सौ फीसदी मुस्लिम वोटरों को जवाब देना था। कुल मिलाकर सारी राजनीति घाटी के मुस्लिम वोटरों के इर्द-गिर्द घुमती रही। गुलामनबी आजाद को मजबूरी में जम्मू की जनता की भावनाएं दरकिनार करनी पड़ी। जम्मू की जनता जब उठ खड़ी हुई और घाटी की तरफ जाने वाले रास्ते बंद कर दिए गए, तो केंद्रीय गृहमंत्रालय गहरी नींद से जागा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 31 जुलाई को विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी को बुलाकर कहा कि कश्मीर घाटी की आर्थिक नाकेबंदी अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बन जाएगा, इसलिए भाजपा को दखल देकर इस आंदोलन को तुरंत रुकवाना चाहिए। यह बात सही भी थी, क्योंकि घाटी में जिंदगी जरूरिआत की चीजों का आभाव पैदा होने से पड़ोसी देश पाकिस्तान को राहत सामग्री भेजने के लिए संयुक्त राष्ट्र में मसला उठाने का मौका मिलता। लालकृष्ण आडवाणी ने इस नाजुक हालात को समझकर बाकायदा जम्मू में एक बयान जारी किया, जिसमें सेबों के ट्रक जम्मू कश्मीर से बाहर जाने देने और खाद्य सामग्री कश्मीर जाने देने की अपील जारी की। जहां एक तरफ आडवाणी ने जम्मू के आंदोलनकारियों को समझाने बुझाने की कोशिश की वहां भाजपा ने श्री अमरनाथ श्राइन को जमीन देने के मुद्दे को जोरदार ढंग से उठाने का फैसला भी किया। क्योंकि कांग्रेस अगर अपनी राजनीतिक मजबूरी के तहत श्राइन बोर्ड को दी गई जमीन वापस ले सकती है, तो भाजपा भी अपनी राजनीतिक मजबूरी के कारण आंदोलन से अलग-थलग नहीं रह सकती। इसलिए यह कहना कि एक राजनीतिक दल सांप्रदायिक राजनीति कर रहा है, ठीक नहीं है, जम्मू कश्मीर का मौजूदा आंदोलन सभी राजनीतिक दलों की सांप्रदायिकता पर आधारित है।
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