विपक्ष ने अपनी काली भेड़ों की पहचान कर ली। आठ काली भेड़ें बीजेपी की निकली। सोमाभाई पटेल-बृजभूषण का तो बीजेपी को पहले से पता था। कबूतरबाजी वाले बाबूभाई कटारा पहले से सस्पेंड थे। बीजेपी वोट के लिए सस्पेंशन खत्म करने को तैयार हुई। तब तक कबूतर उड़ चुका था। सो काली भेड़ बने काले कबूतर ने साफ कह दिया- 'मैं तो यूपीए को वोट दूंगा।' अपनी याददाश्त इतनी कमजोर भी नहीं।
पिछले साल जब बाबूभाई कटारा कबूतरबाजी में पकड़े गए। तो लोकसभा में कांग्रेस ने बीजेपी को शेम-शेम कहा था। अब उसी कबूतरबाज ने वोटिंग से नदारद रहकर कांग्रेस को फायदा पहुंचाया। चलो, अच्छा ही हुआ। जो सारे दागी एक पार्टी में इकट्ठे होने लगे। कम से कम बाकी पार्टियां तो बेदाग होंगी। सरकार बचाने वाली बीजेपी की बाकी काली भेड़ें कर्नाटक से आईं। एच डी सांगलियाना- डीजीपी हुआ करते थे। रिटायर हुए। तो बीजेपी का टिकट पाकर सांसद हो गए। उनने जाफर शरीफ को हराया था। कर्नाटक की दूसरी काली भेड़ निकली- मंजूनाथ कुनूर। पुराने कांग्रेसी थे। पिछली बार ही बीजेपी में आए थे। वापस कांग्रेस में चले गए। कर्नाटक की ही मनोरमा माधवराज भी कांग्रेस से आई थी। उनने वोट तो नहीं डाला। पर एबस्टेन होकर यूपीए को मदद की। बीजेपी के हरिभाऊ राठौर भी काली भेड़ निकले। महाराष्ट्र के हरिभाऊ कभी गोपीनाथ मुंडे के पीए हुआ करते थे। बीजेपी की चौथी काली भेड़ निकली- मध्यप्रदेश से चंद्रभान सिंह। इन दोनों ने भी गैर हाजिरी से मदद की। इन दोनों के घरों पर तो बुधवार को भीड़ टूट पड़ी। सांसदों की खरीद-फरोख्त तब तक नहीं रुकेगी। जब तक जनता खुद इनके खिलाफ खड़ी न हो। जैसा मुंबई और दमोह में हुआ। ऐसा सभी बिकने वाले सांसदों के साथ होना चाहिए। इनकी आत्मा की आवाज कब कैसे जागती है। अब यह किसी से छुपा हुआ नहीं। बीजेपी की आठ काली भेडें निकली। बीजेपी ने इन आठों को पार्टी से निकाल दिया। वैसे बुधवार को अपने सोमनाथ बाबू भी अपनी पार्टी से निकल गए। उनने अपना स्पीकर धर्म निभाया। पता नहीं लेफ्टियों ने उन्हें अपनी काली भेड़ क्यों मान लिया। पर तीन काली भेड़ें शरद-जार्ज की जद यू से भी निकली। नालंदा के रामस्वरूप प्रसाद और लक्षद्वीप के पीपी कोया की पहचान अपन ने पहले ही कर ली थी। तीसरी काली भेड़ निकली- कुंअर सर्वराज सिंह। कोया गैर हाजिर रहे, बाकी दोनों ने यूपीए को वोट किया। शिवसेना के तुकाराम डरकर वोट डालने नहीं आए। आते, तो सदन में ही शिवसैनिकों से पिटते। यों तो मनमोहन सिंह ने गुरुबाणी का सहारा लिया। परिवार को दरबार साहब भेजकर अकाली सांसदों पर दबाव बनाया। बात नहीं बनती दिखी, तो पप्पू यादव की सिख पत्नी को उतारा। उनने भरी संसद में मनमोहन सिंह के सिख होने की दुहाई दी। पर सिर्फ एक काली भेड़ निकली- सुखदेव सिंह लिबरा। वोट के समय गायब हो गए। अकाली दल ने उसको भी पार्टी से निकाल दिया। ममता ने एनडीए को धोखा दिया। तो कोई नई बात नहीं की। यह ममता की पुरानी फितरत। बीजेडी की भी एक काली भेड़ निकल आई- हरिहर स्वैन। बर्खास्तगी का सबसे पहला फैसला नवीन पटनायक का ही आया। तीन काली भेड़ें यूएनपीए से भी निकली। दो टीडीपी से- आदिकेश्वरलू और एम जगन्नाथ। विपक्ष के दस वोट सरकार को मिले। आठ ने गैर होकर मदद की। सोचो, विपक्ष के दस वोट सरकार को न मिलते। विपक्ष के कोटे में ही जाते। तो सरकार को 265 वोट पड़ते। विपक्ष में पड़ते 266 वोट। अपन गैर हाजिर आठ काली भेड़ों को तो गिन ही नहीं रहे। सो प्रणव मुखर्जी का यह दावा गलत- सरकार के पास कभी 276 से कम नहीं थे। यह दावा उनने भरी लोकसभा में किया। सो अब से यह साफ-साफ खरीद-फरोख्त की सरकार। खरीद-फरोख्त की नहीं तो गैरकानूनी सरकार। ममता पर न सही। दल-बदल कानून बाकी 17 पर तो लागू होगा। यों दादा स्पीकर रहे। तो इन 17 की बर्खास्तगी पर फैसला जल्दी नहीं आना। पर आडवाणी कह रहे थे- 'दिसंबर 2005 में दस सांसदों की बर्खास्तगी का फैसला कितने दिन में हुआ था।' मान लो, सभी 17 बर्खास्त हो जाएं। तो सरकार के खेमे में बचेंगे- 258 सांसद। बीमार श्रीकांतप्पा और ममता समेत 258 सांसद विपक्ष के भी। अपनी काली भेड़ों की बर्खास्तगी के बाद विपक्ष महंगाई पर अविश्वास प्रस्ताव ले आए। तो सरकार को नई काली भेड़ें ढूंढनी होंगी।
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