अटल बिहारी वाजपेयी के विश्वास मत के समय मुख्यमंत्री गिरधर गोमांग जब वोट दे रहे थे, तो स्पीकर बालयोगी ने फैसला उनकी अंतरात्मा पर छोड़ दिया था। सरकार एक मत से गिर गई थी। अब हत्या के आरोप में उम्रकैद भुगत रहे चार सांसदों के वोट पर भी स्पीकर को फैसला करना होगा।
देश के हर हिस्से के सांसदों ने अपने भाव बढ़ा लिए हैं। जैसे आमों-संतरों का मौसम आता है, वैसे ही सांसदों की खरीद-फरोख्त का मौसम चल रहा है। मनमोहन सिंह को अपनी सरकार बचाने के लिए दर्जनभर सांसद चाहिए। अमर सिंह ने उन्हें इस काम में अपनी सेवाएं मुहैया करवा दी हैं और अनिल अंबानी को उनकी सेवा में हाजिर कर दिया है।
अब मनमोहन सिंह पर जिम्मेदारी आ गई है कि वह अनिल अंबानी की सेवाओं के बदले उन्हें उनके व्यापार-धंधों में आ रही मुश्किलों से निजात दिलाएं। अनिल अंबानी के व्यापार-धंधों में सबसे बड़ी मुसीबत उनके अपने बड़े भाई मुकेश अंबानी हैं, इसलिए मनमोहन सिंह ने उन्हें बुलाकर समझाया-बुझाया है। मनमोहन सिंह ने उसी दिन अनिल अंबानी को भी बुलाया और दोनों को वह कहानी सुनाई जो उन्होंने बचपन में चौथी क्लास की किताब में पढ़ी थी। बीमारी की हालत में बिस्तर पर पड़े मौत से जूझ रहे एक बीमार बाप ने अपने बेटों को बुलाकर अपने सिरहाने खड़ा किया। बीमार बाप ने सभी बेटों के हाथ में एक-एक टुकड़ा लकड़ी का थमाया और उसे तोड़ने को कहा। बेटों ने वे टुकड़े आसानी से तोड़ दिए, फिर मरणासन बाप ने उतनी ही लकड़ियों का गट्ठा बनाकर बेटों को दिया और उसे तोड़ने को कहा। कोई भी नहीं तोड़ पाया। बाप ने बच्चों को समझाया कि अकेले-अकेले रहोगे, तो कोई भी तोड़ देगा, लेकिन एकजुट रहोगे तो कोई भी नहीं तोड़ पाएगा। बाप की इस कहानी से झगड़ रहे बेटों में समझौता हो गया था ओर सभी भाई एक-दूसरे के हित में काम करने लगे। अपने बेटों का आपस में बढ़ा हुआ प्यार देखकर बाप भी चंगा-भला हो गया। मनमोहन सिंह की अंबानी भाईयों को सुनाई गई इस कहानी में मरणासन सरकार मनमोहन सिंह की है और लड़ झगड़ रहे भाई तो अनिल-मुकेश अंबानी हैं ही।
वामपंथी दलों को इस पूरी कहानी पर एतराज है। उन्होंने मनमोहन सिंह से अपना एतराज उसी पुरानी शैली में जाहिर किया है, जैसे पिछले चार सालों से कर रहे थे। असल में वामपंथी भाईयों में ही अंबानी बंधुओं की तरफ फूट न पड़ी होती तो वामपंथी नेताओं के तेवर ज्यादा तीखे होते। मनमोहन सरकार गिराने को लेकर वामपंथी भाईयों में भयंकर फूट पड़ गई है और 22 जुलाई को लोकसभा में विश्वास मत पर मतविभाजन से पहले वे आपस में ही भिड़ गए हैं। अब तक कई बार इस्तीफे की धमकी दे चुके और स्पीकर पद को बोझ समझने वाले माकपा सांसद सोमनाथ चटर्जी अब स्पीकर पद छोड़ने को तैयार नहीं हैं, जबकि उन्हें कांग्रेस-लेफ्ट समझौते के तहत ही स्पीकर पद सौंपा गया था। कायदे से कांग्रेस-लेफ्ट समझौता टूटते ही सोमनाथ चटर्जी को खुद अपनी पार्टी से पूछना चाहिए था कि उनके लिए क्या आदेश है। अव्वल तो पद को बार-बार बोझ बताने वाले सोमनाथ चटर्जी को बिना किसी से पूछे ही फौरन बोझ उतार फेंकना चाहिए था। लेकिन अब उन्होंने पद पर चिपके रहने का फैसला किया है। सोमनाथ चटर्जी ने अपनी पार्टी के महासचिव प्रकाश करात से पूछा है कि उनका नाम राष्ट्रपति को समर्थन वापस लेने वाले सांसदों की सूची में शामिल क्यों किया गया, जबकि स्पीकर तो तटस्थ होता है। ऐसा लगता है कि सोमनाथ स्पीकर होते हुए पार्टी की केंद्रीय कमेटी के समय माकपा दफ्तर में जाने वाली बात भूल गए हैं। दिल्ली में जब माकपा की सेंट्रल कमेटी बैठी थी तो वह तटस्थ स्पीकर होने के बावजूद माकपा दफ्तर गए थे। विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने उनके उस कदम पर कड़ा ऐतराज दायर करते हुए उनकी तटस्थता पर सवाल उठाया था। वैसे भी भाजपा उनके चार साल के कार्यकाल में कई बार उनकी तटस्थता पर सवाल उठा चुकी है और कई बार तो टकराव की नौबत आ गई थी। एक बार तो विपक्ष ने स्पीकर के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का फैसला भी कर लिया था, तब प्रणव मुखर्जी के बीच बचाव से टकराव टला था। लालकृष्ण आडवाणी अपनी अगली किताब में उस समय सोमनाथ की ओर से कही गई बातों का उल्लेख करेंगे तो राजनीति में नया बवाल खड़ा होगा। सोमनाथ चटर्जी स्पीकर पद को इसलिए भी बोझ की तरह मानते रहे हैं क्योंकि उन्हें अपनी इच्छा के खिलाफ पार्टी के दबाव में स्पीकर बनाना पड़ा था। अब जब पार्टी चाहती है कि वह स्पीकर पद छोड़ दें तो उन्होंने इनकार कर दिया है।
सोमनाथ चटर्जी सरकार बचाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। सरकार के विश्वासमत या सरकार के खिलाफ रखे गए अविश्वास मत के समय स्पीकर की भूमिका बहुत अहम हो जाती है, नौ साल पहले 17 अप्रेल 1999 को जब अटल बिहारी वाजपेयी ने जयललिता की ओर से समर्थन वापस लिए जाने पर राष्ट्रपति के आर नारायणन के निर्देश पर विश्वास मत पेश किया, तो आंध्र प्रदेश के बालयोगी लोकसभा स्पीकर थे। उनकी भूमिका भी सोमनाथ चटर्जी जैसी थी जैसे सोमनाथ चटर्जी की पार्टी यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन दे रही है, वैसे ही बालयोगी की तेलगू देशम तब एनडीए सरकार को बाहर से समर्थन दे रही थी। वाजपेयी ने जब विश्वास मत पेश किया, तो स्पीकर बालयोगी की तेलगूदेशम सरकार को समर्थन दे रही थी। लेकिन तब बालयोगी मौजूदा स्पीकर सोमनाथ चटर्जी की तरह संसदीय राजनीति के अनुभवी नहीं थे। बालयोगी पहली बार लोकसभा में चुनकर आए थे और आते ही स्पीकर बन गए थे। अटल बिहारी वाजेपयी के विश्वास प्रस्ताव पर मतविभाजन होने ही वाला था तो कांग्रेस ने अपने उड़ीसा के मुख्यमंत्री गिरधर गोमांग को सदन में लाकर बिठा दिया था। गिरधर गोमांग कुछ दिन पहले ही उड़ीसा के मुख्यमंत्री बनकर गए थे और अभी लोकसभा से इस्तीफा नहीं दिया था। गिरधर गोमांग को लेकर सदन में हंगामा हुआ और व्यवस्था के सवाल पर लंबी बहस हुई। दोनों तरफ से दलीलें दी गई, स्पीकर चाहते तो उन्हें वोट देने से वंचित कर सकते थे। ऐसा होता तो दोनों तरफ बराबर वोट पड़ते और स्पीकर के निर्णायक वोट से सरकार बच जाती, क्योंकि वाजपेयी सरकार सिर्फ एक वोट से ही गिरी थी। लेकिन व्यवस्था के सवाल पर सारी बहस के बाद बालयोगी ने फैसला गिरधर गोमांग की अंतरात्मा पर छोड़ दिया था।
सोमनाथ चटर्जी के चार साल के कार्यकाल को देखने से स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति आने पर वह फैसला सांसद के विवेक पर नहीं छोड़ेंगे। उनकी चिट्ठी से अब यह स्पष्ट हो चुका है कि वह सरकार गिराए जाने के खिलाफ हैं। उनकी बोलपुर लोकसभा सीट आरक्षित हो गई है और वह अगला लोकसभा चुनाव शायद ही लड़ें। मंगलवार को मनमोहन सिंह के विश्वासमत पर मतविभाजन के समय हत्या के मामले में उम्रमैद की सजा भुगत रहे चार सांसद सरकार बचाने के लिए जेल से जमानत लेकर आ रहे हैं। गिरधर गोमांग की तरह उन सभी के वोट देने के मुद्दे पर भी सवाल खड़ा होगा और स्पीकर को अहम फैसला करना होगा। खरीद-फरोख्त से नरसिंह राव की सरकार बचने के बाद तीन साल तक लोकसभा में यह सवाल नहीं उठा था कि सरकार कितने रुपए अदा करके बची है। करीब साढ़े तीन करोड़ में खरीदे गए ग्यारह सांसदों के बूते नरसिंह राव ने अपना बाकी का कार्यकाल पूरा किया था और चुनाव में कांग्रेस की लुटिया ऐसी डूबी कि फिर 1996, 1998, 1999 के लगातार तीन चुनाव हारी। आखिर 2004 के चुनाव में भी कांग्रेस उन्हीं 145 सीटों पर अटकी रही जहां मनमोहन सिंह के राजनीतिक गुरु नरसिंह राव छोड़कर गए थे। राव सरकार बचने के चश्मदीद गवाह मनमोहन सिंह को भी उन्हीं की तरह ग्यारह सांसदों की दरकार है, जैसे राजनीतिक-आर्थिक सौदेबाजी तब हुई थी, वैसी ही अब हो रही है।
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