दिल्ली में पल-पल समीकरण बदलने लगे। मंगल को मुलायम कांग्रेस के साथ दिखे। तो बुधवार को मुस्लिम सांसदों की बगावत से घबराए दिखे। गुरुवार को चंद्रबाबू और चौटाला के सामने होंगे। चंद्रबाबू-चौटाला कांग्रेस के साथ नहीं जा सकते। यूएनपीए बना ही कांग्रेस विरोध पर था। अब मुलायम कांग्रेस के साथ जाएंगे। तो कैसा तीसरा मोर्चा, कैसा यूएनपीए। कांग्रेस को अब मुलायम पर पूरा भरोसा। इसी भरोसे से मनमोहन इतवार को जी-8 के लिए रवाना होंगे। नौ-दस को लौटकर आईएईए पर फैसला होगा। बात आईएईए की चली। तो अपन गलतफहमियां दूर कर दें।
आईएईए के गवर्निंग बोर्ड की पांच सालाना मीटिंगें तय। मार्च, जून, दिसंबर। एक सितंबर में जनरल बॉडी से पहले। एक जनरल बॉडी के बाद। बोर्ड में इस समय चिली के मिलेंको स्कोकनिक चेयरमैन। यों मीटिंग बहत्तर घंटे के नोटिस में बुलाना मुमकिन। सो मनमोहन टोक्यो से लौटकर नोटिस का फैसला करें। तो तेरह जुलाई तक मीटिंग संभव। यूपीए-लेफ्ट की आखिरी मीटिंग होगी या नहीं। अब तो यह भी साफ नहीं। हाथोंहाथ एक गलती भी सुधार लें। अपन ने सत्ताईस जून को लिखा था- अपन आईएईए बोर्ड ऑफ गवर्नर के मेंबर नहीं। नहीं, अपन पैंतीस सदस्यीय बोर्ड के मेंबर। सेफगार्ड आईएईए के बोर्ड ऑफ गवर्नर में तय होंगे। जिसमें अपने समेत चीन और पाकिस्तान भी मेंबर। दोनों देश क्या रुख अपनाएंगे। अपनी नजर उस पर भी रहेगी। अपन विदेश मंत्रालय के सूत्रों पर भरोसा करें। तो अगले हफ्ते आईएईए को मीटिंग का आग्रह जाना तय। नोटिस के साथ ही डेलीगेशन रवाना होगा। जिसमें होंगे- नुमाइंदे के साथ सलाहकार और एक्सपर्ट। माना-आईएईए के मौजूदा चेयरमैन अल बरदई अपने हिमायती। सेफगार्ड का ड्राफ्ट उन्हीं ने बनवाया। सो उनकी लॉबिंग भी काम आएगी। पर बोर्ड ऑफ गवर्नर से हरी झंडी आसान भी नहीं। आखिर सवाल पूछा जाएगा- 'बिना एनपीटी पर दस्तखत किए एटमी ईंधन क्यों दिया जाए?' हां, यह सफाई बोर्ड में अमेरिका देगा। पर लाख टके का सवाल दूसरा। लेफ्ट ने कल-परसों में ही समर्थन वापस ले लिया। तो मनमोहन का रुख क्या होगा। मुलायम के समर्थन से बेफिक्र भले ही हों। डिमोरलाइज तो होंगे ही। आखिर प्रकाश करात ने दो टूक सवाल पूछ लिया- 'मनमोहन ने नवंबर में हमसे वादा किया था- आईएईए से बात करने दो। सेफगार्ड पर तब तक दस्तखत नहीं करेंगे। जब तक लेफ्ट की सहमति न हो। अब अगर मनमोहन हमें धोखा देंगे। तो भविष्य में कांग्रेस पर भरोसा कौन करेगा।' करात ने यह सवाल सार्वजनिक तौर पर पूछा। सवाल मनमोहन के सामने भी उठाया होगा। पर अब तो दिल्ली के गलियारों में दूसरी चर्चा। लोग कह रहे हैं- 'यह लेफ्ट-कांग्रेस की नूराकुश्ती। खुद समर्थन वापस लेंगे। मुलायम से समर्थन दिला देंगे। ताकि करार के खिलाफ भी दिखें। मुस्लिम वोटर नाराज भी न हों। सरकार भी न गिरे।' अगर यही लेफ्ट का इरादा। तो मुंह में राम-राम, बगल में छुरी वाली कहावत इन्हीं के लिए बनी होगी। बात मुस्लिम वोट बैंक के पेंच की चली। तो बता दें- सपा सांसद मुनव्वर हसन ने करार को अमेरिकापरस्ती बता दिया। यों मुनव्वर हसन सपा छोड़ने की फिराक में। एक-एक कर कई मुस्लिम मुलायम का साथ छोड़ चुके। मायावती ने इसीलिए गर्म लोहे पर वार किया। उनने कहा- 'मुसलमान अमेरिका से करार के पक्ष में नहीं।' सपा के ही सांसद शाहिद सिद्दीकी ने आन रिकार्ड इंटरव्यू में कहा- 'हां, मुसलमान अमेरिका की विदेश नीति को मुस्लिम विरोधी मानते हैं। एटमी करार सिर्फ ऊर्जा ईंधन का सौदा नहीं। अलबत्ता अमेरिका से सैनिक संबंधों का मुद्दा। विदेशनीति को अमेरिकापरस्त बनाने का मुद्दा। जो भी करार का समर्थन करेगा। मुसलमान उससे दूर चले जाएंगे।' इसीलिए मुलायम बुधवार को घबराए हुए थे। संसदीय बोर्ड में सवाल उठा। तो बाहर आकर बोले- 'सवाल एटमी करार का नहीं। इस समय सांप्रदायिकता सबसे बड़ा खतरा।' असल में चुनाव से सब डरे हुए हैं। लालू भी, मुलायम भी। पर बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी। दिसंबर-जनवरी नहीं, तो अप्रेल।
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