सोनिया ने हारों से सबक लेकर कमेटी बनाने का फैसला किया है, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी क्षत्रपों को उभारकर पार्टी की जड़ें जमा रहे हैं। कांग्रेस के अब देश में सिर्फ 656 विधायक, जबकि भाजपा के 940 हो गए हैं।
अगर कोई कांग्रेस के घटते ग्राफ और भाजपा के बढ़ते ग्राफ की वजह पूछना चाहें, तो मैं कहूंगा कि कांग्रेस में क्षत्रप उभरने नहीं दिए जा रहे और भाजपा में क्षत्रप दिन-प्रतिदिन ताकतवर हो रहे हैं। चार दशक पहले तक कांग्रेस अपनी क्षत्रप नेताओं की वजह से एक मजबूत पार्टी थी, इंदिरा गांधी ने एक-एक करके क्षत्रपों को खत्म कर दिया और कांग्रेस को केंद्रीय नेतृत्व के इर्द-गिर्द सीमित कर दिया। दूसरी तरफ पिछले पांच सालों में भाजपा ने नरेंद्र मोदी, वसुंधरा राजे, प्रेम कुमार धूमल, मेजर भुवन चंद्र खंडूरी और अब येदुरप्पा को क्षत्रप के तौर पर उभरने का पूरा मौका दिया है।
इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के क्षत्रप नेताओं को धूल चटाकर पार्टी पर एकछत्र नियंत्रण पा लिया था, जो बाद में राजीव गांधी के समय में भी बरकरार रहा। राजीव गांधी के समय में कांग्रेस सत्ता के इर्द-गिर्द मंडराने वाली चौकड़ी बनकर रह गई थी। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के बाद 1991 से 1998 के बीच कांग्रेस एक बार फिर पार्टी के रूप में उभर रही थी, क्षत्रप नेता भी फिर से अपने-अपने राज्यों में अपनी जड़ें जमाने की जद्दोजहद कर रहे थे, तभी कांग्रेस के कुछ नेताओं ने अपने अध्यक्ष सीताराम केसरी को धोखा देकर पार्टी का नेतृत्व सोनिया गांधी को सौंपकर पार्टी को फिर से 1969 से 1990 तक के युग में पहुंचा दिया। नतीजा हमारे सामने है कि कांग्रेस पर सोनिया गांधी के इर्द-गिर्द मंडराने वाली ऐसी चौकड़ी काबिज हो चुकी है, जो जमीनी आधार वाले क्षत्रपों को उभरने नहीं दे रही है। इंदिरा गांधीे क्षत्रपों को धूल चटाने के बावजूद पार्टी को करिश्माई नेतृत्व देकर चुनावों में सफलता दिलाती रही। लेकिन यह क्षमता सोनिया गांधी के पास नहीं। इसलिए कांग्रेस तब तक अपने पांवों पर खड़ी नहीं हो सकती, जब तक जमीनी नेताओं के हाथ में क्षेत्रीय नेतृत्व नहीं सौंपा जाता। भाजपा वही कर रही है, जो इंदिरा गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने से पहले कांग्रेस में हुआ करता था। भाजपा ने अपने पांच मुख्यमंत्रियों को उनके राज्यों में क्षत्रप के तौर पर उभारकर पार्टी को नई ताकत के साथ 2009 का लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए तैयार कर लिया है।
किसी भी राजनीतिक दल के पास अगर करिश्माई नेतृत्व नहीं है, तो उसकी जमीनी जड़ें मजबूत होना जरूरी है। कांग्रेस को सोनिया गांधी के नेतृत्व पर भ्रम हो गया था, जो अब धीरे-धीरे टूटना शुरू हुआ है, लेकिन अब इतनी देर हो चुकी है कि क्षत्रपों के अभाव में पार्टी को फिर से जमीनी जड़ें जमाना मुश्किल हो रहा है। हालांकि सोनिया गांधी शुरू से कांग्रेस को यह बताती रहीं हैं कि वह करिश्माई नेता नहीं हैं और उन्हें जमीनी स्तर पर अपनी जड़ें मजबूत करनी होंगी। लेकिन इंदिरा गांधी के समय से अपने नेता का चेहरा सामने रखकर चुनाव जीतने के अभ्यस्त हो चुके कांग्रेसी नेताओं ने सोनिया गांधी की बात नहीं मानी और अब असलियत सबके सामने है कि सोनिया उनका बेड़ा पार नहीं कर सकतीं। सोनिया के नेतृत्व पर कांग्रेस को यह भ्रम इसलिए हो गया था क्योंकि जब उन्होंने पार्टी की बागडोर संभाली, तो कांग्रेस सिर्फ आठ राज्यों में सत्तारूढ़ थी। जबकि 1998 से 2003 के पांच सालों में सोनिया की रहनुमाई में कांग्रेस सोलह राज्यों में सत्तारूढ़ हो चुकी थी। आदत के मुताबिक कांग्रेस के नेता इसे सोनिया गांधी का करिश्मा समझने लगे और सोनिया गांधी को भी इसी भ्रम में ला खड़ा किया। जबकि सोनिया गांधी जानती थी कि असलियत यह नहीं है, असलियत यह थी कि जिन-जिन राज्यों में कांग्रेस सत्ता में आई थी, वहां जनता का फैसला गैर कांग्रेसी राज्य सरकारों के खिलाफ था, कांग्रेस के पक्ष में नहीं। ठीक उसी तरह मध्य प्रदेश की दिग्विजय सिंह, छत्तीसगढ़ की अजीत जोगी और राजस्थान की अशोक गहलोत सरकारों के खिलाफ जनता के आक्रोश को एनडीए अपने पक्ष में हवा मान बैठा और आठ महीने पहले ही लोकसभा चुनाव करवाकर हार गया। राजनीतिक दलों को यह समझ आ जाना चाहिए कि राज्य सरकारों के खिलाफ जन आक्रोश विधानसभा चुनाव में भड़कता है और केंद्र सरकार के खिलाफ जन आक्रोश लोकसभा चुनाव में ही भड़कता है। पिछले एक दशक के सभी चुनाव नतीजे देश की जनता के राजनीतिक तौर पर परिपक्व होने का सबूत है। इसलिए 2004 के लोकसभा चुनाव को सोनिया गांधी के पक्ष में जनता का फैसला कहना कांग्रेस की भयंकर भूल थी। जो अब लगातार बारह विधानसभा चुनावों में हार के बाद कांग्रेस को समझ आ गई होगी। हालांकि पिछले चार सालों के चुनाव नतीजों से जनता ने 2009 के लोकसभा चुनाव का संकेत देना शुरू कर दिया है।
पिछले पांच सालों में कांग्रेस बारह राज्यों में चुनाव हारी है और इसी दौरान भाजपा ने राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और गुजरात में दुबारा चुनाव जीतने के बाद अब कर्नाटक में पहली बार खाता खोला है। इसी दौरान भाजपा उड़ीसा में बीजू जनता दल के साथ, पंजाब में अकाली दल के साथ, बिहार में जनता दल के साथ और नगालैंड-मेघालय में वहां के स्थानीय घटक दलों के साथ सत्ता में आई है। इस समय भाजपा के सात अपने मुख्यमंत्री हैं और पांच राज्यों में वह साझा सरकारों में शामिल है। दूसरी तरफ कांग्रेस अपने बूते पर सिर्फ पांच राज्यों आंध्र प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, असम और पांडीचेरी में सत्ता में रह गई है। सहयोगी दलों के बूते जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र, मणिपुर और अरुणाचल में इस समय कांग्रेस के मुख्यमंत्री हैं और झारखंड में कांग्रेस के बूते निर्दलियों की सरकार है। भाजपा के सात के मुकाबले कांग्रेसी मुख्यमंत्री भले ही नौ हों, लेकिन भाजपा बड़े राज्यों में अपने बूते पर सत्तारूढ़ है, जबकि कांग्रेस आंध्र को छोड़कर बाकी सभी राज्यों में या तो सहयोगियों पर निर्भर है, या फिर दिल्ली, हरियाणा, पांडीचेरी जैसे छोटे राज्यों में सरकारें हैं। कांग्रेस जिन पांच राज्यों में अपने बूते पर सत्ता में है वहां की कुल लोकसभा सत्तर से कम हैं। जबकि भाजपा जिन राज्यों में सत्तारूढ़ है, वहां की लोकसभा सीटें डेढ़ सौ से ज्यादा हैं। कांग्रेस और भाजपा के ग्राफ का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि जहां सोनिया गांधी के नेतृत्व में देशभर में अब कांग्रेस के सिर्फ 656 एमएलए रह गए हैं, वहां भाजपा के 940 एमएलए हो चुके हैं।
लोकसभा का अगला चुनाव किसी करिश्माई नेता के इर्द-गिर्द नहीं लड़ा जाएगा। कोई करिश्माई नेता अपनी पार्टी को केंद्र में सत्ता नहीं दिला सकता। यह बात सोनिया गांधी पर भी लागू होती है और लाल कृष्ण आडवाणी पर भी। फर्क सिर्फ इतना है कि लालकृष्ण आडवाणी इस बात को बखूबी समझते हैं इसलिए वह क्षत्रप नेताओं को उभारने में जी-जान लगाए हुए हैं और पार्टी को जमीनी स्तर पर मजबूत कर रहे हैं, जबकि सोनिया गांधी के इर्द-गिर्द मंडराने वाले लोग उनको भ्रम जाल में डालकर गलत फहमी का शिकार बनाए हुए हैं। नतीजा यह है कि पार्टी की चुनावी रणनीति क्षत्रपों के मुताबिक उन्हें उभारने के लिए नहीं बनती अलबत्ता हार का ठीकरा उनके सिर फोड़ने और जीत का सेहरा सोनिया गांधी के सिर बांधने के लिए बनती है। कांग्रेस में भी यह चापलूसी वाली संस्कृति बन चुकी है कि हार का ठीकरा अपने सिर फोड़ लेते हैं, जीत का श्रेय सोनिया गांधी को दे देते हैं। गुजरात, हिमाचल, उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड में चुनाव नतीजों के बाद यही सब देखने को मिला था, कर्नाटक के बाद पहली बार यह देखने को मिला है कि एसएम कृष्णा ने हार का ठीकरा पार्टी हाईकमान की गलत रणनीति के सिर फोड़ा है। कर्नाटक की हार कांग्रेस के लिए एक सबक हो सकती है, अगर कांग्रेस इसे समझे। कर्नाटक की हार के बाद इकत्तीस मई को हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में लगातार हो रही हारों की समीक्षा के लिए एक और कमेटी बनाने का फैसला हुआ है। कांग्रेस जब से सत्ता में आई है, पार्टी और सरकार स्तर पर प्रणव मुखर्जी की रहनुमाई में सत्तर कमेटियां बन चुकी हैं, नई कमेटी किसी की रहनुमाई में भी बने, उसकी कुछ भी सिफारिश हो, जब तक पार्टी में क्षत्रप नहीं उभरेंगे, तब तक कांग्रेस का फिर से जड़ें जमाना संभव नहीं।
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