यों तो बुधवार को और भी बहुत घटनाएं हुई। सरबजीत की फांसी कम से कम एक महीना तो रुकी। मेघालय में कांग्रेसी सीएम लपांग को इस्तीफा देना पड़ा। इस्तीफा तो गवर्नर सिध्दू को भी देना चाहिए। जिनको पता था- लपांग के पास बहुमत नहीं। फिर भी उनने सीएम बनाकर खरीद-फरोख्त का मौका दिया। पर अपने संगमा आखिर सोनिया को मात दे गए। पर दिल्ली की सबसे बड़ी राजनीतिक घटना थी- 'माई कंट्री, माई लाइफ' का विमोचन। जो सिरी फोर्ट ऑडिटोरियम में हुआ। विमोचन हुआ अब्दुल कलाम के हाथों। विमोचन की खास बात रही- दिल्ली में ट्रैफिक जाम होना। जब आधा दर्जन मुख्यमंत्री विमोचन में पहुंचे हों। तो साउथ दिल्ली की सड़कें जाम होनी ही थीं।
प्रकाश सिंह बादल, नरेंद्र मोदी, वसुंधरा राजे, नवीन पटनायक, शिवराज सिंह चौहान और उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी। अपन को सब सिरीफोर्ट हाल में दिखे। यों दिल्ली में जाम कोई नई बात नहीं। पर इस जाम की एक खासियत रही। पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को कार से उतरकर पैदल चलना पडा। पुलिस कलाम की कार को निकालने का रास्ता नहीं ढूंढ पाई। अब्दुल कलाम काफी पैदल चलकर सिरीफोर्ट पहुंचे। यही है कलाम की ताकत। इसीलिए कलाम जब हटे। तो उन्हें जनता का राष्ट्रपति कहा गया। अलाउंसर ने जब सूचना दी- 'कलाम पैदल चलकर आ रहे हैं। तो हाल तालियों से गूंज उठा।' पर बात आडवाणी की किताब के विमोचन की। जिसमें सिर्फ एनडीए और संघ के नेता ही नहीं पहुंचे। अलबत्ता शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल भी पहली लाइन में दिखे। मीडिया में फुसफुसाहट थी- 'आडवाणी को पीएम के तौर पर लांच करने का जश्न।' अगर यही जश्न था। तो उसमें देश के कई रंग दिखे। अनिल अंबानी से लेकर सुनील मित्तल तक। गायक अभिजीत से लेकर अभिनेता संजय दत्त तक। नटवर सिंह भी दिखे। संघ के सरकार्यवाह मोहन भागवत तो मंच पर थे ही। नीचे सुरेश केतकर, सुरेश सोनी, मदनदास देवी पहली लाइन में मौजूद थे। कमी थी तो अटल बिहारी वाजपेयी की। पर वाजपेयी की दत्तक बेटी और दामाद रंजन भट्टाचार्य मौजूद थे। अपन बात कर रहे थे शरद पवार की। यों तो पवार के आडवाणी से व्यक्तिगत रिश्ते। पर चुनाव के बाद क्या समीकरण बनेंगे। कौन जाने। फुसफुसाहट तो किताब की लांच से ही शुरू हो गई। बात किताब की चली तो बता दें- आखिर छपते-छपते 986 पेज की हो गई किताब। आडवाणी का प्राकथन और वाजपेयी का फारवर्ड भी जोड़ दें। तो किताब हो गई 1040 पेज की। अपन किताब खरीदने वाले पहले सख्स बने। अपन को विमोचन से ठीक पहले किताब एक शर्त पर दी गई। शर्त थी- किताब लेकर अपन पीछे मुड़कर नहीं देखेंगे। सीधे बाहर जाएंगे। अपन राजी हो गए। पर किताब फिर भी रूपा एंड कंपनी का नुमाइंदा गेट तक छोड़ने आया। पर बात किताब की। जिसके कुछ पत्ते अपन मंगलवार को लिख चुके। कुछ-कुछ हिस्से पिछले चार दिनों में अखबारों में छपे भी। आने वाले दिनों में किताब के कुछ और अंश छपेंगे। किताब में दुर्लभ फोटुओं की भरमार। आडवाणी ने 1947 से लेकर 2007 तक लिखा। कुल मिलाकर साठ साल का ज्वलंत राजनीतिक इतिहास। रूपा एंड कंपनी के आर के मेहरा बता रहे थे- 'इससे पहले ऐसी सिर्फ तीन किताबें आई। आर वेंकट रमन, आचार्य कृपलानी और जसवंत सिंह की।' बात जसवंत सिंह की चली। तो बताते जाएं- विमान अपहरण के समय आडवाणी-जसवंत में मतभेद थे। आडवाणी-जसवंत में मतभेद कई और मुद्दों पर भी रहे। फिर भी आडवाणी ने मंच से बोलने का जिन चार लोगों को मौका दिया। उनमें जसवंत सिंह भी थे। जसवंत ने इस मौके पर भी अपने मतभेदों का खुलासा किया। पर आडवाणी को सच्चा लोकतांत्रिक कहने का मौका नहीं गवाया। मंच से बोलने वाले बाकी तीन थे- अपने भैरोंसिंह शेखावत, मोहन भागवत और चो रामस्वामी। चो रामास्वामी ने मीडिया की फुसफुसाहट को जुबान दी। जब बोले- 'किताब का जब दूसरा संस्करण छपेगा। तो उसमें आडवाणी का प्रधानमंत्री के तौर पर एक और चैप्टर होगा। किताब दो साल में छपे। या तीन साल में।'
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