पाकिस्तान में लोकतंत्र की जड़ें नहीं जमीं। तो इसका मतलब यह नहीं। पाक से सीखने लायक कुछ नहीं। पर यह लिखने से पहले अपन ठिठके। कहीं अपन को पाकपरस्त ही न मान लिया जाए। अपने लाल कृष्ण आडवाणी ने क्या गलत कहा था। जो उन्हें जिन्नापरस्त मान लिया गया। उनने यही तो कहा था- 'पाक की संविधान सभा में जिन्ना ने सेक्युलर पाकिस्तान की कल्पना की थी।' इस्लामिक देश में जाकर आइना दिखाना कहां गलत था। पर संघ से लेकर कांग्रेस तक। सब हाथ धोकर आडवाणी के पीछे पड़ गए। मजबूरी में आडवाणी चुप जरूर रहे। पर उनने कभी नहीं माना- जिन्ना के बारे में गलत कहा।
अलबत्ता उनने हमेशा कहा- 'मैंने क्या गलत कहा।' अब जब आडवाणी की नई किताब आएगी- 'माई कंट्री, माई लाइफ।' तो जिन्ना प्रकरण पर अपनी बात खुलकर कहेंगे। अब चुनावों से पहले नया विवाद फिर खड़ा हो। तो अलग बात। पर आप पूछोगे- अपन को अचानक पाक से सीखने का ख्याल कैसे आया। अपन को ख्याल तब आया। जब मेघालय में गवर्नर एस एस सिध्दू ने कांग्रेसी लपांग को शपथ दिलाई। अपन को तो पहले ही यही शक था। इसलिए अपन ने कई बार लिखा भी। सिध्दू ने लपांग को शपथ दिलाने की खास वजह नहीं बताई। शपथ दिलाने से पहले यह भी नहीं पूछा- 'बहुमत का जुगाड़ कैसे करेंगे।' सिध्दू ने कहा- 'सबसे बड़ी पार्टी को बुला लिया। ताकि विधायकों की खरीद-फरोख्त न हो।' कोई अनाड़ी भी इसका मतलब समझ लेगा। अपने पी ए संगमा दो बार 31 विधायक राजभवन ले गए। साफ है- बहुमत नए गठबंधन एमपीए के पास। फिर भी उनने लपांग को शपथ दिलाई। तो मतलब साफ- लपांग को खरीद-फरोख्त का मौका दिया। अपन ने के आर नारायणन का उदाहरण दिया था। जब उनने 1998 में तब तक वाजपेयी को न्यौता नहीं दिया। जब तक जयललिता की चिट्ठी नहीं आ गई। चंद्रबाबू नायडू ने यह नहीं कह दिया- कांग्रेस को किसी हालत में समर्थन नहीं देंगे। पर सिध्दू ने सामने बहुमत देखते हुए भी अल्पमत लपांग को शपथ दिलाई। तो उनने लोकतंत्र को ठेंगा ही दिखाया। अब संगमा सुप्रीम कोर्ट में। सोली सोराबजी ने मंगलवार को पिटीशन लगाई। तो बुधवार की तारीख तय हो गई। अपन नहीं जानते। अदालत क्या रुख अपनाएगी। पर ऐसे मामलों में कई गवर्नरों की भद पिट चुकी। अपन ने सिध्दू का फैसला देखा। तो अपन को पाकिस्तान की याद आ गई। पाक में बहुमत साबित होने से पहले शपथ दिलाने का नियम नहीं। अब जैसे पीपीपी-पीएमएल(एन) का गठबंधन हो चुका। दोनों के पास साफ बहुमत। पर प्रधानमंत्री का चुनाव नेशनल एसेंबली में होगा। मुशर्रफ ने सत्रह मार्च को एसेंबली बुला ली। अपने यहां जो लोकसभा। पाकिस्तान में वह नेशनल एसेंबली। अपनी गठबंधन सरकार निपटने को। पर पाकिस्तान में गठबंधन सरकार बनेगी। सरकार के निपटने की बात चली। तो बता दें- माहौल बनाकर अब चुनाव से आनाकानी शुरू। इतवार को प्रणव दा बोले- 'एटमी करार के लिए सरकार कुर्बान नहीं करेंगे।' सोमवार को राहुल बोले- 'चुनाव वक्त से पहले नहीं।' मंगलवार को सोनिया बोली- 'लोकसभा चुनाव अगले साल।' पर उनने चुनावों की तैयारियों का बिगुल बजा दिया। समझने वालों को इशारा काफी। अपन ने सेंट्रल हाल में हंसराज भारद्वाज से पूछा- 'प्रणव दा के बयान का क्या मतलब?' उनने कहा- 'प्रणव दा की डयूटी मई-जून तक लेफ्ट को संभालकर रखने की।' यों समझदारों को इशारा काफी। पर बात पाक से सीखने की। तो एक बात और सीखने लायक। पाक की नेशनल एसेंबली में पहले से महिला आरक्षण लागू। महिलाओं के लिए साठ सीटें आरक्षित। अल्पसंख्यकों के लिए भी दस सीटें। आरक्षण का पाकिस्तानी फार्मूला लाजवाब। जिस पार्टी को जितनी सीटें मिलें। उसी अनुपात में उस पार्टी को महिला-अल्पसंख्यक मेंबर मनोनीत करने का हक। यही फार्मूला अपनाकर भारत में महिला आरक्षण क्यों नहीं।
आपकी प्रतिक्रिया