यूपीए सरकार ने पिछले छह सालों की तरह इस बार भी किसी को भारत रत्न नहीं देकर खुद को भंवर जाल से तो निकाल लिया, लेकिन भारत रत्न सम्मान खुद भंवर जाल में फंस गया। परंपरा के मुताबिक विपक्ष के नेता लाल कृष्ण आडवाणी का यह अधिकार था कि वह अपनी तरफ से प्रधानमंत्री को किसी का नाम सुझाते। यह अलग बात है कि उन्होंने अपनी ही पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी का नाम पेश किया, इसमें इतनी बुराई इसलिए नहीं है, क्योंकि कांग्रेस सरकारें अपने ही प्रधानमंत्री और नेता को भारत रत्न और दूसरे नागरिक सम्मान देती रही है। बुराई यह थी कि आडवाणी ने प्रधानमंत्री को भेजी गई सलाह प्रेस को लीक कर दी। कम से कम ऐसी परंपरा पहले नहीं थी। कहा जा रहा है कि लाल कृष्ण आडवाणी ने अपनी सिफारिशी चिट्ठी इसलिए लीक की ताकि यूपीए सरकार वाजपेयी को दरकिनार करके ज्योतिबसु को भारत रत्न से सम्मानित न कर सके। लाल कृष्ण आडवाणी छह साल तक देश के गृहमंत्री और तीन साल तक उप प्रधानमंत्री रहे हैं। अगर यह बात सही है, तो जरूर उनके पास ब्यूरोक्रेसी से यह खबर आई होगी कि मनमोहन सिंह सरकार ज्योतिबसु को भारत रत्न देकर अमेरिका से हुए परमाणु समझौते का हित साधना चाहती है। अगर इसमें जरा भी तथ्य है तो देश के सर्वोच्च सम्मान का दोनों तरफ से राजनीतिक इस्तेमाल किया गया। सम्मानों के इतिहास में जाएं तो चाणक्य नीति में लिखा है कि राजा को अपने समर्थकों की तादाद बढ़ाने के लिए राजकोष से धन और सम्मान देना चाहिए। हालांकि चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में इस तरह के सम्मान दिए जाने का कोई ऐतिहासिक सबूत नहीं है। मुगलों के काल में इदमाद-उल-दौला (विश्वस्त व्यक्ति) का सम्मान दिया जाता था। राजा अकबर ने नूरजहां के पिता मिर्जा गयासुद्दीन को इदमाद-उल-दौला का सम्मान दिया था। मुगल काल में मनसब और खिल्लत भी दिए जाते थे। अंग्रेजों ने अपने भारतीय चापलूसों की तादाद बढ़ाने के लिए सर, रायसाहब, रायबहादुर जैसे कई तरह के सम्मान बांटे। जनरल डायर को सम्मानित करने वाले एक ग्रंथी अरूड़ सिंह को सर की उपाधि दी गई थी और भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने वाले सोभा सिंह को भी सर की उपाधि मिली थी। हंटर कमीशन के सामने रोहतक के एक लालचंद नामक व्यक्ति ने गवाही दी थी कि अगर जलियांवाला बाग में ब्रिटिश पुलिस गोली न चलाती तो अराजकता फैल जाती। ब्रिटिश सरकार ने हंटर कमीशन में गवाही देने वाले लालचंद को रायबहादुर से सम्मानित किया। वैसे संविधान सभा में इस मुद्दे पर बहस हुई थी कि अंग्रेजों की ओर से दिए जा रहे सर, रायबहादुर जैसे सम्मान दिए जाएं या नहीं। संविधान सभा ने यह कहते हुए इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था कि अंग्रेज सरकार चापलूसी करने वाले और अंग्रेजों के हित साधने वालों को इस तरह के सम्मान देकर चापलूसों का दायरा बढ़ाया करती थी, जबकि भारत की चुनी हुई सरकार को इस तरह की कोई जरूरत नहीं। लेकिन पहले राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद ने प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के कहने पर 2 जनवरी 1954 को पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण सम्मानों के साथ 'भारत रत्न' जैसे सर्वोच्च सम्मान का भी ऐलान किया। राजनीतिक आधार पर चयन तो पहले साल ही हो गया था जब सी. राजगोपालाचारी और डा. राधाकृष्णन को पहले भारत रत्न के तौर पर सम्मानित किया गया। हालांकि उस समय वैज्ञानिक सीवी रमन को भारत रत्न दिया जाना सराहनीय कदम था। उस समय कांग्रेस और सरकार में तमिलनाडु की तूती बोलती थी और पहले साल भारत रत्न हासिल करने वाले तीनों ही तमिलनाडु के थे। सम्मानों को शुरू करते समय राष्ट्रपति भवन से जो आदेश जारी किया गया था, उसमें यह प्रावधान किया गया था कि उस समय से पहले के व्यक्ति को यह सम्मान नहीं दिया जाएगा, इसलिए महात्मा गांधी को भारत रत्न की उपाधि नहीं दी गई। लेकिन एक साल बाद ही इस प्रावधान को लागू कर दिया गया, इसके बावजूद महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अब्बुल कलाम आजाद जैसे आजादी के आंदोलन में हिस्सा लेने वाले देशभक्तों को भारत रत्न से सम्मानित नहीं किया गया, जबकि जवाहर लाल नेहरू ने खुद 1955 में ही भारत रत्न ले लिया। बाकी सम्मानों की अलग चयन पध्दति को छोड़ दिया जाए तो भारत रत्न का फैसला खुद प्रधानमंत्री स्तर पर होता है, इसलिए यह कहना कि पहले राजनीतिक आधार पर फैसले नहीं लिए गए, ठीक नहीं होगा। कितना आश्चर्यजनक लगता है कि जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी ने खुद प्रधानमंत्री होते हुए खुद को 'भारत रत्न' से सम्मानित करवा लिया। जब तक नेहरू-इंदिरा-राजीव का शासन रहा तब तक डा. अंबेडकर, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अब्बुल कलाम आजाद, मोरारजी देसाई, जयप्रकाश नारायण भारत रत्न से सम्मानित नहीं किए गए। इन सभी को गैर गांधी परिवारों की सरकारों ने भारत रत्न माना। गैर गांधी कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने 1991 में वल्लभ भाई पटेल, मोरारजी देसाई (राजीव गांधी को भी) और 1992 में मौलाना अब्बुल कलाम आजाद और सुभाष चंद्र बोस को भारत रत्न से सम्मानित किया। हालांकि सुभाष चंद्र बोस को सम्मान का विवाद सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, क्योंकि समाज का एक वर्ग यह मानने को तैयार ही नहीं कि नेताजी की विमान हादसे में मौत हो गई थी, जबकि सम्मान देते समय उन्हें स्वर्गीय बताया गया था। सरकार अदालत में यह साबित नहीं कर पाई कि सुभाष चंद्र बोस की मौत हो गई थी इसलिए इस सम्मान को रद्द कर दिया गया। जब भारत रत्न और दूसरे सम्मानों की घोषणा की गई थी, उस समय भी देश के बहुत सारे लोग यह मानते थे कि इन सम्मानों से ब्रिटिश परंपरा ही शुरू होगी। कांग्रेस में भी इस मुद्दे पर गहरे मतभेद थे, जिसकी झलक मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री बनने पर दिखी, जब पहले जनता शासन में 13 जुलाई 1977 से लेकर 26 जनवरी 1980 तक किसी को भारत रत्न से सम्मानित नहीं किया गया। लेकिन जैसे ही इंदिरा गांधी का शासनकाल वापस आया, तो एग्नेस जोंग्हा बोजासिंऊयानी मदर टरेसा को भारत रत्न से सम्मानित करके सम्मान परंपरा फिर से शुरू कर दी गई। मदर टरेसा विदेश में जन्मी पहली भारतीय नागरिक थीं जिसे भारत रत्न से सम्मानित किया गया। मदर टरेसा को चैरिटी कार्यों के लिए चर्च का पूरा समर्थन था, इसलिए जब उन्हें सम्मानित किया गया तो एक खास वर्ग ने इसकी कड़ी आलोचना की। मानव सेवा का मदर टरेसा से भी बड़ा काम अमृतसर में भगत पूर्ण सिंह ने पिंगलवाड़ा बनाकर किया था, लेकिन उन्हें इस सम्मान के योग्य नहीं समझा गया। इसलिए सम्मान के राजनीतिक मापदंडों को सिरे से नकारा नहीं जा सकता। जिस तरह राजनीतिक संतुलन के आधार पर एमजी रामाचंद्रन को उनके देहांत के एक हफ्ते बाद ही भारत रत्न से सम्मानित किया गया, उससे इस बात का अंदाज तो लग ही जाता है कि सम्मान के मापदंड क्या हैं। 'भारत रत्न' का सम्मान हासिल करने के लिए इस साल शुरू हुई राजनीतिक होड़ से सम्मान की प्रतिष्ठा धूल धूसरित हुई है। अब भारत रत्न भी पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण जैसे राजनीतिक होड़ वाले सम्मानों में शामिल हो गया है। नवंबर में हुए गुजरात विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी के खिलाफ मुहिम चलाने वाले तीन मीडियाकर्मियों को पद्मश्री देने से इन सम्मानों के राजनीतिक मापदंड किसी से छिपे नहीं रहे। सत्ताधारी गलियारों में घूमने वाले नौकरशाह अच्छी तरह जानते हैं कि हर साल दिसंबर और जनवरी महीने में इन सम्मानों को हासिल करने के लिए किस तरह होड़ मचती है। बहुत कम लोग होते हैं, जिन्हें सम्मान के बारे में पहले जानकारी नहीं होती। इन सम्मानों की गरिमा इतनी गिर चुकी है कि कई वास्तविक हकदार घोषणा होने पर सम्मान लेने से इंकार कर चुके हैं। इंग्लैंड में सत्ताधारी पार्टी को चुनाव में चंदा देने की एवज में सम्मान दिए जाने का वादा करने का खुलासा होने के बाद अंदाज लगाया जा सकता है कि अंग्रेजों की इस परंपरा का भारत में किस तरह निर्वहन हो रहा होगा। क्या अब वक्त आ गया है कि इन सम्मानों पर पुनर्विचार किया जाए।
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