यों भले ही बीजेपी काउंसिल शांति से निपट गई। पर बाहर से दिख रही शांति, अंदर से वैसी नहीं। आखिर तक खुसर-पुसर चलती रही। वर्किंग कमेटी की शुरूआत राजनाथ ने करनी थी। समापन भाषण आडवाणी का था। रात साढ़े सात बजे जावड़ेकर की प्रेस कांफ्रेंस तय थी। पर बिना समापन भाषण के वर्किंग कमेटी निपटी। जावड़ेकर को इधर-उधर की बात करनी पड़ी। आखिर क्यों नहीं हुआ आडवाणी का भाषण? अपनी वसुंधरा राजे की गैर हाजिरी भी कौतुहुल का मुद्दा रही। काउंसिल में आई भी। तो अपने भाषण तक मंच पर नहीं पहुंची। भाषण में भी बाकी मुख्यमंत्रियों पर टिप्पणीं कर गई। बोली- 'अभी सब लोग ताल ठोककर गए हैं कि किसने कितनी तोपें बजाई हैं।' यह पहले बोलने वाले रमण, शिवराज पर कटाक्ष था। वह तो मोदी का भाषण सुने बिना ही उठ गई थी। उठते-उठते बैठी।
मंगलवार को मोदीमंत्र पर वसुंधरा की टिप्पणीं छपी। तो काउंसिल में मोदी-वसुंधरा दरार की चर्चा रही। आडवाणी ने काउंसिल का समापन भाषण दिया। तो डेलीगेट उठने लगे। इस पर राजनाथ की टिप्पणीं अनबन का एहसास करा गई। राजनाथ बोले- 'कोई नहीं उठेगा। सब अपनी-अपनी जगह पर बैठे रहेंगे।' वंदेमातरम् के लिए रुकने को कहते। तो किसी को अनबन न लगती। पर तल्खी से कही बात आडवाणी खेमे को चुभ ही गई। फुसफुसाहट तो अनंत-येदुरप्पा को लेकर भी चली। येदुरप्पा भी वसुंधरा की तरह सोमवार को लौट गए। काउंसिल सम्मेलन में येदुरप्पा को वैसा वजन नहीं मिला। जैसा अनंत कुमार को। यों सबसे पहली चुनौती कर्नाटक की। यों दस फरवरी तक नोटिफिकेशन हुआ तो कर्नाटक में चुनाव मई में, वरना छह महीने राष्ट्रपतिराज बढ़ेगा। वैसे आडवाणी ने जो कहा। उसमें भी दम। उनने कहा- 'कांग्रेस का इरादा कर्नाटक के चुनाव मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ के साथ करवाने का। इन चारों राज्यों के साथ लोकसभा चुनाव का इरादा भी।' पर आडवाणी गुटबाजी से भयभीत दिखे। बोले- 'गुटबाजी खत्म करने के लिए तेजी से कदम उठाए जाएं।' यों अपने पास गुटबाजी खत्म करने के फायदे का उदाहरण। धूमल-शांताकुमार ने मिलकर चुनाव लड़ा। नतीजा सबके सामने। बीजेपी को हिमाचल में पहली बार स्पष्ट बहुमत मिला। अब दोनों आपस में घी-खिचड़ी। सोमवार को अपन धूमल से फुनियाए। तो वह बोले- 'शांताकुमार जी का सुझाव था- स्कूली छात्र-छात्राओं को नेताओं-अफसरों के स्वागत में खड़ा करने की परंपरा खत्म की जाए। मैंने फौरन आदेश जारी कर दिया।' राजनाथ सिंह ने भी सबक लिया होगा। वरना ऐसी तारीफ मोदी की न करते। जैसी उनने की। वेंकैया के जिम्मे कृषि। जेटली के जिम्मे राजनीतिक। अनंत के जिम्मे सालभर की रपट। कांउसिल का एक मतलब यह भी- आडवाणी खेमे के वेंकैया, जेटली, सुषमा, मोदी, अनंत की भाजपाई बड़े पर्दे पर वापसी। राजनाथ बोले थे- 'लोकसभा चुनाव जीतने का एक सुनहरा मौका।' तो आडवाणी बोले- 'सोने का भरा कोई घड़ा नहीं रखा। जो लपकने के लिए हमारा इंतजार कर रहा हो। सोना खोदकर निकालने, शुध्द करने और ढालने का काम आसान नहीं।' अपन इसे आडवाणी-राजनाथ की लुका-छिपी न भी मानें। तो समझ का फर्क तो दिखा ही। यों आडवाणी की सूझ-बूझ से टक्कर वाले अब सिर्फ मोदी। पंद्रहवीं लोकसभा का मौका आडवाणी का। तो अगली बारी मोदी की। पर बात समापन भाषण की। आडवाणी ने विदेशी मूल से विदेशी विचारधारा तक सबको रगड़ा। यानी सोनिया से लेकर लेफ्टियों तक। बोले- '1942 में अंग्रेजों के साथ थे। 1947 में बंटवारे के समर्थक थे। 1962 में चीन के साथ।' मनमोहन पर कटाक्ष करते बोले- 'सोनिया ने सात रेसकोर्स का महत्व घटा दिया। अब दस-जनपथ का ज्यादा महत्व। यह भारतीय राजनीति का कम्युनिस्टकरण।' बात आडवाणी के चुनावी मंत्र की। आडवाणी का मंत्र चला। तो सांसदों-विधायकों के टिकट थोक में कटेंगे। उनने कहा- 'मोदी ने साबित किया। एंटी इनकमबेंसी सरकार के खिलाफ नहीं। सांसदों-विधायकों के खिलाफ होती है।' यानी सुधरने का अब भी मौका।
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