यों तो 'भारतरत्न' पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। पर यूपीए सरकार अटल बिहारी वाजपेयी को देगी नहीं। सर्वोच्च सम्मान का इतिहास इस बात का गवाह। नेहरू-इंदिरा-राजीव तीनों लिस्ट में शामिल। पर कांग्रेस को डॉ. अम्बेडकर-सरदार पटेल याद नहीं आए। अम्बेडकर को भारतरत्न दिया वीपी सरकार ने। सरदार पटेल को चंद्रशेखर ने। इंदिरा ने मदर टरेसा को भारतरत्न दिया। पर जब वाजेपयी ने वीर सावरकर की सिफारिश की। तो सोनिया ने वीएन नारायणन से फाइल रुकवा दी। सावरकर की बात चली। तो बता दें- दिल्ली में जब पहली वीर सावरकर कमेटी बनी। तो वसंत साठे अध्यक्ष थे, वीएन गाडगिल महासचिव। पर जैसे-जैसे कांग्रेस अल्पसंख्यकवाद की ओर बढ़ी। वैसे-वैसे सावरकर राष्ट्रविरोधी लगने लगे।
वाजपेयी ने सावरकर का फोटू सेंट्रल हाल में लगाना तय किया। तो सोनिया ने राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को चिट्ठी लिखकर रोका। वह तो अब्दुल कलाम पढ़े-लिखे मुस्लिम थे। खुद भी सावरकर पुरस्कार ले चुके थे। सावरकर की तपस्या, त्याग, देशभक्ति जानते थे। सो अपने हाथों फोटू लगाकर गए। बात अब्दुल कलाम की चली। तो बता दें- कलाम को भारतरत्न यूएफ गवर्नमेंट के समय मिला। देवगौड़ा-गुजराल के वक्त की बात चली। तो बताते जाएं- कांग्रेस को गुलजारीलाल नंदा भी कभी याद नहीं आए। नंदा को भी भारतरत्न गुजराल ने दिया। वाजपेयी का परिवार था ही नहीं। सो परिवारवाद चलाते भी क्या। वाजपेयी के वक्त मिले भारतरत्न देखोगे। तो तारीफ करनी ही पड़ेगी। उनने किसी राजनीतिज्ञ को भारतरत्न नहीं दिया। पहले साल एमएस सुब्बालक्ष्मी को। अगले साल अमर्त्य सेन, पंडित रवि शंकर और चिदंबरम सुब्रहमण्यम। फिर लता मंगेशकर और बिसमिल्ला खां को। हर साल भारतरत्न देना जरूरी नहीं। आखिर देश का सबसे बड़ा सम्मान। सो सोच-समझकर देना चाहिए। वाजपेयी को छह साल मौका मिला। पर उनने सिर्फ तीन मौकों का इस्तेमाल किया। वैसे तारीफ करनी पड़ेगी अपने मनमोहन सिंह की भी। उनने अभी तक खाता ही नहीं खोला। इस बार भी खाता खुलेगा। अपन को कोई उम्मीद नहीं। आडवाणी ने वाजपेयी का नाम चलाकर उम्मीद का दरवाजा बंद कर दिया। कांग्रेस अपने हाथों वाजपेयी को भारतरत्न देने से रही। जिस कांग्रेस ने वाजपेयी की देशभक्ति पर सवाल उठाया हो। जिस कांग्रेस ने वाजपेयी पर अंग्रेजों से माफी मांगने का आरोप लगाया हो। वह वाजपेयी को भारतरत्न क्यों देगी। पर आडवाणी ने चुनावी तुरुप का पत्ता चल दिया। कांग्रेस से न निगले बन पाएगा, न उगले। यों तो आडवाणी ने वाजपेयी को भारतरत्न की सिफारिशी चिट्ठी पांच जनवरी को लिखी। पर नौ जनवरी को जारी हुई। तो कांग्रेस चार दिन बाद भी जवाब के लिए तैयार नहीं थी। शकील अहमद बोले- 'यह काम सरकार का। कांग्रेस को कुछ नहीं कहना।' वाजपेयी भले ही 2004 की बाजी हार गए हों। पर मौजूदा नेताओं में आज भी सबसे ज्यादा साख। सिर्फ साख नहीं, लोकप्रियता भी। चुनावी पंडितों का अनुमान था- देशभर का ब्राह्मण वाजपेयी के पीछे जरूर। पर आडवाणी के पीछे नहीं। पर आडवाणी ने ब्राह्मण वोटों का जुगाड़ कर लिया। सोनिया-मनमोहन को बुरी तरह फंसाया। वाजपेयी को भारतरत्न नहीं बनाया। तो देशभर के ब्राह्मण खफा होंगे। वैसे अपन कांग्रेस सरकारों की जहनियत का एक और सबूत दें। नेहरू-इंदिरा-राजीव को तुरत-फुरत भारतरत्न। पर सुभाष चंद्र बोस याद नहीं आए। नेताजी को भारतरत्न वाजपेयी ने दिया। यों अभी नेताजी का भारतरत्न किसी ने लिया नहीं। परिवार ने कहा- पहले नेताजी के बारे में खुलासा किया जाए। जहां तक बात खुलासे की। तो सरकारें बताती कम रही, छुपाती ज्यादा रही। किसी आयोग को सलीके से काम नहीं करने दिया। सूचना के अधिकार से खुलासा मांगा। तो भी खुलासे से इंकार। पर बात वाजपेयी को भारतरत्न की। आडवाणी ने भले ही दस खूबियां गिनाई। पर इनमें एक खूबी तो कांग्रेस को चुभी होगी। इमरजेंसी में लोकतंत्र की लड़ाई लड़ने वाली।
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