गुजरात के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का पलड़ा उसी दिन भारी हो गया था, जिस दिन कांग्रेस नरेंद्र मोदी के व्यक्तिगत विरोध पर उतर आई थी। चौदहवीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस ने मोदी को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया था, तो गुजरात में कांग्रेस की स्थिति में सुधार हुआ था। अलबत्ता विधानसभा क्षेत्रों के हिसाब से देखा जाए तो कांग्रेस 91 क्षेत्रों में जीती थी, जबकि भाजपा 89 क्षेत्रों में। इसका मतलब यह हुआ कि करीब साढ़े तीन साल पहले नरेंद्र मोदी का प्रभाव घटना शुरू हो गया था, लेकिन कांग्रेस ने हालात का फायदा उठाकर खुद को मजबूत करने की बजाए कमजोर कर लिया।
चुनाव नतीजों से पहले ही यह चर्चा शुरू हो गई कि गुजरात में न तो भाजपा जीतेगी, न हारेगी। जीतेंगे तो नरेंद्र मोदी, हारेंगे तो नरेंद्र मोदी।
यह चर्चा उन्हीं लोगों ने शुरू की जो पिछले पांच साल से नरेंद्र मोदी को हेय दृष्टि से देखते रहे हैं। इनमें अंग्रेजी मीडिया के साथ-साथ जमीनी हकीकत से कोसों दूर दिल्ली और मुम्बई में बैठकर गुजरात पर लिखने वाले लोग शामिल हैं। यह ठीक है कि नरेंद्र मोदी ने चुनाव में खुद को दांव पर लगाया, लेकिन यह भी सच है कि भाजपा के रणनीतिकारों ने प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही मोदी को मुद्दा बनाने का फैसला कर लिया था। केशुभाई समर्थकों को इसी रणनीति के तहत शुरू में ही अलग-थलग कर दिया गया था। भाजपा के लिए लगातार तीसरी बार गुजरात का चुनाव जीतना ज्यादा जरूरी था, भले ही इसके लिए केशुभाई पटेल जैसे पांच दशक पुराने नेताओं को दरकिनार करना पड़ा। चुनाव क्योंकि नरेंद्र मोदी को मुद्दा बनाकर लड़ा जाना था, इसलिए भाजपा के रणनीतिकारों को इंतजार सिर्फ इस बात का था कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की ओर से उन पर सीधा हमला हो। भले ही गुजरात से कोसों दूर बैठे मीडियाकर्मी यह समझते हों कि चुनाव हारता देख नरेंद्र मोदी ने गुजरात की अस्मिता और खुद को मुद्दा बना लिया। भाजपा के रणनीतिकार यह मानकर चल रहे थे कि सोनिया गांधी अपनी पहली चुनावी सभा में ही मोदी पर सीधा हमला करेंगी। पहली दिसम्बर को जैसे ही सोनिया गांधी ने मौत के सौदागर वाला भाषण दिया, मोदी के रणनीतिकारों ने उसी समय लपक लिया। भाषण की टेप अगले ही दिन चुनाव आयोग के दफ्तर में पहुंचाने के बाद मोदी ने सोहराबुद्दीन और मोहम्मद अफजल का राग अलापना शुरू कर दिया।भारतीय राजनीति में जब से सोनिया गांधी का उदय हुआ है
, तब से दो बड़े राजनीतिक दलों में विचारधारा की लड़ाई आपसी दुश्मनी में तब्दील हो चुकी है। इसका आभास तेरहवीं लोकसभा में सत्रावसान के समय अटल बिहारी वाजपेयी और सोनिया गांधी की ओर से होने वाले भाषणों से मिलना शुरू हो गया था। दुश्मनी जब सत्रावसान का मजा किरकिरा करने लगी तो सरकार की ओर से सदन के नेता और प्रतिपक्ष के नेता के भाषणों की परंपरा खत्म करने की पहल हुई। करीब पांच साल का इंतजार करने के बाद लाल कृष्ण आडवाणी ने हाल ही में राजनीतिक दुश्मनी का वातावरण खत्म करने के लिए राहुल गांधी को समझाने की पहल की है। आडवाणी की इस पहल का आने वाले समय में क्या असर पड़ेगा, राजनीतिक विश्लेषक इसे गंभीरता से देख रहे हैं। राजनीतिक प्रतिद्वंदी को दुश्मन मानकर राजनीति करने से कितना नुकसान हो सकता है, इसका अंदाज गुजरात के चुनाव नतीजों से लगाया जाएगा। नरेंद्र मोदी ने शुरू से अपने शासन के दौरान हुए विकास को मुद्दा बनाकर चुनाव प्रचार शुरू किया था, लेकिन इस चुनाव प्रचार से सार्थक नतीजे निकलने की उम्मीद टूटनी शुरू हो गई थी। मोदी इस बात का इंतजार ही कर रहे थे कि किसी तरह अपने पुराने कट्टरवादी हिंदुत्व के मुद्दे पर लौट सकें। सोनिया गांधी ने जैसे ही मुद्दा दिया, नरेंद्र मोदी ने खुद पर हुए हमले को गुजरात की अस्मिता के साथ जोड़ दिया। पिछले विधानसभा चुनावों में भी नरेंद्र मोदी गुजरात की अस्मिता को मुद्दा बनाकर गुजरातियों का मन जीतने में सफल रहे थे। भाजपा और शिवसेना को छोडक़र बाकी सभी राजनीतिक दलों ने गोधरा के बाद हुए दंगों को आधार बनाकर गुजरात की छवि खराब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। देश की ज्यादातर राजनीतिक पार्टियां इस हकीकत से अभी भी वाकिफ नहीं हैं कि गुजरात के दंगों में आम गुजराती शामिल हो गया था। उन दंगों को सरकार प्रायोजित दंगा बताकर और गोधरा में टे्रन के अंदर से लगी आग बताकर कांग्रेस और कांग्रेस के समर्थक दलों ने गुजरात की जनता को और उत्तेजित कर दिया। गोधरा में टे्रन जलाए जाने से हिंदुओं में इतना ज्यादा आक्रोश था कि खाते-पीते घरों के मध्यमवर्गीय लोग भी सड़कों पर उतर आए। कांग्रेस और कांग्रेस के समर्थक दलों ने दंगों को सरकार प्रायोजित बताकर गुजराती वोटरों को अपने साथ खींचने के बजाए खुद-ब-खुद नरेंद्र मोदी की ओर धकेल दिया। हालांकि हकीकत यह थी कि 27 फरवरी को बोगी जली थी और 28 फरवरी को पुलिस की गोली से तीन दंगई मारे गए थे। इस हकीकत को नजरअंदाज करके नरेंद्र मोदी और गुजरात की भाजपा सरकार को पिछले पांच सालों से मौत का सौदागर कहकर कांग्रेस अपना लगातार नुकसान कर रही है। कांग्रेस जब तक दंगों की हकीकत को नहीं समझेगी तब तक नरेंद्र मोदी का कुछ नहीं बिगाड़ सकेगी। असल में नरेंद्र मोदी की असली ताकत कांग्रेस की नीति है।
हालांकि पिछले पांच सालों में कम से कम ग्रामीण क्षेत्रों में वह अपनी लोकप्रियता खो चुके थे, जिसका सबूत पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजे हैं। लेकिन सोनिया गांधी ने उन्हें मौत का सौदागर कहकर और मनमोहन सिंह ने पांच साल पुराने दंगों के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए दंगों की पुरानी फाइलें फिर से खोलने की बात कहकर नरेंद्र मोदी का ही भला किया। इसके बाद नरेंद्र मोदी चुनावों में अपना 56 इंच का सीना फूलाकर सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह को चुनौती देते थे, तो अपने उन्हीं वोटरों का मन जीत रहे थे, जो 2002 के चुनाव में उनके साथ थे। वह गुजराती वोटरों को यह समझाने में सफल रहे कि कांग्रेस सत्ता में आ गई तो गुजरात में फिर से आए दिन दंगों और कर्फ्यू के दिन लौट आएंगे। चुनाव के आखिरी दिनों में कांग्रेस कमजोर दिखाई देने लगी तो कहा जाने लगा कि नरेंद्र मोदी पर भाजपा का कोई नियंत्रण नहीं, वह भाजपा से बड़े हो गए हैं। यह हताशा भरी वह स्थिति थी जिसमें कांग्रेस मोदी विरोधी भाजपाईयों का सक्रिय समर्थन हासिल करना चाहती थी।
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