शीत सत्र का भोग पड़ गया। यानी सत्रावसान हो गया। सत्रावसान के वक्त पीएम गायब थे। लोकसभा के नेता प्रणव दा भी होते। तो गनीमत थी। पर वह भी गायब। राज्यसभा में तो मनमोहन के साथ विपक्ष के नेता जसवंत सिंह भी गायब। संसद की ऐसी अनदेखी अपन ने पहले नहीं देखी। मनमोहन शाम को गुजरात जाते। तो पहाड़ नहीं टूट पड़ता। वैसे भी मनमोहन वोटरों को कितना प्रभावित करेंगे। किसी से छिपा नहीं। पर गुजरात की बात चली। तो बता दें- मनमोहन ने वहां क्या कहा।
बोले- 'गुजरात में विकास के दावे खोखले।' वैसे अपन सोनिया की रहनुमाई वाले राजीव ट्रस्ट की रपट याद दिलाएं। तो पीएम बुरा मान जाएंगे। पर आडवाणी ने याद कराया। उनने कहा- 'सोनिया के ट्रस्ट के अलावा योजना आयोग ने भी गुजरात को सबसे आगे कहा।' पर बात चली है तो अपन बताते जाएं। देश का इक्कीस फीसदी निर्यात सिर्फ गुजरात से। चिदंबरम की विकास दर नौ फीसदी से कम। पर गुजरात की विकास दर साढ़े दस फीसदी से ज्यादा। गुजरात को अलग कर दें। तो मनमोहन-चिदंबरम के दावे रेत के पहाड़ की तरह गिरेंगे। देश की विकास दर आठ फीसदी पर आ अटकेगी। मनमोहन की बात को अपन झूठ तो नहीं कहते। पर यशवंत सिन्हा ने सदन में झूठ बोलने पर नोटिस दे दिया। पर बात सत्रावसान की। अपन को तब के सत्रावसान भी याद। जब दोनों तरफ बेंचें भरी होती थी। वंदेमातरम् के वक्त हर सांसद हाजिर दिखता। वंदेमातरम् से संसद गूंज उठती। उससे पहले पीएम-नेता विपक्ष के भाषण होते। सत्र के गिले-शिकवे मिट जाते। पर जब सोनिया नेता विपक्ष बनी। तो यह परंपरा टूटी। वह किसी का लिखा-लिखाया भाषण पढ़ती। जिसमें वाजपेयी पर तीखे प्रहार होते। तो वाजपेयी ईंट का जवाब पत्थर से देते। माहौल बिगड़ने लगा। तो यह परंपरा तोड़नी पड़ी। स्पीकर-चेयरमैन के भाषण शुरू हुए। पर अब तो नेता विपक्ष समझदार। यह लोकतांत्रिक मेच्योरटी का ही सबूत। जो शुक्रवार को आडवाणी ने सोनिया को नसीहत दी- 'भड़काऊ बयानबाजी से बाज आएं। लोकतंत्र में विरोधी को दुश्मन नहीं समझना चाहिए।' याद है पहली दिसम्बर को सोनिया ने मोदी को मौत का सौदागर कहा। अगले दिन राहुल ने एयरपोर्ट पर आडवाणी से दुआ-सलाम की। तो यही नसीहत राहुल को भी दी थी। तब अपन ने लिखा था- 'उनने बेटे को सुनाकर मां को कहा हो। तो बड़ी बात नहीं।' पर बात सोनिया के भड़काऊ बयान की। मौजूदा टकराव की जड़ वही। न वह मोदी को मौत का सौदागर कहती। न मोदी जवाब में अफजल-सोहराबुद्दीन का मुद्दा उठाते। यों तो शुक्रवार को आडवाणी की प्रेस कांफ्रेंस सत्रावसान पर थी। पर अटक गई 'स्वर्गीय श्री सोहराबुद्दीन पर।' माफ करिए- चुनाव आयोग ने सोहराबुद्दीन को ऐसा ही सम्मान दिया। भले ही सोहराबुद्दीन मौत का सौदागर। आयोग को तो सोहराबुद्दीन को आतंकी कहने पर भी एतराज। इसी बात पर आडवाणी चुनाव आयोग पर भड़के हुए थे। उनने कहा- 'चुनाव आयोग ने सोनिया के बयान पर नोटिस क्यों नहीं भेजा। गुजरात बीजेपी ने दो दिसंबर को शिकायत की थी। आयोग जरा निष्पक्षता दिखाए। दोहरी नीति न अपनाए।' हू-ब-हू वही हुआ। जो अपन ने कल लिखा था। आयोग खुद शक के घेरे में। पिछली बार लिंगदोह थे। पर इस बार गोपालस्वामी। गोपालस्वामी की तैनाती खुद आडवाणी के हाथों हुई थी। सो आडवाणी को गुस्सा आएगा ही। पर गोपालस्वामी की लाचारी का जिक्र अपन कल भी कर चुके। नवीन चावला के साथ बीजेपी की खुन्नस पुरानी। चावला-कुरैशी की तैनाती यूपीए राज की। सोनिया ने एमएस गिल को सांसद बनाकर चुनाव आयुक्तों को झुनझुना दिखा दिया। सिर्फ सीईसी गिल क्यों। चीफ जस्टिस रंगनाथ मिश्र भी राज्यसभा भेजे गए। ऐसे में कोई कैसे करे इंसाफ और निष्पक्षता की उम्मीद।
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