मोदी की इस्रायल यात्रा ने बदल डाली कूटनीति 

Publsihed: 04.Jul.2017, 23:13

मोदी के इस्रायल जाने से कईयों के सीने पर सांप लौट रहा है | असादुद्दीन ओवेसी ,माजिद मेमन, सलमान खुर्शीद , आजमों , सलीमो , अब्दुल्लाहों ,अजमालों , मदनियों , बुखारियों , बरक्तियों और न जाने किस किस के बयान आ रहे हैं |  गांधी, नेहरु,इंदिरा की विदेश नीति भी इन्हीं के इशारों पर चल रही थी | खुद महात्मा गांधी इस्रायल को अलग देश बनाए जाने के खिलाफ थे | इस लिए भारत ने संयुक्त राष्ट्र में फलस्तीन के विभाजन का विरोध किया था | पर गांधी की हत्या के बाद ही संयुक्त राष्ट्र ने इस्रायल का प्रस्ताव पास कर दिया था | नेहरु तो इस्रायल को मान्यता देने को भी तैयार नहीं थे | वह तो अमेरिका के दबाव में मान्यता देनी पडी | भारत हिन्दू राष्ट्र तो नहीं है, पर इस्लामिक राष्ट्र भी नहीं है | पर विदेश नीति के मामले में भारत को इस्लामिक देश ही बनाया हुआ था | इस्रायल ने अपनी पाक और चीन विरोधी नीति के चलते भारत की हमेशा मदद की | 1962 , 1965 और 1971 में अमेरिका या सोवियत संघ ने नहीं | अलबता इस्रायल ने ही भारत को हथियार दिए थे | इस के बावजूद मुस्लिम वोट खिसकने के डर से इस्रायल से कभी कूटनीतिक रिश्ते नहीं बनाए | दूसरी तरफ आरएसएस हमेशा इस्रायल से सम्बन्ध बनाने का हिमायती रहा | सुब्रमन्यम स्वामी 1977 में मुम्बई से सांसद बने थे | वह मोरारजी देसाई के नजदीक आ गए थे | स्वामी ने मोरारजी पर नेहरु परिवार की फलस्तीन समर्थक नीति बदलने का दबाव बनाया | मोरारजी देसाई भी इस्रायल के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध बनाना चाहते थे | पर वह भी सरकार में सांझेदारों के डर से कुछ नहीं कर सके | हालांकि मोरारजी के वक्त इस्रायल के विदेशमंत्री ने भारत की सीक्रेट यात्रा की थी | स्वामी के बहनोई यहूदी हैं | इस लिए उन्हें इस्रायल को समझने में मदद मिली | स्वामी 1982 में इस्रायल जाने वाले पहले भारतीय राजनीतिग्य हैं | भारत-इस्रायल के रिश्ते के दरवाजे पहली बार 1990 में चंद्रशेखर सरकार के वक्त खुलने शुरू हुए | तब सुब्रमन्यम स्वामी केबिनेट मिनिस्टर थे | पर राजीन गांधी के समर्थन से चलने वाली सरकार ऐसा नहीं कर सकती थी | वैसे भी वह सरकार ज्यादा नहीं चली | बाद में जब 1991 में नरसिंह राव प्रधानमन्त्री बने | तब स्वामी को एक कमीशन का चेयरमैन बनाया गया | नरसिंह राव  ने स्वामी के एजेंडे  पर काम किया | इस्रायल के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित किए गए | 1993 में पहली बार दिल्ली में इस्रायल का दूतावास खुला | इस के बावजूद 25 साल तक कोई प्रधानमंत्री इस्रायल नहीं गया | कोई पीएम इस्रायल जा कर मुस्लिम वोटरों को खफा नहीं करना चाहता था | अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री  बनने पर पहली बार इस्रायल को तरजीह दी गई | लाल कृष्ण आडवाणी पहले गृहमंत्री थे, जो 13 जून 2000 में इस्राईल गए थे | एक तरफ कांग्रेस और नेहरु-गांधी परिवार इस्रायल से दूरी का हिमायती था | तो भाजपा  शुरू से ही इस्रायल के साथ बेहतर संबंधों की हिमायती रही है | वाजपेयी सरकार के वक्त आतंकवाद से निपटने के लिए भारत-इस्रायल की साझेदारी हुई थी | पर मनमोहन सरकार आते ही सम्बन्ध पटरी से उतर गए | हालांकि मनमोहन सरकार के विदेशमंत्री एसएम कृष्णा इस्रायल गए थे | संयोंग से एसएम कृष्णा भी अब भाजपा में हैं | वैसे मोदी सरकार की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज पहले भी इस्रायल जा चुकी हैं | वैसे तो मोदी भी गुजरात के मुख्यमंत्री रहते इस्रायल जा चुके थे | पर नरेंद्र मोदी न सिर्फ इस्रायल जाने वाले पहले पीएम बन गए | अलबता वह बलैंस बनाने के लिए फलस्तीन भी नहीं गए | इस्रायल ने खुले दिल से स्वागत किया | अपन ने भी भारत के प्रधानमंत्री के साथ कई विदेश यात्राएं की | पर इस तरह हवाई अड्डे पर किसी प्रधानमंत्री ने स्वागत समारोह नहीं रखा | हवाई अड्डे पर ही भव्य स्वागत समारोह | इस्रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्‍याहू के साथ सारे कैबिनेट मंत्री मौजूद थे | जहां उन ने मोदी को याद दिलाई संयुक्त राष्ट्र की पहली मुलाक़ात | याद दिलाया, जब मोदी ने कहा था -भारत इस्रायल संबंध सही दिशा में जाएंगे-  "एंड स्काई इज दी लिमिट |"  नेतन्‍याहू ने भारत-इस्रायल के स्पेस प्रोग्राम की याद दिला कर मोदी से कहा - "माय फ्रेंड स्काई इज नाट दि लिमिट |" नेतन्‍याहू ने हिन्दी में स्वागत किया-"आप का स्वागत है, मेरे दोस्त |" तो मोदी ने भी हिब्रू में आभार जताया | भले ही शुरुआती बातें बिजनेस और रिश्ते मजबूत करने की हुई | पर असली गठजोड़ तो आतंकवाद के खिलाफ गठबंधन का होना है | असली गठबंधन तो पाकिस्तान-चीन के खिलाफ होगा | ट्रम्प ने अभी अपनी इस्रायल नीति स्पष्ट नहीं की | ऐसे में इस्रायल-भारत का गठबंधन अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति के लिए बहुत महत्वपूर्ण होगा | 

 

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