अजय सेतिया / पंजाब के किसान आन्दोलन को पडौसी राज्यों राजस्थान , हरियाणा और उत्तर प्रदेश से भी समर्थन नहीं मिला तो बिहार , मध्य प्रदेश , छतीसगढ़ , झारखंड से क्या मिलना था | दक्षिण भारत और पश्चिम भारत के किसानों को तो समझ ही नहीं आ रहा कि पंजाब के किसान आन्दोलन कर क्यों रहे हैं , क्योंकि 95 प्रतिशत एमएसपी तो पंजाब हरियाणा के किसान ही हासिल करते हैं | आन्दोलन में पंजाब के किसानों के अलावा तीन शख्स ही दिखाई देते हैं कम्युनिस्ट पार्टी के लीडर हन्नान मौला, आम आदमी पार्टी से निकाल बाहर किए योगेन्द्र यादव , जिन का किसान और कृषि से कुछ लेना देना नहीं है | वह अपनी राजनीति चमकाने हर आन्दोलन में कूद पड़ते हैं | इन दोनों मूल रूप वामपंथी नस्ल के नेताओं के अलावा महेंद्र सिंह टिकैत के बेटे राकेश टिकैत दिखाई देते हैं , जिन्होंने पहले तीनों कानूनों के समर्थन में बाकायदा बयान जारी कर के कहा था कि किसानों की पुरानी मांगे पुरी हुई हैं |
महेंद्र सिंह टिकैत की तूती बोलती थी , वह केंद्र से लेकर यूपी सरकार को झुकाने की ताकत रखते थे , उन्होंने सरकारों को घुटने पर ला कर दिखाया भी था | जबकि टिकैत के बेटे राकेश सिंह और नरेश सिंह अपनी किसान नेता वाली छवि बचाए रखने के लिए नये कषि कानून की मुखालफत कर रहे हैं | पश्चिम उत्तर प्रदेश में बहुत कुछ बदल चुका है | गन्ने की वजह से पश्चिमी यूपी में आ रही समृद्धि अब किसानों को आंदोलनों से दूर कर रही है | यहां के गन्ना किसानों को नये कृषि कानून से कोई नुकसान होता नहीं दिख रहा है, जिसके चलते वहां के किसान इस आंदोलन से न सिर्फ दूरी बनाए हुए हैं, बल्कि यहां के किसान इस बात को नहीं समझ पा रहे कि टिकैत बंधु नये कृषि कानून का विरोध करने के लिए इतनी आगे क्यों निकल गए | हालात यह हैं कि टिकैत बंधु पंजाब-हरियाणा के आंदोलनकारी किसानों की हाथ की कठपुतली नजर आने लगे हैं |
टिकैत पंजाब के किसानों की कठपुतली बन गए हैं , तो पंजाब के किसान भी कम्युनिस्टों, नक्सलियों और शहरी नक्सलियों की कठपुतली बने हुए हैं | अपन ने कल के लेख में जिओ मोबाईल के 1500 से ज्यादा टावर नष्ट किए जाने का प्रमाण देते हुए लिखा था कि किसानों के आन्दोलन से नक्सलवाद की पदचाप साफ-साफ सुनाई दे रही है | पंजाब के मुख्यमंत्री अमरेन्द्र सिंह को समझ आ रहा है कि उन्होंने किसान आन्दोलन को हवा दे कर कितनी बड़ी गलती की है , क्योंकि इंदिरा गांधी ने पंजाब में नक्सलवाद को बड़ी मशक्त से विफल किया था | 1967 में बंगाल के नक्सलबाड़ी से नक्सली आंदोलन शुरू होते ही पंजाब में भी पहुंच गया था | पंजाब के वामपंथी नेताओं और वामपंथी विचारधारा के बुद्धिजीवियों ने नक्सलवाद को बौद्धिक संरक्षण दे कर हवा पानी दिया था | लेकिन राज्य सरकार ने हिंसा के शुरुआती चरण में ही नक्सली आंदोलन को बलपूर्वक कुचल दिया गया था , जिसमें 85 वामपंथी आतंकी मारे गए थे |
नक्सलियों का कोर ग्रुप एक दशक तक भूमिगत हो कर काम करता रहा , लेकिन 80 के दशक की शुरुआत में खालिस्तानी आतंकवाद के उभार के साथ सब कुछ बदल गया | वाम आंदोलन में गिरावट शुरू हुई और बहुत से नक्सलियों ने खालिस्तानी लबादा ओढ़ लिया | नक्सलवादी मामलों के जानकार राकेश सैन की एक रिपोर्ट के अनुसार इन चरमपंथी वामपंथियों ने बाद में राज्य के किसानों के बीच काम किया और अपनी यूनियनों का गठन किया | उन्होंने कर्ज के जाल, किसानों की आत्महत्या और कृषि मुआवजे के मुद्दों को खूब उठाया । उनका ज्यादातर आधार उन सिख किसानों के बीच है, जिनका वामपंथी विचारधारा से कोई खास लेना-देना नहीं है | पंजाब की करीब दर्जन भर किसान यूनियन वामपंथियों या चरम वामपंथियों की ओर से संचालित हैं |
सिख समाज में अलगाववाद, व्यवस्था के प्रति संदेह, भ्रमजाल फैलाने में इन चरम वामपंथी संगठनों का बहुत बड़ा हाथ है | इस काम में उनका साथ कठमुल्ला सिख संगठन व विदेशों में बैठे अलगाववादी तत्त्व देते रहे हैं | मौजूदा किसान आंदोलन में आंदोलनकारी जिस तरह अपनी जिद्द पर अड़े और कृषि कानूनों को लेकर जिस तरह की बेसिर-पैर की बातें कर रहे हैं उससे साफ है कि बहुत से किसान नेताओं का खेत और खेती से कोई लेना-देना नहीं | वे केवल किसानों को भड़का कर अपना उल्लू सीधा करने की फिराक में हैं |
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