अजय सेतिया / अपन पहले भी लिख चुके हैं कि मोदी सरकार के तीनों कृषि कानूनों में थोड़ी थोड़ी खामियां हैं , ये खामियां अध्यादेश जारी होने के बाद सामने आ गई थीं | इन खामियों का जिक्र करते हुए अपन ने 12 सितम्बर को लिखा था –“ कृषि से जुड़े अध्यादेशों से किसे फायदा “ अगले दिन फिर अपन ने लिखा-“ कांट्रेक्ट फार्मिंग कृषि आधारित उद्धोगों की बर्बादी “ , फिर जब बिल पास हुए तो अपन ने उस के उन पहलुओं का जिक्र भी 20 और 22 सितम्बर के कालमों में किया था , लेकिन क़ानू के सकारात्मक पहलुओं पर नकारात्मक पहलू हावी हो चुके थे | उतर भारत के करीब करीब सभी राज्यों में कानूनों का विरोध हो रहा था तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा वर्करों से कहा था कि वे जनता में जा कर लोगों को कानूनों के फायदे समझाए कि ये किसानों के हित में हैं | तब 26 सितम्बर को अपन ने लिखा था “ भाजपा वर्कर समझेगा तो समझाएगा |”
भाजपा का वर्कर न खुद समझ सका और न समझा सका , नतीजतन पंजाब , हरियाणा , उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड का किसान सडकों पर है | 26 और 27 नवम्बर को इन सभी राज्यों से दिल्ली आने वाली सडकें किसानों के दिल्ली कूच के चलते जाम हो चुकी थीं | किसानों को कांग्रेस , वामपंथी दलों , चौटाला की पार्टी , समाजवादी पार्टी और दिल्ली की आम आदमी पार्टी के साथ कृषि बिलों के मुद्दे पर एनडीए छोड़ने वाले अकाली दल का भी समर्थन है | पंजाब और दिल्ली की दो सरकारें खुलेआम किसानों के आन्दोलन को हवा दे रही हैं | पंजाब के मुख्यमंत्री अमरेन्द्र सिंह तो पंजाब के ग्रामीण किसानों और शहरी आढतियों की नाराजगी के चलते विधानसभा भंग कर के चुनाव करवाने का मुफीद मौक़ा भी समझते हैं | उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने के बाद से कोपभवन में बैठे नवजोत सिंह सिद्धू से दोस्ती का हाथ बढाते हुए दोपहर भोज पर बुला कर रणनीतिक चर्चा की |
भाजपा वर्कर तो क्या भाजपा नेतृत्व भी समझ नहीं पा रहा कि किसानों के आन्दोलन से कैसे निपटा जाए , किसान आन्दोलन को खालिस्तान समर्थक बताते हुए कहा गया कि कांग्रेस उसे समर्थन दे रही है | इस तरह किसानों को आतंकवादी कहना आन्दोलन को भडकाने वाला है | जबकि मौजूदा आन्दोलन में किसानों के साढे चार सौ के आसपास संगठन हैं | लोकतंत्र तो यही होता है कि संसद और विधानसभाओं में लोगों के हित में क़ानून बनाए जाते हैं , इस लिए जिन के लिए क़ानून बनाए जाने हों , उन से सलाह मशविरा जरुर किया जाना चाहिए | कृषि कानूनों के मामले में आरोप लग रहा है कि मोदी सरकार ने कारपोरेट घरानों के हित में कृषि क़ानून पास करवा लिया है | भारत के लोकतंत्र की यह सब से बड़ी खामी है कि चुनाव जीतने के बाद सरकार में राजनीतिक दलों और विषय के विशेषज्ञों की भूमिका नहीं रहती | सरकार ब्यूरोक्रेसी के इशारे पर चलती है , ब्यूरोक्रेसी ही बिल का ड्राफ्ट तैयार करती है , जो कि किसी भी विषय के विशेषग्य नहीं होते | आईएएस लाबी तक सिर्फ और सिर्फ कारपोरेट घरानों की पहुँच होती है |
कृषि कानूनों के जाल में भी मोदी सरकार को ब्यूरोक्रेसी ने फंसाया है | भारतीय लोकतंत्र में अगर राजनीतिक दलों की भूमिका होती तो भाजपा के किसान मोर्चे को ही तीनों बिल बनाने की भूमिका दी जाती , वे विभिन्न किसान संगठनों और विशेषज्ञों से बात कर ड्राफ्ट तैयार करते | कई बार लगता है कि यूपीए शाषण में बनाई गई एनएसी सही कदम था , जिस में जमीन से जुड़े कार्यकर्ता और विषयों के विशेषज्ञों को शामिल किया गया था , बिलों का ड्राफ्ट एनएसी ही तैयार करती थी | इस प्रक्रिया से सरकार में ब्यूरोक्रेसी की मनोपली खत्म की जा सकती है | अपन कृषि बिलों की गम्भीर खामियों पर ध्यान दें तो किसानों को कहीं भी अपनी फसल बेचने की आज़ादी देते समय न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा देना चाहिए था , क्योंकि किसानों की शिकायत तो हमेशा यही रही है कि उन्हें मंडियों में सरकार की ओर से घोषित समर्थन मूल्य नहीं मिलता और यह सौ फीसदी सच है | दक्षिण भारत में किसानों को यह शिकायत नहीं है , इस लिए वहां कोई आन्दोलन नहीं हो रहा |
सरकार अगर किसानों की आमदनी सच में दुगनी करना चाहती है तो उसे किसानों की इस प्रमुख मांग को तुरंत स्वीकार करना चाहिए | सरकारी एजेंसियां किसानों की ऊपज नहीं खरीदती , जिस कारण किसान आढती को उस के मनमाने भाव पर फसल बेचने को मजबूर होते हैं | उदाहरण के तौर पर मोटे धान का सरकारी समर्थन मूल्य 1868 रुपए है , लेकिन पंजाब से ले कर यूपी तक मंडी में 1500-1600 में धान खरीदी जाती है | समर्थन मूल्य कागजों में कुछ होता लेकिन मंडी में दो सौ ढ़ाई सौ रुपए कम में ही खरीदारी होती है , इस लिए इसे कानूनी बनाना जरूरी है | इसी तरह किसानों की हर फसल का न्यूनतम मूल्य घोषित करने की मांग भी मंजूर की जानी चाहिए |
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