लाल किले पर केसरिया

Publsihed: 27.Jan.2021, 10:58

अजय सेतिया / गणतंत्र दिवस पर जो कुछ दिल्ली में हुआ , वह होना ही था, इसके संकेत शुरू से मिल रहे थे । 26 नवंबर को हरियाणा से गुजरते हुए पंजाब के किसानों ने पुलिस के बैरिकेड तोडते हुए जो तांडव दिखाया था , वह संकेत काफी था । इससे पहले जिस तरह दो महीने तक पंजाब में ट्रेनें नहीं चलने दी गई थी तो वह संकेत भी काफी था । उसी समय जब इंटरनेट और मोबाइल फोन के 1500 से ज्यादा टावर तोड दिए गए थे तो वह संकेत भी काफी था । भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने ट्रैक्टर रैली से ठीक पहले देश और सरकार से वायदा किया था कि रैली शांतिपूर्वक होगी । वह शुरू से ही आंदोलन के पीछे खालिस्तानियों और कम्युनिस्टों नकस्लियों का हाथ होने का खंडन कर रहे थे । पंजाब से बाहर के वही एक किसान नेता थे , जो आंदोलन के पीछे किसी राजनीतिक साज़िश से इंकार करते हुए कहते थे कि यह आंदोलन को बदनाम करने की सरकारी साजिश है ।अब जब आज़ादी के बाद पहली बार आजादी के प्रतीक लालकिले पर हिंसक ट्रैक्टर रैली हो गई है , तो उन्होंने ही सब से पहले कहा कि कुछ राजनीतिक तत्वों ने रैली में घुस कर हिंसा की । जबकि अपन और अपन जैसे अनेकों पत्रकार लिख और कह रहे थे कि किसानों के कंधे पर बंदूक रखकर वामपंथियों की शाहीन बाग दोहराने की साज़िश है । 

किसानों ने जब योगेंद्र यादव को अपना चेहरा बना लिया था, अपन तब से कह रहे थे अब आंदोलन खत्म नहीं होगा , क्योंकि जहां योगेन्द्र यादव घुस गया वहां समाधान नहीं हो सकता । खुद को कभी बुद्धिजीवी तो कभी किसान बताने वाले योगेंद्र यादव की घुसपैठ होते ही तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की जिद शुरू हुई । पहले पंजाब के किसानों की पहली मांग एमएसपी को कानूनी दर्जा दिलाने की थी , दूसरी वरीयता कृषि कानूनों में सुधार करवाने की थी । अपन तो यह भी जानते हैं कि दसवें दौर की वार्ता के दौरान जब सरकार ने तीनों कृषि कानूनों को डेढ़ साल के लिए ठंडे बस्ते में डालने का प्रस्ताव रखा था तो ग्यारहवें दौर की बातचीत से पहले हुई किसान नेताओं की बैठक में ज्यादातर किसान नेता सहमत थे , लेकिन चिर आंदोलनकारी योगेन्द्र यादव ने सहमति नहीं होने दी । इस योगेन्द्र यादव ने भी शब्द चबा चबाकर कहा था कि ट्रैक्टर रैली शांतिपूर्वक होगी, अब वही कह रहा है कि लालकिले पर किसानों ने जो किया, उससे वह शर्मिंदा हैं। 

क्या आप इसमें समानता नहीं देखते कि शाहीन बाग में मुस्लिमों का अनिश्चितकालीन धरना संसद से पारित कानूनों के खिलाफ था और दिल्ली की सीमाओं पर पंजाब के किसानों का धरना भी संसद से पारित कानूनों के खिलाफ है । क्या आप इसमें समानता नहीं देखते कि जो कांग्रेस, कम्युनिस्ट,सपा, टीएमसी शाहीन बाग धरने का समर्थन कर रही थी , वही किसानों के धरने का समर्थन कर रहे हैं । क्या आप इसमें समानता नहीं देखते कि न नागरिकता संशोधन कानून मुसलमानों के खिलाफ था, न कृषि संबंधी कोई कानून किसानों के खिलाफ है , बल्कि बिचौलियों के खिलाफ है । किसान चाहें तो नए कृषि कानूनों का फायदा उठा सकते हैं, नहीं चाहें तो तीनों में से कोई भी कानून उन पर बाध्यकारी नहीं । क्या आप इसमें समानता नहीं देखते कि दुनिया भर में भारत को बदनाम करने के लिए 2020 में अमेरिकन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के भारत में दौरे के समय शाहीन बाग और दंगों की साजिश रची जाती है और 2021 में गणतंत्र दिवस पर आजादी के प्रतीक लालकिले पर कब्जा कर के केसरिया फहराने की साज़िश रची जाती है। क्या आप इसमें समानता नहीं देखते कि 2014 के बाद से हर सरकार विरोधी आंदोलन का चेहरा रहे जेएनयूवादी वामी योगेन्द्र यादव, अरूंधति राय, कविता कृष्णन , प्रशांत भूषण , हन्नान मौला , किसान आंदोलन को भी भटका रहे थे । यह बात तो उस दिन ही साफ हो गई थी जिस दिन किसान आंदोलन के मंच के सामने दिल्ली के दंगो के दोषी मुस्लिम वामपंथियों की रिहाई की मांग करने वाले पोस्टर दिखाए गए थे । 

अपन शुरू से लिख रहे थे कि कांग्रेस आग से खेल रही है । कांग्रेस ने ही भिंडरावाले को खडा किया था , अब कांग्रेस ही जाने-अनजाने पंजाब के किसानों को भड़का कर कनाडा , अमेरिका से खेल कर रहे खालिस्तानियों का मकसद पूरा कर रही है । पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने ही किसानों को भड़का कर दिल्ली भेजा था, अब लालकिले की घटना के बाद वही किसानों से बार्डर पर वापस लौटने की अपील कर रहे हैं।जब कनाडा के प्रधानमंत्री का किसान आंदोलन के समर्थन में बयान आया, तभी साफ था कि किसान आंदोलन के पीछे खालिस्तानियों का दिमाग काम कर रहा है, क्योंकि कनाडा में खालिस्तानियों की भरमार है । जैसे डेनमार्क जैसे देशों के प्रधानमंत्री मुस्लिम वोटों की खातिर उनके राजनीतिक तुष्टिकरण में लगे रहते हैं , उसी तरह वोट पोलिटिक्स के कारण कनाडा के प्रधानमंत्री ने खालिस्तानियों के तुष्टिकरण में वह बयान दिया था। क्या राकेश टिकैत जैसे नेताओं की आंखे तब नहीं खुलनी चाहिए थी, जब खालिस्तान की एक अमेरिकी संस्था ने किसान आंदोलन, केसरी ट्रैक्टर रैली का समर्थन करते हुए एलान किया था कि गणतंत्र दिवस पर जो इंडिया गेट पर खालिस्तान का झंडा फहराएगा उसे ढाई लाख डालर के साथ अमेरिका में राजनीतिक शरण दिला कर नागरिकता दिलाएंगे । उसी खालिस्तान समर्थक संगठन ने बाद में लालकिले पर केसरिया फहराने वाले को ईनाम का एलान किया था । क्या आंदोलनकारियों और सरकार की आंखे तब नहीं खुलनी चाहिए थी । शाहीन बाग और लालकिला जहां देश में बगावत और मोदी सरकार के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय साजिश का प्रमाण है, वहीं ये दोनों घटनाएं सरकार की विफलता के भी प्रतीक हैं। 

लालकिले पर केसरिया फहराया जाना , जिन लोगों को सुखद अनुभूति देता होगा , उन्हीं की सत्ता को चुनौती भी है । केसरिया अगर गुरू गोबिंद सिंह के अनुयाईयों का प्रतीक है, तो केसरिया हिंदुत्व का प्रतीक भी है । गुरू गोबिंद सिंह ने खालसा पंथ की संरचना हिंदुत्व की रक्षा करने के लिए ही की थी । भारत के वामपंथियों ने चीन के साथ साजिश रच कर नेपाल का हिंदू राष्ट्र खत्म करवा दिया , अब जब मोदी राज में भारत में हिंदुत्व उभार पर है , तो उन्ही वामपंथियों ने भारत में लालकिले पर केसरिया फहराने वालों का समर्थन कर के भारत को तोडने की भी साजिश रची हैं, लेकिन उन्हें याद रखना चाहिए कि सिख राजनीति धर्म पर आधारित होती है , जिसे वे अफीम कहते हैं । धार्मिक डेरों से अपने परंपरागत हथियारों के साथ निकलकर घोड़ों पर सवार हो कर लालकिले पर केसरिया फहराने वाले सिख निहंगों को यह भी समझ लेना चाहिए था कि वामपंथी उन्हें इस्तेमाल कर रहे हैं । लेकिन यह बात उन्हें न पहले सनझ आई थी, न अब आएगी , क्योंकि इतने बडे आंदोलन की सरकार को भनक तक नहीं थी, न ही सरकार का ट्रेक-टू उन्हें साजिश समझाने की कोशिश कर रहा है।

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