अजय सेतिया / महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा की सरकार तो बन गई , पर अब दोनों राज्यों की सरकारें बाहरी समर्थन पर टिकी हैं | इस दोनों राज्यों के चुनाव नतीजों की बारीकी से समीक्षा करने पर पता चलता है कि दोनों ही राज्यों में दलितों ने भाजपा का रथ रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है | कांग्रेस और वामपंथियों ने मिल कर हिन्दू एकता तोड़ने के लिए दलित समुदाय को निशाने पर लिया था | बाद में चल कर दलित मुस्लिम एकता के लिए भीम-मीम का नारा भी लगवाया गया | इस रणनीति की शुरुआत आंध्र प्रदेश में रोहित वेमूला की आत्महत्या से शुरू हुई थी | हालांकि पहले दिन ही यह पता चल गया था कि रोहित वैमूला की मां , जोकि खुद दलित थी, लेकिन उस ने शादी ओबीसी से की थी ,ने आरक्षण आदि का लाभ उठाने के लिए अपने बेटे का दलित सर्टिफिकेट बनवाया था | विश्वविद्यालय में उस की आत्महत्या को वामपंथी संगठनों ने मोदी सरकार को राष्ट्रव्यापी बदनाम करने के लिए हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया , लेकिन मोदी सरकार रोहित वैमूला के सच को जोरदार ढंग से पेश नहीं कर पाई , जिस कारण विपक्षी दल देश भर में दलितों में आक्रोश पैदा करने में कामयाब हो गए |
दलित आक्रोश की दूसरी बड़ी घटना भीमा-कोरेगांव में पुलिस फायरिंग की हुई , जो कि महाराष्ट्र में ही है | भीमा-कोरेगांव की हिंसा में एक दलित की मौत और करोड़ों की सम्पत्ति जल कर राख हो गई थी | इस घटना से विपक्षी दलों का दलित मराठा दरार पैदा करने का एजेंडा कामयाब रहा , जिस का असर इन चुनाव नतीजों में दिखाई दिया है , भाजपा और शिवसेना को नुकसान तो हुआ , लेकिन प्रकाश अम्बेडकर की पार्टी वंचित बहुजन अगाडी के कारण विपक्ष को इस का लाभ नहीं मिला | जबकि हरियाणा में दलितों की नाराजगी का सीधा लाभ कांग्रेस को मिला | हरियाणा में दलितों की नाराजगी का एक बड़ा कारण डेरा सच्चा सौदा के डेरा प्रमुख गुरमीत राम रहीम की गिरफ्तारी के समय पुलिस फायरिंग था | राम रहीम के ज्यादातर अनुआई दलित समुदाय से आते है | हालांकि राम रहीम को अदालत ने बलात्कार के आरोप में दोषी पाया था , लेकिन उन के अनुअईयों का मानना है कि भाजपा ने उन्हें दोषी करार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है | राम रहीम की गिरफ्तारी के बाद भडकी हिंसा में उस के 40 अनुआई मारे गए थे |
2014 में राम रहीम ने भाजपा को समर्थन दिया था , जो इस बार उन के दलित अनुअईयों की नाराजगी के कारण कांग्रेस को मिला | हम इस का अंदाज इस बात से लगा सकते हैं कि हरियाणा की 17 आरक्षित विधानसभा सीटों में से कांग्रेस को पिछली बार सिर्फ 4 सीटें मिलीं थी जबकि इस बार 7 आरक्षित सीटें मिलीं | उधर भाजपा को 9 आरक्षित सीटें मिली थी जो इस बार घट कर 5 हो गई , 2014 के मुकाबले 2019 के चुनाव में भाजपा की सिर्फ सात सीटें घटी हैं , जिन में से चार तो आरक्षित सीटें ही हैं | कांग्रेस को पिछली बार हरियाणा में 20.52 प्रतिशत वोट मिला था , इस बार बढ़ कर 28.10 प्रतिशत मिला है , इस में दलितों की कितनी भूमिका होगी , इस बात का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि 17 आरक्षित सीटों में से उसे 5 प्रतिशत ज्यादा वोट मिला है , अगर यही ट्रेंड सारे प्रदेश में रहा है तो भाजपा को बाकी तीन सीटें हरवाने में भी दलितों की ही भूमिका है |
उधर महाराष्ट्र में भी दलितों का भाजपा-शिवसेना विरोध जारी रहा , लेकिन कांग्रेस–एनसीपी इस विरोध का ज्यादा फायदा उठाने में कामयाब नहीं हुई , जिस कारण भाजपा-शिवसेना की सीटें तो घटीं , लेकिन कांग्रेस –एनसीपी की सीटें उतनी नहीं बढीं कि वे सत्ता तक पहुंचने में कामयाब होते | ओवैसी की पार्टी का प्रकाश आंबेडकर की दलित पार्टी से गठबंधन टूट गया था , जिस कारण कांग्रेस-एनसीपी को मुस्लिम वोटों का बड़े पैमाने पर और दलित वोटों का किसी हद तक ही लाभ हुआ | अगर कांग्रेस-एनसीपी और वंचित बहुजन अघाड़ी का गठबंधन हो जाता तो भाजपा-शिवसेना मिल कर बहुमत की मुश्किल होती क्योंकि कांग्रेस-एनसीपी को वंचित बहुजन अघाड़ी ने कम से कम 12 सीटों का नुक्सान पहुंचाया है |
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