अजय सेतिया/ तालिबान जैसी आतंकवादी और धार्मिक कट्टरवादी
सरकारों के साथ संबंध रखने के मुद्दे पर भारतीय
कूटनीतिज्ञ कहा करते थे कि “ट्रस्ट बट वेरीफाई” |
हालांकि तालिबान की वापसी अमेरिकी कूटनीतिज्ञों के
साथ समझौते के तहत हुई है , लेकिन यह समझौता
ऐसा नहीं था कि अमेरिकी फौज की रवानगी से पहले
ही वह हथियारों के बल पर कब्जा कर लेगा | बातचीत
सत्ता में हिस्सेदारी की हो रही थी और तालिबान ने
अमेरिका समर्थक सरकार को हथियारों के बल पर
उखाड़ फैंका | अमेरिका का समर्थन होने के बावजूद चुने
हुए राष्ट्रपति अशरफ गनी रातों रात ओमान भाग गए |
यह तय है कि बीस साल बाद अफगानिस्तान में
तालिबान की वापसी के बाद हालात पहले से भी
ज्यादा अविश्वसनीय होंगे , क्योंकि अब तालिबान उन
देशों के प्रति ज्यादा खूंखार हो सकता है , जिन्होंने
तालिबान सरकार को अपदस्थ करने में अमेरिका का
साथ दिया था | इस लिए भारत के रक्षा विशेषज्ञों का
मानना है कि अब “ट्रस्ट बट वेरीफाई” वाली कूटनीति से
भी ज्यादा सतर्कता की जरूरत पड़ेगी | अब नई नीति
अपनानी होगी , “वेरीफाई एंड ओनली देन ट्रस्ट” यानी
उनके रुख की पहले तस्दीक करें और फिर किसी बात
पर भरोसा करें | अमेरिका सत्ता हस्तांतरण की
कूटनीति में इसी लिए फेल हुआ क्योंकि उस ने बिना
वेरीफाई किए तालिबान पर ट्रस्ट किया | अमेरिकी
राष्ट्रपति जो बिडेन तो 14 अगस्त को भी कह रहे थे कि
अफगानिस्तान सरकार पर तालिबान का कब्जा नहीं
होगा , जबकि अगले ही दिन उन का कठपुतला राष्ट्रपति
अशरफ गनी भाग गया | इसलिए तालिबान के रुख को
लेकर भारत को फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाना होगा और
बेहद सतर्कता के साथ फैसले लेने होंगे |
तालिबान ने फिलहाल भारत के प्रति नरम रूख जरुर
अपनाया है , उस ने भारतीय दूतावास के कर्मचारियों
को अफगानिस्तान से निकलने दिया , हालांकि हवाई
अड्डे की तरफ बढ़ रहे भारतीय कर्मचारियों को रोक कर
उन का सारा सामान छीन लिया | तालिबान का भारत
के प्रति यह नरम रुख छलावा साबित होने की संभावना
ज्यादा है | संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत को
तालिबान के प्रति ऐसा कड़ा रूख नहीं अपनाना चाहिए
था कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को तालिबान सरकार को
मान्यता नहीं देनी चाहिए | जबकि अमेरिका , ब्रिटेन
और आस्ट्रेलिया ने भी तालिबान सरकार को मान्यता
नहीं देने जैसा कोई बयान नहीं दिया है | संकेत हैं की
चीन, रूस, ईरान, कत्तर , तुर्की और यहाँ तक कि
फिलहाल तालिबान की आलोचना कर रहा पाकिस्तान
भी आंतरिक दबाव में जल्द ही तालिबान सरकार को
मान्यता दे सकता है | अफगानिस्तान में तालिबान
सरकार आते ही जिस तरह लाहौर के लाल किले से
महाराजा रंजीत सिंह की प्रतिमा को तोड़ा गया है , उस
से पाकिस्तान में तालिबान के प्रभाव को समझा जा
सकता है |
अब मुस्लिम देशों का नया “इस्लामिक अमीरात” बनाने
की कोशिश होगी | इन इस्लामिक देशों में कट्टरपंथी
ताकतें शरिया के मुताबिक शासन करने वाले तालिबान
को समर्थन देने के लिए उतावले होंगे | पाकिस्तान,
बांग्लादेश या मलेशिया में भी इस्लामिक शरिया के
हिसाब से शासन की मांग उठ सकती है |
संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्टेंड के बावजूद तालिबान
अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त करने का प्रयास करेगा |
पाकिस्तान चीन का प्रॉक्सी है , पाकिस्तान चाह रहा है
कि अफगानिस्तान उसके प्रॉक्सी यानी मुखौटे वाली
सरकार काम करे | क्योंकि आतंकवाद के खिलाफ
अमेरिका का सहयोगी देश बनने के बावजूद वह
तालिबान को पूरी फंडिंग, ट्रेनिंग, हथियार और अन्य
तरह का लॉजिस्टिकल सपोर्ट देता रहा है | ऐसे में
भारत विरोधी नया खतरनाक गठजोड़ बनाने का प्रयास
होगा |
जब अमेरिका , ब्रिटेन और अन्य नाटो देश तालिबान से
सम्पर्क साधे हुए हैं , तो भारत को तालिबान का विरोध
करने की क्या पड़ी है | उस ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद
में ऐसा कड़ा रूख क्यों अपनाया | अपना मानना है की
विदेश मंत्रालय के अधिकारियों ने अफगानिस्तान के
बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पूरी तरह गुमराह
किया | इस के भयावह नतीजे हो सकते हैं , तालिबान
का अगला निशाना कश्मीर हो सकता है और वह खैबर
पास के रास्ते कश्मीर में घुसने की कोशिश कर सकता है
, ऐसे हालात में चीन और पाकिस्तान तालिबान की
मदद करेंगे | वास्तविकता यह है कि भारत के लिए
डिप्लोमैटिक स्पेस तेजी से सिकुड़ रहा है | ईरान,
श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल का रुख भी चीन की वजह
से भारत के प्रति ज्यादा उत्साहजनक नहीं है |
इसलिए बेहतर होगा कि भारत अपना रूख बदले और
तालिबान के साथ मुद्दों पर आधारित बातचीत शुरू
करे | तालिबान प्रवक्ता ने अफगानिस्तान में भारत की
ओर से इन्फ्रास्ट्रेक्चर , मेडिकल और शिक्षा क्षेत्र में किए
गए कार्यों की तारीफ़ की है , इसलिए भारत को इस
साकारात्मक रूख का फायदा उठाना चाहिए |
बातचीत शुरू करना चाहिए | भारत को अपने हितों
की प्राथमिकता के लिए मुद्दों पर आधारित बातचीत पर
ही फोकस करना चाहिए | हालांकि पाकिस्तान का
अफगान की नई सरकार में कितना और किस तरह का
दखल रहता है, इस बात पर भी यह काफी हद तक
निर्भर करेगा |
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