राजनीति के वे दिन और वाजपेयी

Publsihed: 16.Aug.2018, 15:07

अजय सेतिया / अटल बिहारी वाजपेयी जी से मेरी पहली मुलाक़ात 1977 में हुई थी | आपातस्थिति खत्म हुई थी, एक एक कर नेताओं की रिहाई हो रही थी | मैं तब सिर्फ 21 साल का था , मुझे वाजपेयी की जनसभा का मंच संचालन करने का मौक़ा मिला था | 15 साल बाद उन दिनों मैं दिल्ली में दैनिक भास्कर का विशेष संवाददाता बन कर जब उन से मिला, तब से उन के साथ निरंतर सम्बन्ध बना रहा | तब तक भास्कर अटल बिहारी वाजपेयी की कर्मभूमि मध्यप्रदेश तक सीमित था , 1996 में जब भास्कर मध्यप्रदेश से बाहर निकल कर जयपुर से शुरू होना था , तब संस्थान की ओर से वाजपेयी जी को उद्घाटन के लिए राजी करने की जिम्मेदारी मुझे दी गई थी | जब मैं उन्हें मिलने गया तो राजस्थान के मुख्यमंत्री भैरोसिंह शेखावत उन के सामने बैठे थे | ( आजकल यह संभव ही नहीं है कि वाजपेयी के कद का कोई नेता किसी प्रादेशिक मुख्यमंत्री से मिल रहा हो, तो कोई कमरे के नजदीक भी फटक सके , कमरे में घुसना तो दूर की बात ) खैर वाजपेयी तो आसानी से तैयार हो गए थे, पर भैरोसिंह जी ने तुरंत टोकते हुए कहा कि उन की इजाजत के बिना वाजपेयी जयपुर कैसे आ जाएंगे | तब वाजपेयी ने शर्त रख दी कि भैरोसिंह जी की हामी हो तो वह जाएंगे | क्या आजकल भाजपा या कांग्रेस की राजनीति में कोई मुख्यमंत्री अपने राष्ट्रीय नेता के साथ इस तरह बात कर सकता है | वह वाजपेयी ही थे और उन के जमाने की राजनीति ही थी कि पार्टी के हर स्तर के नेता और कार्यकर्ता को तव्वजो दी जाती थी |

पर जब वाजपेयी जी जयपुर में उद्घाटन करने पहुंचे, तब तक मैं पाला बदल चुका था | एक दिन संसद के कारिडार में वाजपेयी जी से सामना हुआ , तो उन्होंने पूछा कि तुम तो जयपुर में मिले नहीं | तब मैंने उन्हें बताया कि मैं राजस्थान के सब से पुराने अखबार दैनिक नवज्योति में ज्वाईन कर चुका हूँ | वाजपेयी उन दिनों आईएनएस बिल्डिंग के करीब ही रायसीना रोड पर रहते थे , तो कभी भी जा कर आसानी से मिलना हो जाता था | वाजपेयी जी का कद उस समय भी बहुत बड़ा था , वः 1977 के जनता राज में विदेश मंत्री रह चुके थे , लेकिन उन से मिलना बहुत आसान था | वह जब जब भाजपा के अध्यक्ष बने मीडिया वालों के लिए दरवाजे हमेशा खुले रहते थे | अटल जी और आडवाणी जी जब भाजपा के अध्यक्ष होते थे और पत्रकार मिलने पहुंच जाते थे , तो कभी ऐसा नहीं हुआ कि वे खाली हों और मिलने से इनकार किया हो | आज भाजपा और कांग्रेस के अध्यक्षों को मिलना बेहद मुश्किल हो गया है | एक बार मैंने एक खबर पर कमेन्ट लेने के लिए वाजपेयी जी से मिलने के लिए शिव कुमार को फोन किया था , लेकिन फोन खुद वाजपेयी जी ने उठाया | उस दिन वह कुछ ज्यादा ही मूड में थे | मैंने उन से खबर पर टिप्पणी माँगी, तो उन्होंने कहा – “ पहले कविता सुनों |” और उन्होंने फोन पर अपनी एक कविता सुना डाली | सम्बन्धों में कितनी सरलता थी | 

2014 तक प्रधानमंत्री अपने विदेश दौरों में देश भर के मीडिया प्रतिनिधियों को अपने साथ ले जाते थे , जिस से उन्हें राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पत्रकारों के नजरिए से जमीनी हकीकत से रू-ब-रू होने का मौक़ा मिलता था | 2002 में जब नवज्योति के सम्पादक दीनबन्धु चौधरी जी ने मुझे प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के इंग्लैण्ड , डेनमार्क और साईप्रेस दौरे में नवज्योति की ओर से उन की मीडिया टीम में शामिल होने को कहा तो मेरे लिए सुखद अनुभूति थी | रास्ते में वाजपेयी जी एक एक पत्रकार को अपने कैबिन में बुला कर कुछ मिनट के लिए वन-टू-वन मुलाक़ात कर रहे थे , जब मुझे केबिन में बुलाया गया , तो मैं 1977 का वह फोटो अपने साथ ले गया जिसमें मैं उन के साथ खडा था | मैंने जब उन को वह 25 साल पुराना फोटो दिखाया तो उन्होंने मुझे और फोटो को दो बार देखा और फिर 1977 की बातों का सिलसिला शुरू हुआ , जो समय की पाबंदी के कारण तीन चार मिनट ही चल पाया | जब वह प्रधानमंत्री थे , तो गाहे-ब-गाहे पत्रकारों को भोज पर बुला लिया करते थे | मुझे ऐसी दो-तीन मुलाकातें याद हैं , जिन में 7 रेसकोर्स में वाजपेयी दो-तीन घंटे पत्रकारों के साथ खाते-पीते हंसते-हंसाते बिताया करते थे | प्रधानमंत्रियों के साथ इस तरह की घंटों चलने वाली मुलाकातों का सिलसिला वाजपेयी के बाद पूरी तरह खत्म हो चुका है | वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे , तो संसद के कारिडोर से गुजरते हुए पत्रकारों को देख लेते थे , तो सुरक्षा घेरे की मर्यादा को तोड़ कर उन से मिलते थे और हालचाल पूछते थे, मन हो तो सवाल का जवाब भी दे देते थे | मनमोहन सिंह के बाद से संवाद का यह सिलसिला टूटा तो फिर टूट ही गया | वह वाजपेयी का जमाना था , तब लोकतंत्र की सारी खिड़कियाँ खुली रहती थीं |   

इस वक्त के लिए श्रद्धेय अटल जी की एक कविता मौजू है

ठन गई! मौत से ठन गई!

जूझने का मेरा इरादा न था,

किसी मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,

रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,

यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।

मौत की उम्र क्या ?

दो पल भी नहीं,

ज़िन्दगी सिलसिला,

आज कल की नहीं।

मैं जी भर जिया,

मैं मन से मरूँ,

लौटकर आऊँगा,

कूच से क्यों डरूँ?

तू दबे पाँव,

चोरी-छिपे से न आ,

सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।

मौत से बेख़बर,

ज़िन्दगी का सफ़र,

शाम हर सुरमई,

रात बंसी का स्वर।

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,

दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।

प्यार इतना परायों से मुझको मिला,

न सगों से रहा कोई बाक़ी गिला।

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,

आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।

आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,

नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।

पार पाने का क़ायम मगर हौसला,

देख तूफ़ाँ का तेवर,

नदी तन गई।

मौत से ठन गयी!! मौत से ठन गयी!!

 

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