अजय सेतिया / अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन ने 30 अगस्त तक अमेरिकी और नाटो फौजों की अफगानिस्तान से वापसी की घोषणा की थी | जिस दिन यह घोषणा हुई , उसी दिन से तालिबानियों ने अपनी वापसी का एकतरफा एलान कर के प्रान्तों पर कब्जे शुरू कर दिए | नाटो फौजों की वापसी के एलान के बाद लाचार अफगानिस्तान सरकार ने तालिबानियों से सत्ता में हिस्सेदारी की पेशकश की | कतर की राजधानी दोहा में अफगान सरकार और तालिबानियों में बातचीत शुरू हुई थी , 12 अगस्त को विफल हो गई और उस के दो दिन के भीतर तालिबान ने लगभग पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया |
अमेरिका की 20 साल की मेहमत पर तालिबान ने 20 दिन में पानी फेर दिया | इस तरह मरने के बाद भी ओसामा बिन लादेन जीत गया और महाशक्ति अमेरिका अपने ढाई हजार सैनिक गवां कर और 20 हजार से ज्यादा सैनिकों को गंभीर हालत में अमेरिका वापस ले जा कर हार गया |
इस से पहले दस साल तक अपने कब्जे के बाद सोवियत संघ भी तालिबान से मात खा कर 1989 को इसी तरह लौटा था |
अपने दस साल के कम्युनिस्ट विरोधी गुरिल्ला युद्ध में मुजाहिदीन ने सोवियत संघ के 15 हजार से ज्यादा सैनिक मार दिए थे | सोवियत सेना ने सैकड़ों विमान और अरबों की अन्य सैन्य मशीनें भी गवाईं । युद्ध में लगभग 20 लाख अफगान पुरुष, महिलाएं और बच्चे मारे गए थे |मुजाहिदीनों से मात खा कर 15 फरवरी 1989 को सोवियत फौजें वापस लौट गई और तीन साल बाद 1992 में अफगानिस्तान में तालिबान सरकार का गठन हो गया |
तब अफगानिस्तान की सोवियत समर्थक कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ पाकिस्तान मुजाहिद्दीन की मदद कर था | इसलिए अमेरिका के रीगन प्रशासन ने अफगानिस्तान से सोवियत संघ के कब्जे को समाप्त करने में पाकिस्तान की आर्थिक और सैन्य साजो सामान की मदद की | अब जब अमेरिका पर हुए 26/11 के आतंकी हमले के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला बोलने की रणनीति अपनाई , तो अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भारत को अपना सहयोगी देश बनाने की बजाए पाकिस्तान पर ज्यादा भरोसा किया था | लेकिन पिछले बीस साल पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के नाम पर अमेरिका से पैसा ले कर तालिबान की ही मदद करता रहा है | जिस ओसामा बिन लादेन को अमेरिका तोला बोरा की पहाड़ियों में ढूंढ रहा था , वह पाकिस्तान में ही शरण लिए हुए थे | अमेरिकी फ़ौज ने उसे पाकिस्तान में घुस कर ही मौत के घाट उतारा |
आस्तीन के सांप पाकिस्तान की वजह से पिछले बीस सालों में तालिबान से सीधे लड़ने या तालिबान से लड़ने के लिए अफगान बलों को प्रशिक्षण देने में लगभग एक ट्रिलियन डॉलर , जो भारतीय करंसी के मुताबिक़ 74 खरब से भी ज्यादा बनता है , खर्च कर के अमेरिका 20 दिन में जंग हार गया |
पिछले बीस साल में तालिबान की सूरत भी बदली है , बीस साल पहले तालिबान की फौजें अमेरिकी फौजों से पुराने हथियारों से लड़ रहीं थी , लेकिन पिछले बीस दिनों में देखा गया कि उन के पास बेहद आधुनिक हथियार और वाहन मौजूद हैं | चप्पे चप्पे पर नाटो फौजों की मौजूदगी के बावजूद यह पाकिस्तान की मदद से ही संभव हुआ , नाटो फौजों से युद्ध में हताहत तालिबान के सारे लीडर पाकिस्तान में ही अपना इलाज करवाने आते थे | दुनिया भर के बाकी मुस्लिम देशों ने भी तालिबान को बेहिसाब मदद की थी |
2016 में फ़ोर्ब्स ने खुलासा किया था कि तालिबान का वार्षिक कारोबार 400 मिलियन डालर है | उस की कमाई का स्रोत नशीले पदार्थों की तस्करी , सुरक्षा देने के नाम पर कारोबारियों से की गई उगाही और विदेशों से मिलने वाला दान था | नाटो की एक गोपनीय रिपोर्ट के अनुसार पिछले वित्त वर्ष 2019-20 में तालिबान का वार्षिक बजट 1.6 बिलियन डॉलर था | उसी वित्तीय वर्ष में, अफगानिस्तान सरकार का आधिकारिक बजट5.5 बिलियन डालर था |
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