अजय सेतिया / मोंत्गू-चेम्सफोर्ड कमेटी के भारतीय शासन प्रणाली में बदलाव के सुझावों के अनुरूप 1919 में “कानुन्सिल आफ स्टेट “ का गठन किया गया था | तब “कानुन्सिल आफ स्टेट” के 60 सदस्य थे, जिन में से 34 भारतीय सम्भ्रान्त परिवारों से चुने जाते थे | जब भारत का संविधान बन रहा था तो इस सदन की जरूरत पर बहस हुई थी | संविधान सभा के कुछ सदस्यों का मानना था कि राज्यसभा की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि यह बिला-वजह कानूनों के निर्माण में विलम्ब पैदा करेगी , लेकिन इस दलील को नहीं माना गया | बाद में राज्यसभा के पहले चेयरमैन के नाते डाक्टर सर्वपल्ली राधा कृष्णन ने एक बार कहा था कि आम धारणा यह कि यह सदन न सरकार बना सकता है, न गिरा सकता है , इसलिए यह एक दिखावटी शानदार सदन है , लेकिन उन का मानना है कि कानूनों के निर्माण यह सदन महत्वपूर्ण भूमिका सकता है , यह सदन न सिर्फ विधाई है , बल्कि विचारशील बहस करने वाला सदन भी है | लब्बोलुबाब यह था कि यह सदन के सदस्यों पर निर्भर करेगा कि वह विचारशील भूमिका निभा कर कानूनों के निर्माण में कैसी और कितनी भूमिका निभाते हैं |
अपना मानना है कि राजनीतिक दलों में हाई कमान प्रणाली और दलबदल क़ानून ने राज्यसभा को पूरी तरह महत्वहीन बना दिया है | इस के बाद राजनेताओं के लिए किसी भी राज्य से चुनाव लड़ने की छूट वाले क़ानून ने राज्यसभा की मूल अवधारणा को ही खत्म कर दिया | संसद के दोनों सदनों से पारित मोटर परिचालन क़ानून के संशोधन से पैदा हुई दुश्वारियों ने राज्यसभा के पंगु बन जाने का पुख्ता सबूत दिया है | राजनीतिक प्रतिबद्धता को दरकिनार करते हुए अनेक राज्य सरकारों ने इस क़ानून को मानने से इनकार कर दिया है | महत्वपूर्ण सवाल यह पैदा होता है कि जिन राज्य सरकारों ने संसद से पारित क़ानून को जस का तस लागू करने से इनकार कर दिया है , उन राज्यों के राज्यसभा सांसदों की बिल पास होते समय क्या भूमिका थी | क्या संसद का क़ानून मानने से इनकार करने वाले गुजरात, उत्तराखंड और कर्नाटक के भाजपा राज्यसभा सदस्यों ने अपने राज्यों के मुख्यमंत्रियों से सलाह मशविरा कर के बिल का समर्थन किया था | इन राज्यों के राज्यसभा सांसदों ने अपने अपने राज्यों की जनता की भावनाओं का ध्यान रखा या नहीं , या बाकी बिलों पर वोट करते समय भी अपने राज्यों और उस के नागरिकों के हित ध्यान में रखते हैं | अपना मानना है कि राजनीतिक दलों में हाई कमान प्रणाली और दलबदल क़ानून के तहत व्हिप ने राज्यसभा सांसदों को पूरी तरह महत्वहीन बना दिया है और वे अपने राज्य और राज्य के नागरिकों की आवाज उठाने में असमर्थ हो गए हैं | इस लिए राज्यसभा अपना महत्व खो चुकी है |
संशोधित परिवहन क़ानून के खिलाफ देश भर में हो रहे विरोध का दूसरा राजनीतिक पहलू भी राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय बनना शुरू हो गया है | गुजरात की ओर से क़ानून को नहीं मानने की शुरुआत होने के कारण राजनीतिक सवाल खड़े हो रहे हैं कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस बिल पर सहमति नहीं थी | क्या उन्होंने परिवहन मंत्री नितिन गडकरी की जिद्द के चलते बिल पास करवाया और इसी के चलते भाजपा की राज्य सरकारें ही क़ानून को ठेंगा दिखा रही हैं | संसद से पारित क़ानून को न मानने वाला दूसरा राज्य उत्तराखंड भी भाजपा शासित है और तीसरा राज्य कर्नाटक भी भाजपा शासित | बिल की मंजूरी खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई केबिनेट ने दी थी और भाजपा संसदीय दल ने बिल पास करवाने के लिए व्हिप जारी किया था | अब अपनी राज्य सरकारों के विरोध के आगे नितिन गडकरी अकेले ही संशोधित परिवहन क़ानून का बचाव कर रहे हैं | ऐसी ही स्थिति से उन्हें 2013 में भी गुजरना पड़ा था , जब उन का दुबारा भाजपा अध्यक्ष चुना जाना तय था और अचानक उन के खिलाफ सीबीआई, ईडी के तथाकथित छापों की खबर फैला दी गई थी , जो कभी पड़े ही नहीं थे |
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