अजय सेतिया / कोरोना काल में संसद का मानसून सत्र टाला भी जा सकता था | इसे करने की दो वजहें बताई गई हैं , पहली तो यह कि छह महीने अंतराल में संसद की बैठक होना लाजिमी होता है , दूसरा यह कि इस बीच 23 मार्च के बाद जितने भी अध्यादेश जारी हुए हैं , उन की अवधि भी छह महीने होती है , अगर वे संसद से पास करवा कर क़ानून का रूप नहीं लेंगे तो खत्म हो जाएंगे | अपना मानना है कि सर्वदलीय बैठक में सहमती बना कर सत्र को आने वाले छह महीने के लिए टाला जा सकता था , सर्वदलीय बैठक में सहमति बना कर केबिनेट राष्ट्रपति को इस आशय की अधिसूचना जारी करने का आग्रह करती | छह महीने की अवधि में अध्यादेश अप्रभावी रहने की स्थिति भी कोई पहली बार नहीं आई , अनेकों बार पहले भी उन अध्यादेशों को दुबारा जारी किया गया है |
खैर अब 14 सितम्बर से संसद का सत्र हो ही रहा है तो उन अध्यादेशों की समीक्षा करनी चाहिए , जो 23 मार्च के बाद जारी किए गए हैं | ऐसे कुल बारह अध्यादेश हैं , लेकिन अपन आज सिर्फ किसानों और कृषि से सम्बन्धित तीन अध्यादेशों की चर्चा करेंगे | ये तीनों अध्यादेश 3 जून को जारी हुए थे | पहला, आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 में संशोधन | जिसके जरिये खाद्य पदार्थों की जमाखोरी पर लगा प्रतिबंध हटा दिया गया | इसका मतलब है कि अब व्यापारी असीमित मात्रा में अनाज, दालें, तिलहन, खाद्य तेल प्याज और आलू को इकट्ठा करके रख सकते हैं | दूसरा, कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश, 2020 | इसका उद्देश्य कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी मंडियों) के बाहर भी कृषि उत्पाद बेचने और खरीदने की व्यवस्था तैयार करना है | यानी किसान देश में कहीं भी अपनी उपज बेच सकता है | तीसरा, मूल्य आश्वासन पर किसान (बंदोबस्ती और सुरक्षा) समझौता और कृषि सेवा अध्यादेश, 2020 | यह अध्यादेश कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के दरवाजे खोलता है | जिस से बड़े बिजनेस घराने और कंपनियां कॉन्ट्रैक्ट पर जमीन लेकर खेती कर सकेंगी |
जहां तक पहले अध्यादेश आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन का सवाल है , तो ज्यादातर लोग इसे वक्त की जरूरत बताते हैं | क्योंकि यह 1950 का तब का क़ानून है , जब देश खाद्य संकट से जूझ रहा था | अब कम से कम कृषि क्षेत्र में भारत आत्मनिर्भर है और आपातकालीन स्थिति को छोड़कर खाद्य पदार्थों को जमा करने पर रोक लगाने का कोई मतलब नहीं | इसकी वजह से कृषि उत्पादों के बाजार मूल्य में गिरावट आने की आशंका नहीं है | दूसरा अध्यादेश किसानों को देश में कहीं भी अपनी उपज बेचने का रास्ता खोलने वाला है | यानी एपीएमसी मंडियों के बाहर खरीद-फरोख्त की छूट | लेकिन कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि यह एपीएमसी की व्यवस्था खत्म करने की कोशिश है, जहां करीब-करीब न्यूनतम मूल्य यानी एमएसपी के बराबर किसानों को मूल्य मिल जाता था |
अध्यादेश के अंतर्गत एपीएमसी मंडियों के बाहर उपज की बिक्री और खरीद पर कोई राज्य कर नहीं लगेगा , लेकिन एपीएमसी मंडियों में टैक्स जारी रहेगा | आलोचकों की इस आशंका में तर्क है कि इस से किसानों को तो कोई फायदा नहीं होगा , लेकिन व्यापारियों को जरुर फायदा होगा क्योंकि व्यापारी एपीएमसी मंडियों से बाहर खरीददारी करेंगे जहां उन्हें टैक्स नहीं देना पड़ेगा | धीरे धीरे एपीएमसी मंडियां खत्म हो जाएंगी और जब मंडियां खत्म हो जाएँगी तो व्यापारी मनमुताबिक कीमतों पर किसानों से खरीददारी करेंगे, जो निश्चित ही एमएसपी से कम होगी | लेकिन अनेक विशेषज्ञों ने इस अध्यादेश को किसानों के हित में बताया है हालांकि छोटे और मध्यम किसान को इस का कोई फायदा होने की कोई सम्भावना नहीं है , अच्छा होता कि अध्यादेश में यह भी जुड़ा होता कि खरीदारी किसी भी कीमत पर एम्एसपी से कम नहीं होगी | तीसरा अध्यादेश सब से ज्यादा विवादास्पद है , अपन उस पर कल लिखेंगे | ( जारी ) कांट्रेक्ट फार्मिंग कृषि आधारित उद्धोगों की बर्बादी |
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