अजय सेतिया / अपन इस मुद्दे पर गाहे-ब-गाहे लिखते ही रहे हैं कि विधायिका , कार्यपालिका और न्यायपालिका को अपने अपने हदूद में रहना चाहिए , लोकतंत्र तभी कायम और सफल होगा | लोकतंत्र को धरातल पर लागू करने का काम 15 अगस्त 1947 से ही शुरू होना चाहिए था | उस से पहले देश में लोकतंत्र लागू नहीं था , चुनी हुई विधानसभाएं जरुर थीं , लेकिन उन का काम सिर्फ सिफारिशें करना था | हुकुमत तो अंग्रेजों की ही चलती थी , कार्यपालिका अंग्रेजों के ही हुकुम मानती थी , चुनी हुई राज्य सरकारों के नहीं | इस लिए वास्तव में आज़ादी मिलने के बाद लोकतंत्र का असली स्वरूप सामने आना चाहिए था और कार्यपालिका को चुनी हुई सरकार और चुने हुए नुमाईन्दों का हुकुम बजाना चाहिए था , तब लोकतंत्र कायम होता | लेकिन जवाहर लाल नेहरु ने अपने हुकुम मानने को ही लोकतंत्र समझ लिया | नतीजा यह है कि चुने हुए बाकी नुमाईंदे आज तक लोकतंत्र का असली स्वरूप नहीं देख सके |
गांधी जिस ग्राम स्वराज की बात करते थे , वह था असली लोकतंत्र , धरातल पर ठीक उस के उल्ट हुआ है | गांधी की हर उस रोज हत्या होती है , जब कोई चुना हुआ पंच या सरपंच डीएम के हाथों निलम्बित और बर्खास्त होता है | लोकतंत्र मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री तक सीमित हो कर रह गया है | मुख्यमंत्री के इशारे पर सरकारी कर्मचारी चुने हुए विधायक का अपमान करते हैं , और प्रधानमंत्री के इशारे पर आईएएस अफसर सांसदों का | अब तो मंत्री भी अदने हो गए हैं , उन्हीं का सचिव उन को अँधेरे में रख कर सीधे मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री से आदेश लेता है | प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बाद में उन्हें चुनाव आयुक्त , सूचना आयुक्त, आयोगों के अध्यक्ष पदों की रेवड़ियां बांटते हैं | उन्होंने अपनी नियुक्तियों के लिए इस तरह के क़ानून बनवा लिए हैं |
सच यह है कि मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्रियों ने इस लोकतंत्र को फेल किया है | कार्यपालिका आज भी ब्रिटिश हुकुमत की तरह लोकतंत्र को कैद किए हुए है | अंग्रेजों के बनाए हुए नियमों और कार्यपद्धति का हवाला दे कर प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के आदेशों को नकार देने के भी कई उदाहरण मिल जाएंगे | एक उदाहरण देता हूँ , एक प्रधानमंत्री का प्रेस नोट बनाने वाला एक मराठी था , उस के हिन्दी प्रेस नोट में मराठी पुट आ जाता था , उन्होंने हिन्दी का मौलिक लेखक चुना , लेकिन ब्यूरोक्रेसी ने नियमों , कायदों और परम्पराओं का हवाला दे कर उस ग्रेड में नियुक्ति नहीं होने दी , जो उस का कद था , अंतत: प्रधानमंत्री उन्हें नियुक्त नहीं कर सके थे |
आज़ादी के बाद से ही चुनी हुई सरकार पर कार्यपालिका हावी होती चली गई | अब जैसा करोगे , वैसा भरोगे वाली कहावत चरितार्थ हो रही है | धीरे धीरे विधायिका और कार्यपालिका पर न्यायपालिका हावी हो गई है | नरसिंह राव की लापरवाही के कारण न्यायपालिका ने जजों की नियुक्ति का अधिकार अपने हाथ में ले ही लिया है | मोदी ने इसे दुरुस्त करने के लिए बाकायदा संविधान संशोधन कर के
हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए छह सदस्यीय आयोग बनाने की व्यवस्था की थी | जिस में सुप्रीमकोर्ट के चीफ जस्टिस के अलावा दो वरिष्ट जज , दो जानी मानी हस्तियाँ और केन्द्रीय क़ानून मंत्री शामिल होते | जानी मानी हस्तियों का चयन न्यायपालिका , प्रधानमंत्री और लोकसभा में सब से बड़े विपक्षी दल के नेता की सलाह से होना था | लेकिन सुप्रीमकोर्ट ने इस संविधान संशोधन को खारिज कर के संसद पर अपनी सर्वोच्चता का झंडा गाड दिया , जिसे संसद इस लिए नहीं उखाड़ सकी क्योंकि पहले संशोधन का समर्थन करने वाली कांग्रेस बाद में दुबारा संशोधन पास करवाने से मुकर गई | इस तरह न्यायपालिका ने लोकतंत्र का खूंटा उखाड़ दिया |
ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं , जिन में न्यायपालिका ने विधायिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में दखल देना शुरू कर दिया है | अयोध्या के मामले में क़ानून और सबूतों के आधार पर फैसला करने की बजाए आपस में बात कर के फैसला करने का सुझाव इस का सब से बड़ा उदाहरण था | शाहीन बाग़ में पुलिस को धरना स्थल खाली करवाने का आदेश देने की बजाए बातचीत करने के लिए बिचौलिए भेज दिए और अब कृषि के तीनों कानूनों की वैधानिकता पर विचार करने की बजाए सुप्रीमकोर्ट सरकार से कह रही है कि वह कानूनों को स्थगित करे , यह सरकार और संसद के अधिकारों में सीधा सीधा दखल नहीं तो और क्या है | और यह कैसी दलील है कि कानूनों का समर्थन करने वालों ने तो कोई याचिका नहीं लगाई , वे क्यों याचिका लगाएंगे , याचिका तो वो लगाएंगे , जिन्हें एतराज होगा | इस लिए अब वक्त आ गया है कि मोदी सरकार लोकतंत्र का झंडा बुलंद करने के लिए निर्णायक कदम उठाए , नहीं तो उन पर भी लोकतंत्र की हत्या का आरोप लगेगा |
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