बंगाल में राष्ट्रपति राज की जरूरत

Publsihed: 10.Dec.2020, 22:21

अजय सेतिया / किसान आन्दोलन पर अगर कम्युनिस्ट पार्टियों का नियन्त्रण नहीं होता , तो 9 दिसम्बर को केंद्र सरकार की ओर से भेजे गए लिखित आश्वासनों के बाद आन्दोलन खत्म हो जाता और बातचीत शुरू हो जाती | उसी दिन राष्ट्रपति को मिले पांच नेताओं में से राहुल गांधी को छोड़ कर कोई भी उत्तर भारत का नहीं था | इस लिए राष्ट्रपति भवन से निकल कर राहुल गांधी के अलावा किसी ने भे मीडिया से हिन्दी में बात नहीं की | वैसे राहुल गांधी को भी अमेठी ने ठुकरा दिया है और वह केरल से चुन कर आए हैं , तमिलनाडू के टी आर बालू  और महाराष्ट्र के शरद पवार के अलावा बंगाल और केरल के  दो कम्युनिस्ट नेता सीता राम येचुरी और डी. राजा थे | येचुरी और डी. राजा से पूछना चाहिए कि उन्होंने बंगाल में अपने शासन के दौरान किसानों का क्या हाल किया था | कम्युनिस्ट सरकार इंडोनेशियाई सलीम समूह के एसईजेड के लिए नंदीग्राम में 10 हजार एकड़ जमीन का जबरदस्ती अधिगृहण कर रही थी , जिस का स्थानीय किसान विरोध कर रहे थे | किसानों का आन्दोलन कुचलने के लिए कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने 4,000 से ज्यादा सशस्त्र पुलिस भेज कर किसानों पर गोली चलवा दी थी , जिस में कम से कम 14 किसानों की मौत हो गई थी | जिन के हाथ किसानों के खून से रंगे हैं , वे अब पंजाब के किसानों को गुमराह कर रहे हैं | डर यह है कि कम्युनिस्टों ने बंगाल और केरल में हिंसा की राजनीति की शुरुआत की , जिसे अब तृणमूल कांग्रेस भी अपना रही है , आने वाले समय में कहीं किसान आन्दोलन भी हिंसक न हो जाए |

1977 में मार्क्सवाडियों के सत्ता में आते ही हिंसा की राजनीति शुरू हो गई थी  | यह वह समय था जब जिलों में माकपा नेताओं ने पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया था,  भूमि सुधारों और पंचायती राज के नाम पर जिलों का प्रशासन अधिकारियों के हाथ से खिसक कर माकपा कार्यालयों और माकपा काडर के हाथ में आ गया | 1982 में 17 आनंदमार्गियों को ज़िंदा जला दिया गया था | 2007 में नंदीग्राम की हिंसा मार्क्वादियों के कफन में आख़िरी कील साबित हुई और 2011 के पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव में वाम मोर्चा को हराते हुए  तृणमूल कांग्रेस ने पूर्ण बहुमत हासिल किया  | हालांकि 2011 के चुनाव से पहले तृणमूल कांग्रेस ने भी हिंसा की राजनीति शुरू कर दी थी , चुनावों से पहले तृणमूल कांग्रेस के सौ के करीब कार्यकर्ता मारे गए थे तो माकपा के भी 56 कार्यकर्ता मारे गए थे | चुनाव जीतने के बाद ममता बेनर्जी वादा किया था कि  "हम बदलाव की राजनीति करेंगे , प्रतिशोध की नहीं |" लेकिन पिछले 9 साल में तृणमूल कांग्रेस के काडर ने हिंसा का वही तरीका अपनाया , जिस कारण कम्युनिस्ट सत्ता से बाहर हुए |

पिछले पांच साल से भारतीय जनता पार्टी का उभार शुरू हुआ है तो तृणमूल कांग्रेस का निशाना भाजपा के कार्यकर्ता बन गए हैं , 2018 के पंचायत चुनावों में भाजपा का आधार बढने के बाद से भाजपा के 130 कार्यकर्ताओं को मौत के घात उतारा जा चुका है | पंचायत चुनावों वाले दिन भी 10 लोग मौत के घाट उतार दिए गए , हालांकि 2013 में हुई 39 हत्याओं के मुकाबले यह संख्या काफी कम है | अब जब कि विधानसभा चुनाव नजदीक हैं तो हिंसा की राजनीति और तेज हो गई है | भाजपा कार्यकर्ताओं को मार कर पेड़ पर लटका दिया जाता है , और पुलिस उसे आत्महत्या बता कर केस रफा दफा कर देती है | दस दिसम्बर को भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के काफिले पर हुआ हमला हिंसा की प्रकाषटा है | अगर नड्डा की कार बुलेट प्रूफ न होती तो अनहोनी हो सकती थी | हैरानी है कि ममता सरकार ने देश की सत्ताधारी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की सुरक्षा का इंतजाम करना तो दूर की बात उन्हीं की पार्टी के कार्यकताओं ने हमा किया , जिस में भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय को चौटें आई हैं | लोकतंत्र के लिए यह बहुत ही गंभीर मामला है और उसी गम्भीरता से लेते हुए केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने राज्यपाल से राज्य की क़ानून व्यवस्था पर रिपोर्ट मांग ली है |

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