अजय सेतिया / बिहार का चुनाव करीब करीब बराबरी पर छूटा है | एनडीए सरकार बनवाने का श्रेय चुनाव से ठीक पहले महा गठबंधन छोड़ कर आए जीतन राम माझी और मुकेश साहनी को जाता है | उन की चार चार सीटों के बदौलत ही सरकार बनेगी | विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भाजपा की पकड़ पहले से ज्यादा मजबूत हुई है | यह सम्भावित ही था | अपन पहले ही लिख चुके थे कि भाजपा की सीटें बढ़ेंगी , जदयू की सीटें घटेंगी और अंतत: महाराष्ट्र और हरियाणा के बाद भाजपा बिहार में भी अपने गठबंधन के सहयोगी के बड़े भाई की भूमिका में आ जाएगी | नीतीश कुमार यह तो नहीं कह सकते कि वह भाजपा की वजह से हारे , आखिर 15 साल में एंटी इनकम्बेंसी बनती ही है | भाजपा ने साझा सरकार की एंटी इनकम्बेंसी को खुद पर चिपकने नही दिया , यह भाजपा की सब से बड़ी चुनावी कारागिरी थी | नीतीश कुमार ने पिछले पन्द्रह सालों विकास के कई महत्वपूर्ण काम किए | उन्होंने केंद्र सरकार की मदद से बिजली सडक पानी की स्थितियां सुधारी , लेकिन रोजगार सृजन के लिए कोई कदम नहीं उठाया |
तेजस्वी यादव ने रोजगार को ही सब से बड़ा मुद्दा बना कर युवाओं को प्रभावित करने में सफलता पाई | नितीश कुमार के 15 साल के शासन में बिहार में कोई बड़ी नई फेक्ट्री नहीं लगी , लालू –राबडी के 15 साल में लूटखसोट से परेशान हो कर अगर फेक्ट्रियां और उद्ध्योग धंधे बिहार से बाहर चले गए थे , खुद को सुशासन बाबू कहलाने वाले नितीश कुमार अगर उन्हें वापस ले आते या बंद लालू राज में बंद हुई फेक्ट्रियां शुरू करवा देते तो रोजगार के नए अवसर पैदा होते | | लालू राज में अगर बिहार से मजदूरी करने के लिए बाहर जाने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही थी तो नीतीश राज में भी पलायन रुका नहीं | कितनी हैरानी की बात है कि लालू यादव की लूटखसोट की राजनीति के कारण बिहार में रोजगार के अवसर खत्म हुए और लालू यादव के बेटे ने रोजगार को ही चुनावी मुद्दा बनाया |
लालू यादव की गैर मौजूदगी में भी 2015 जैसी सीटें हासिल कर के तेजस्वी ने बिहार की राजनीति पर पकड़ बना ली है , 2015 में जब लालू का नीतीश कुमार से गठबंधन था तब लालू 80 सीटें जीत कर लाए थे और तेजस्वी 75 सीटें जीत लाए | वह मुख्यमंत्री नही भी बन पाए , तो भी वह एनडीए के सामने बड़ी ताकत के रूप में उभर कर सामने आए हैं | लेकिन इन चुनावों का सब से बड़ा खतरा मार्क्सवादी लेनिनवादी पार्टी का उभरना है , जो तेजस्वी के रथ पर सवार हो कर बिहार की विधानसभा में 12 सीटों के साथ वापस लौट रही है | इसी पार्टी के आंदोलनकारी वर्करों के कारण बिहार में फेक्ट्रियां बंद हुई थी | अगर कहीं एआई-एमआईएम और कांग्रेस के बन्दोबस्त से तेजस्वी सरकार बनाने में कामयाब हो जाते तो उस में मार्क्सवादी लेनिनवादी भी शामिल होते और यह बिहार के लिए जंगल राज की वापसी ही होती | अब एनडीए को माझी और साहनी पर निगाह टिका कर रखनी होगी , कहीं बिहार भी महाराष्ट्र न हो जाए |
अपना मानना है कि नीतीश कुमार के खिलाफ सिर्फ कोविड के दौरान एंटी इन्केम्बेन्सी पैदा हुई | जिस कारण वह 71 से 43 पर आ क्दर टिके | डस लाख से ज्यादा प्रवासी मजदूर बिहार लौटे तो नीतीश कुमार का उन के प्रति उपेक्षा का भाव था ,जिस से बिहारियों के मन में नीतीश के प्रति नफरत पैदा हो गई , नतीजतन मोदी का प्रभावशाली साथ होने के बावजूद नीतीश 2015 के आंकड़े को कायम नहीं रख सके | दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यानाथ को जब मीडिया के माध्यम से पता चला कि अपने गावों में वापस आने के लिए यूपी के मजदूर परिवार दिल्ली से पैदल निकल पड़े हैं तो उन्होंने दिल्ली बार्डर पर हजारों बसें लगवा दी थी | उन्होंने अपने मूल निवासियों के लिए मुफ्त में यातायात और भोजन आदि की व्यवस्था की | नतीजा अपने सामने है , उत्तर प्रदेश में भाजपा सात में से छह सीटों पर जीत गई , समाजवादी पार्टी एक सीट पर ही जीत पाई क्योंकि कोविड के दौरान उस की भूमिका नाकारात्मक थी |
अपन फिर बिहार पर आते हैं , चिराग पासवान भले ही लोजपा को एक भी सीट न दिला पाएं , लेकिन उन का मकसद चुनाव जीतना था ही नहीं , उन का मकसद नीतीश कुमार और उन की पार्टी जदयू को नुक्सान पहुंचाना था , जिस में वह पूरी तरह सफल रहे हैं | अगर लोजपा के साधे पांच प्रतिशत वोट एनडीए को मिल जाते तो एनडीए की कम से कम 15 सीटें बढ़ जाती , ऐसी स्थिति में भाजपा -जदयू को ही स्पष्ट बहुमत मिल गया होता | अब केन्द्रीय मंत्रिमंडल में अपने पिता की जगह पर मंत्री बनने का चिराग पासवान का सपना भी पूरा नहीं होगा | अगले लोकसभा चुनाव तक अगर नीतीश कुमार एनडीए में बने रहते हैं तो चिराग पासवान का एनडीए में बने रहना भी मुश्किल होगा , इस लिए कुल मिला कर चिराग पासवान ने अपने राजनीतिक भविष्य पर सवालिया निशान लगा लिया है , या यह कहें कि अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है | लेकिन खुद तो डूबे सनम , नीतीश को भी ले डूबे |
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