अजय सेतिया / शुरुआती तौर पर कुछ वैज्ञानिकों का आकलन है कि द्रोणागिरी ग्लेशियर फटने का एक कारण कोरोना का असर भी हो सकता है | इसे अपन क्रमवार समझने की कोशिश करते हैं | आप को याद होगा कि लाकडाउन के समय जलवायु में परिवर्तन आया और पर्यावरण बहुत शुद्ध हो गया था , पंजाब , हरियाणा , हिमाचल और उत्तर प्रदेश के कई शहरों से हिमालय की बर्फीली चौटियाँ दिखने लगी थी | इस पर्यावरण शुद्धि का असर यह हुआ कि इस बार हिमालियाई क्षेत्रों में बर्फ भी ज्यादा पड़ी है | चार फरवरी को ही 15 से 18 हजार फीट ऊपर वाले ग्लेशियरों में खूब बर्फ पड़ी | सूरज की ज्यादा तपिश के चलते ग्लेशियर की बर्फ न सिर्फ बहुत तेजी से पिघली बल्कि ग्लेशियर के ऊपरी हिस्से में जमी बर्फ ज्यादा होने के चलते खिसकी | जिससे हिमनदों के निचले हिस्से में जमें पानी के स्रोत टूट गए और तीव्र गति से धौलगंगा नदी में बह गए | शुरुआती आकलन तो यह था कि ऋषिकेश और हरिद्वार भी तक तबाही होगी , यह सुन कर ही भारत के जनमानस में 2013 की याद ताजा हो गई थी , जिसमें हजारों लोग मारे गए थे | लेकिन इसे ईश्वर की कृपा ही माननी चाहिए कि उत्तराखंड के श्रीनगर में आते आते ग्लेशियर के पानी का प्रभाव इतना कम हो गया था कि ऋषिकेश में गंगा का जलस्तर सामान्य था |
ऊपरी हिमालयन रीजन में इस वक्त प्रदूषण के कण न के बराबर हैं | इससे सूरज की तपिश पिछले सालों की तुलना में ज्यादा है | जो ग्लैशियरों पर जमने वाली ऊपरी बर्फ को ज्यादा तेजी से पिघला रही है | वैज्ञानिकों की भाषा में इसे " ग्लेशियर लेक आउट बर्स्ट फ्लड" (जीएलओएफ) कहते हैं | इसका मतलब होता है कि हिमनदों के नीचे जमा पानी के पूरे भंडार का अचानक बहुत तेजी से बह जाना | आने वाले समय में ऐसे खतरों के बने रहने की आशंका है | जीवाश्म ईंधनों का बेहताशा इस्तेमाल, ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन, ओजोन परत में छेद जैसे कई ऐसे कारण हैं, जिन से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं | सवाल यह है कि उत्तराखंड में पावर प्रोजेक्टों के अलावा क्या चारधाम यात्रा के लिए बन रही आल वेधर रोड भी पर्यावरण के लिए खतरा बन गई है | आईपीसीसी ने तो चेतावनी दी है कि इस सदी के अंत तक यानी 80 साल के भीतर हिमालय के ग्लेशियर अपनी एक तिहाई बर्फ को खो सकते है | चिंता सिर्फ उत्तराखंड या हिमाचल की नहीं , पूरे हिमालियाई क्षेत्र की है , जिस में भारत के अलावा नेपाल और चीन भी शामिल हैं | 2005 में चीन की पारछू झील टूटने से हिमाचल के स्पीती से ले कर बिलासपुर तक भयंकर बाढ़ आई थी , तब चीन ने भारत को सतर्क तक नहीं किया था |
एक रिपोर्ट के अनुसार इस समय भी ग्लेशियरों के पिघलने से ऊंचाई वाले इलाकों में 800 से ज्यादा छोटी बड़ी झीलें बन चुकी हैं , इन में से साढे पांच सौ झीलें तो हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड को ही प्रभावित कर सकती हैं | उत्तराखंड की दुर्घटना के बाद सतलुज बेसिन पर बनी सैंकड़ों झीलों की सेटलाईट से निगरानी शुरू की गई है | हाल ही में उतराखंड के पिथौरागढ़ जिले को सतर्क किया गया था क्योंकि वैज्ञानिकों ने धारचुला के नेपाल बार्डर में काली नदी पर बनी झील फटने की आशंका जाहिर की गई थी , हालांकि यह झील अभी नहीं फटी है | अब अपन पहाड़ों से नीचे आते हैं , टिहरी बाँध को लेकर उस के निर्माण के समय से ही आशंका जताई जाती रही है कि अगर कोई दुर्घटना हो गई तो दिल्ली तक तबाही ही तबाही होगी | इस लिए पर्यावरणविद हमेशा से ही उत्तराखंड में बड़े पावर प्रोजेक्टों का विरोध करते रहे हैं | वैसे भी गढवाल के सारे पहाड़ कच्चे होने के कारण हर साल बारिश में पहाड़ खिसकते रहते हैं | ऋषि गंगा को ही लें, तो इस के कैचमेंट एरिया में 14 ग्लेशियर हैं , आज एक ग्लेशियर टूटा है तो ऋषि गंगा और तपोवन पावर प्रोजेक्ट पूरी तरह तबाह हो गए | आने वाले समय में बाकी तेरह ग्लेशियर पर पर्यावरण का कितना असर होगा क्या कह सकते हैं |
हिमालयाई ग्लेशियरों से तराई के इलाके में कृषि ही नहीं होती लगभग दो अरब लोगों को मीठा पेयजल भी उपलब्ध होता हैं | अगर ग्लेशियरों से पानी आना बंद हो जाए तो भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, नेपाल सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे | सूखे की स्थिति से आम जनजीवन भी खतरे में पड़ सकता है | ग्लेशियरों के पिघलने/फटने से समुद्र का जलस्तर बढ़ना लाजिमी है | जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित रिसर्च में कहा गया है कि 1990 से 2100 के बीच समुद्री जल का स्तर 9 सेंटीमीटर से 88 सेंटीमीटर के बीच बढ़ सकता है | संयुक्त राष्ट्र ने वैश्विक पर्यावरण रिपोर्ट में आगाह किया है कि समुद्रतल में इजाफा होने से 2050 तक यानी आने वाले 30 साल में भारत के कई शहरों पर खतरा बढ़ सकता है | इसमें मुंबई, कोलकाता और कर्नाटक के मंगलोर जैसे बड़े शहर भी शामिल है | इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत के लगभग 4 करोड़ लोग इसके चपेट में आ सकते हैं |
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