अजय सेतिया / पंजाब का किसान अपनी मांगो को ले कर दिल्ली के लिए चला था तो पर्दे के पीछे से पंजाब के मुख्यमंत्री और पंजाब प्रदेश कांग्रेस का समर्थन था , जबकि पंजाब की कम्युनिस्ट पार्टी खुल्लम खुल्ला समर्थन कर रही थी | दिल्ली कूच करने से पहले जब तीन महीनों तक पंजाब का किसान आन्दोलन कर रहा था तो वे स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट को स्वीकार करने और उस के मुताबिक़ कृषि सुधार की मांग कर रहे थे | पंजाब के मुख्यमंत्री अमरेन्द्र सिंह उन्हें समझा रहे थे कि स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट तो केंद्र सरकार ही स्वीकार क्र सकती है , क्योंकि यह कमेटी केंद्र सरकार ने ही बनाई थी और तीनों क़ानून भी केंद्र सरकार ने पास किए है , हम ने तो विधानसभा से तीनों कानूनों के खिलाफ प्रस्ताव भी पास करवा दिया है , इस लिए आप दिल्ली जाओ , इस तरह उन्होंने आन्दोलन का मुहं दिल्ली की ओर कर दिया था |
पर मुद्दे की बात यह है कि कांग्रेस अब उन तीन कानूनों का विरोध कर रही है , जिसे वह खुद लागू करना चाहती थी , लेकिन कर नहीं सकी थी | जहां तक स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट का सवाल है तो कमेटी की नियुक्ति मनमोहन सिंह ने 2006 में प्रधानमंत्री रहते हुए की थी और रिपोर्ट भी 2008 में आ गई थी , लेकिन मनमोहन सिंह ने उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया था क्योंकि रिपोर्ट को हू ब हू स्वीकार नहीं किया जा सकता था | अब वही कांग्रेस स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट को हू ब हू स्वीकार करने की मांग कर रही है | यूपीए सरकार के कृषि मंत्री शरद पवार ने अगस्त 2008 और नवम्बर 2011 में सभी राज्य सरकारों को चिठ्ठी लिखी थी कि किसानों की दशा सुधारने करने के लिए एपीएमसी क़ानून में बदलाव की जरूरत है , जिस का एक माडल प्रारूप तैयार किया जा रहा है , सभी राज्य सरकारों से एपीएमसी में बदलाव की सिफारिश करते हुए शरद पवार ने इसी चिठ्ठी में लिखा था कि कृषि में निजी पूजीनिवेश के रास्ते खोलने की जरूरत है | अब उन्हीं शरद पवार ने मोदी को चेतावनी दी है कि अगर किसानों की मांगे नहीं मानी गई तो आन्दोलन दिल्ली तक सीमित नहीं रहेगा |
अपन तो शुरू से लिख रहे हैं कि मोदी सरकार के तीनों कानूनों में खामियां है , उन्हें दूर किया जाना चाहिए | उन खामियों का जिक्र अपन कई बार अपने इस कालम में कर चुके हैं | कारपोरेट अर्थशास्त्री सरकार के बनाए कानूनों के समर्थन कर रहे हैं जबकि किसान और कृषि विशेषज्ञ विरोध कर रहे हैं | इससे भी यह साफ होता है कि ये क़ानून किसानों के हित में कम , कारपोरेट घरानों के पक्ष में ज्यादा है | किसानों ने भी 3 दिसम्बर तक अपनी दो दौर की वार्ता में उन खामियों को गिनाया था , जो किसान समर्थक नहीं , बल्कि उद्ध्योगतियों और व्यापारियों को फायदा पहुँचाने वाली हैं | सरकार ने भी उन खामियों को माना था और बदलाव करने पर सहमती दे दी थी | जब इस से लगा कि एक-दो दौर की बातचीत में समाधान निकल आएगा तो पांच दिसम्बर की वार्ता से ठीक पहले सब कुछ बदल गया | अचानक अवार्ड वापसी गैंग , शाहीन बाग़ धरने की रणनीति बनाने वाले , जेएनयू के डफली वाले सक्रिय हो गए |
इसी तरह शाहीन बाग़ के मामले में सुप्रीमकोर्ट ने सडकों को घेर कर आम जनता का रास्ता बंद करने को अनुच्छेद 21 का उलंघन बताया था , लेकिन केजरीवाल खुल्लम खुल्ला कह रहे हैं कि केंद्र सरकार को 9 स्टेडियम नहीं दे कर उन्होंने किसानों को हाईवे बंद करने दिया , वरना मोदी सरकार उन्हें दिल्ली के स्टेडियमों में पहुंचाना चाहती थी | केजरीवाल के पुराने अनार्की वाले साथी योगेन्द्र यादव ने भी गले में हरा साफा बाँध करआन्दोलन में घुसपैठ कर दी | पंजाब के किसान इस घुसपैठ को पहचान नहीं पाए और माईक योगेन्द्र यादव को थमा दिया | इस के बाद दो बदलाव आए , पहला यह कि किसान तीनों कानूनों में बदलाव को स्वीकार नहीं करेंगे , बल्कि तीनों क़ानून वापस होने चाहिए , सरकार इस के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाए | इस के तुरंत बाद लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी ने विशेष सत्र की मांग कर दी | दूसरा बदलाव यह आया कि बातचीत के बीच में ही 8 दिसम्बर को भारत बंद का एलान कर दिया गया | जिसे कांग्रेस , सपा , बसपा , राजद , तृणमूल कांग्रेस , एनसीपी सभी दलों ने तुरत फुरत समर्थन कर दिया | इन सभी दलों ने राज्यसभा में बिल वापस लेने की नहीं , बल्कि संशोधन किए जाए की मांग की थी , जिसे तब नहीं , तो अब सरकार करने को तैयार थी | साफ़ है कि राजनीतिक दल किसानों को गुमराह कर राजनीतिक रोटियाँ सेक रहे हैं | जो टकराव बातचीत से हल हो रहा था , उस में अडचन बन कर खड़े हो गए हैं |
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