अजय सेतिया / उत्तर प्रदेश के डीजीपी मुकुल गोयल का एक सर्कुलर विवादों में फंस गया है | यह सर्कुलर कोविड के मौके पर मोहर्रम का जलूस प्रतिबंधित किए जाने और पुलिस अफसरों को उन इलाकों की निगरानी के लिए जारी किया गया था , जहां पहले मोहर्रम के मौके पर शिया-सुन्नी तनाव होता रहा है | मोहर्रम 10 से 19 अगस्त तक मनाया जाता है |
मोहर्रम शिया मुसलमानों के लिए त्यौहार नहीं है , यह मातम है क्योंकि उस दिन पैगंबर मोहम्मद के नवासे (नाती)इब्र अली यानि इमाम हुसैन का धोखे से कत्ल कर दिया गया था | डीजीपी से यह गलती जरुर हुई की अज्ञानतावश उन्होंने सर्कुलर में त्यौहार लिखवा दिया | वैसे सर्कुलर में ऐसी कोई बात नहीं थी की इसे साम्पदायिक रंग दिया जाता क्योंकि पुलिस के सर्कुलर में अधिकारियों को उन स्थानों पर सतर्क रहने को कहा ही जाता है , जहां पहले हिन्दू मुस्लिम या शिया सुन्नी झगड़ा हुआ हो | लेकिन यह सर्कुलर और चुनाव के मौके पर राजनीतिक बयानबाजी चरम पर है , हमें समझना चाहिए कि मोहर्रम है क्या ? ताकि मोहर्रम को त्यौहार बताने की जो गलती डीजीपी मुकुल गोयल से हुई , वह बाकी हिन्दू न करें | शिया किस के खिलाफ ताजिया निकाल कर रोष प्रकट करते हैं ? क्यों अपनी पीठ पर तलवारें चला कर खुद को लहुलुहान करते हैं ? क्यों कहते है की उस समय हम वहां होते तो आज के सुन्नी मुसलमानों से हुसैन साहब को बचा लेते ? कौन थे हुसैन , जिस की मौत पर मातम मनाया जाता है ? सुन्नी क्यों शिया मुसलमानों के इस मातम का विरोध करते हैं ?
आईए जानते हैं मोहर्रम और शिया-सुन्नी का इतिहास | शिया और सुन्नियों की जंग 680 में कर्बला में हुई थी , जो ईराक का ऐतिहासिक और पवित्र शहर है | यह लड़ाई हुई थी इस्लाम के प्रवर्तक पैगंबर मोहम्मद के नवासे (नाती) इब्र अली यानि इमाम हुसैन और तब मुसलमानों के प्रमुख खलीफ़ा उम्मय्या वंश के यज़ीद के समर्थकों के बीच | मोहम्मद साहब की मौत के बाद मुवैय्या वंश ने ख़लीफ़ा अली को धोखे से मारकर राजनीतिक सत्ता हासिल कर ली और फिर अपने बेटे यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी बना दिया था | अपने पिता मुवैय्या की मौत के बाद यजीद ने ख़ुद को ख़लीफ़ा घोषित कर दिया और वह चाहते थे कि इमाम हुसैन उनकी ख़िलाफ़त को स्वीकार करें | यहाँ अपन बताते जाएं कि खिलाफत का मतलब खलीफा है , जिस का इस्लाम में राजनीतिक महत्व है | 1919 में जब अंग्रेजों ने तुर्की में खलीफा की राजनीतिक सत्ता समाप्त कर दी थी , तो भारत में मुसलमानों ने खलीफा का साम्राज्य बचाने के लिए आन्दोलन किया था , जिस का गांधी ने समर्थन किया | बाद में हताश मुसलमानों ने हिन्दुओं की बड़े पैमाने पर हत्या की |
680 में मुहम्मद के नवासे इमाम हुसैन ने भी खलीफा यजीद की सत्ता को मानने से इनकार कर दिया था तो कर्बला के मैदान में उन की हत्या कर दी गई थी | कर्बला में इमाम हुसैन और उनके साथियों के लिए पीने का पानी बंद कर दिया गया था | यज़ीदी फौज के सिपाहियों ने कर्बला के मरुस्थल में इमाम हुसैन के छह महीने के दूध पीते बच्चे को तीर मार कर क़त्ल कर दिया था जोकि तीन दिन का भूखा और प्यासा था ....इमाम हुसैन और उनका पूरा परिवार तीन दिनों का भुखा-प्यासा शहीद हुआ था | यज़ीद के सैनिकों ने इमाम हुसैन के भाई हज़रत अब्बास के दोनों हाथ काट दिए थे और उनकी आंख में ज़हर से भरा तीर मारा था | इमाम हुसैन और उनके साथियों की हत्या के बाद उनके शवों पर घोड़े दौड़ा दिए थे | बच्चों और बच्चियों को कोड़े मारे गए | जबकि इमाम हुसैन ईश्वरीय निष्ठा और श्रद्धा में डूबे हुए क़ुरबानियों पर कुरबानियां देते रहे | हुसैन का कत्ल करने के बाद यजीदी सेना ने उनके समर्थकों के घरों में आग लगा दी और काफिले में मौजूद लोगों के घरवालों को अपना कैदी बना लिया | इतना क्रूरता भरा रहा है मौजूदा मुस्लिम खलीफा इतिहास |
हुसैन की इसी कुर्बानी की याद में मुहर्रम की 10 दिन तक दुनिया भर के शिया मुसलमान अलग-अलग तरीकों से अपने गम का इजहार करते हैं | शिया पुरुष और महिलाएँ काले कपड़े पहन कर मातम मनाते हैं | कहीं-कहीं यह मातम ज़ंजीरों और छुरियों से भी किया जाता है और कहीं-कहीं तलवारों से भी किया जाता है | कहीं पर आग पर चलकर किया जाता है | जिसमें मातमदार (श्रद्धालु) स्वंय को लहूलुहान कर लेते हैं | सुन्नी वो लोग हैं जिन्होंने मोहम्मद साहब के इंतकाल के बाद तलवार के बल पर इस्लाम की राजनीतिक सत्ता पर कब्जा कर लिया था , शिया मोहम्मद साहब के परिवार के वो लोग हैं , जो इस्लाम की रूहानियत पर चलने वाले हैं | डीजीपी साहब मोहर्रम त्यौहार नहीं , इस्लाम की क्रूरता का इतिहास है |
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