खुद का भंडा फोड़ रही यूएनएचआरसी

Publsihed: 04.Mar.2020, 15:26

अजय सेतिया  / यूएनएचआरसी यानी संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद या तो भारत के अपने वामपंथी मित्रों और उन के झोलाछाप गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) के बहुत ज्यादा प्रभाव में है या फिर पाकिस्तान के इशारे पर काम कर रही है | उस ने भारत की सुप्रीम कोर्ट में नागरिकता संशोधन क़ानून की संवैधानिक वैधता पर दायर मुकद्दमे में खुद को पार्टी बनाने की याचिका दाखिल करने का फैसला किया है | अगर वह अपने भारतीय वामपंथी एनजीओ के सलाहाकारों की सलाह पर यह कदम उठा रहा है , तो वह भारी गलती कर रहा है क्योंकि उन के गुजरात के सम्बन्ध में लगाए गए सारे आरोप भी गलत साबित हुए थे |

इन्हीं संगठनों की अंतर्राष्ट्रीय साजिश के चलते ब्रिटेन, अमेरिका और कई यूरोपियन देशों ने नरेंद्र मोदी पर धार्मिक उत्पीडन और मानवाधिकार उलंघन का आरोप लगाते हुए उनकी यात्राओं पर रोक लगा दी थी | मार्च 2005 में जब मोदी को एशियन-अमेरिकन होटल मालिकों की एसोसिएशन ने अपने कार्यक्रम में आमंत्रित किया था तो अमेरिका ने उन्हें कूटनीतिक वीजा देने से इनकार कर दिया था और पर्यटक वीजा भी रद्द कर दिया था | अंगना चटर्जी नाम की वामपंथी ने 125 वामपंथी बुद्धिजीवियों के दस्तखत करवा कर मोदी को वीजा नहीं देने की याचिका लगाई थी |

ब्रिटेन और यूरोपियन यूनियन को क्रमश 2012 और 2013 में समझ आ गया था कि उन्होंने इन वामपंथी एनजीओ और मुस्लिम कट्टरपंथियों की लाबिंग का शिकार हो कर गलती की थी | सभी ने अपने आप प्रतिबंध हटाए | इस के बावजूद संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद ने 2013 की अपनी रिपोर्ट के पैराग्राफ 46 से 48 में गुजरात के दंगों के लिए गुजरात की तब की मोदी सरकार को जिम्मेदार ठहराया था | हालांकि तब तक सभी जांचों में मोदी और उन की सरकार पाक-साफ़ पाई जा चुकी थी | संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद अब फिर वही गलती कर रही है |

संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद की वेबसाईट के अनुसार उसकी जिम्मेदारी दुनिया भर में मानवाधिकारों की रक्षा करना , बढावा देना और मजबूती प्रदान करना है | इस के अलावा उस की जिम्मेदारी है कि जहां जहां मानवाधिकारों का उलंघन हो रहा है , वहां पर निगाह रख कर अपनी सिफारिशें देना है | भारत के नागरिकता संशोधन क़ानून को चुनौती देते हुए संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद खुद को ही बेनकाब कर रही है | भारत की सुप्रीमकोर्ट में जाने का फैसला करने से पहले उस के क़ानूनी सलाहाकार बिल की प्रस्तावना पढ़ लेते तो उन्हें अपनी नाकामियों का पता चल जाता कि भारत को यह क़ानून पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों और धार्मिक आज़ादी के अधिकारों का उलंघन होने के कारण ही बनाना पड़ा है |

इन तीनों देशों में अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों की रक्षा करना उस की जिम्मेदारी थी | इन तीनों देशों में पिछले सात दशकों से गैर मुस्लिमों का अमानवीय उत्पीडन हुआ है , उन का कत्ल-ए-आम किया गया , औरतों का अपहरण कर के जबरदस्ती धर्म परिवर्तन कराया गया | लाखों की तादाद में नाबालिग बच्चियों का अपहरण बलात्कार और धर्म परिवर्तन हुआ है | सत्तर साल पहले के मुकाबले इन तीनों देशों में अल्पसंख्यकों की आबादी 10 प्रतिशत भी नहीं रही | तो क्या यह संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की नाकामी नहीं | भारत की संसद ने तो वह काम किया है , जो संयुक्त राष्ट्र को करना चाहिए था | भारत के विदेश मंत्रालय ने उसे सही जवाब दिया है कि यह भारत का अंदरुनी मामला है | सुप्रीमकोर्ट को भी संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की याचिका खारिज कर भारतीयों की ओर से दायर याचिकाओं पर फैसला करना चाहिए कि संशोधित क़ानून में हिन्दू,सिख,जैन, बोद्ध , ईसाई, पारसी का जिक्र करना संविधान सम्मत है या नहीं | 

 

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