एक कार्यकाल में तीन तीन मुख्यमंत्री क्यों

Publsihed: 03.Jul.2021, 16:45

अजय सेतिया / उत्तराखंड राज्य की स्थापना के 20 साल पूरे हो चुके हैं | इन बीस सालों में उत्तराखंड ने दस सीएम देख लिए | सिर्फ 114 दिन पूरे कर के तीर्थ सिंह रावत भी मुख्यमंत्री पद से विदा हो गए | उन की जगह पर अब पुष्कर सिंह धामी मुख्यमंत्री बनाए गए हैं |  पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी का कार्यकाल खत्म होने से चार महीने पहले देहांत हो गया था | तब भाजपा ने बाकी बचे 123 दिन के लिए भगत सिंह कोशियारी को मुख्यमंत्री बनाया था | भाजपा 2007 का विधानसभा चुनाव हार गई | कांग्रेस का चेहरा नारायण दत्त तिवारी नहीं थे | लेकिन कई दावेदारों को पछाड़ कर सोनिया गांधी की नजदीकी के कारण मुख्यमंत्री बने | बल्कि वह अब तक के एक मात्र मुख्यमंत्री रहे , जिन्होंने 2002-07 का अपना कार्यकाल पूरा किया |

भाजपा के 2007 से 2012 के कार्यकाल में तीन मुख्यमंत्री रहे | हालांकि पहले बनाए गए भुवन चन्द्र खंडूरी को ही कार्यकाल खत्म होने से पहले दुबारा सीएम बनाया गया था | बीच में रमेश पोखरियाल मुख्यमंत्री रहे | चुनाव से सिर्फ छह महीने पहले निशंक को इस लिए हटाना पड़ा था , क्योंकि हाई कमान को लगता था उन की रहनुमाई में भाजपा चुनाव नहीं जीत पाएगी | हालांकि छह महीने में खंडूरी करते भी क्या | लेकिन पार्टी 70 में से 31 सीटें जीत गई थी , जबकि कांग्रेस एक ज्यादा 32 जीत गई थी | उस ने जोड़तोड़ से सरकार बना ली , लेकिन मुख्यमंत्री कांग्रेस ने भी दो दिए थे | बहुगुणा और हरीश रावत | रावत ने कांग्रेस का ऐसा भठ्ठा बिठाया कि 2017 के चुनाव में उसे सिर्फ 13 सीटें ही मिल पाईं | वह खुद भी दो सीटों से चुनाव हार गए |

भाजपा 70 में से 57 के प्रचंड बहुमत से जीती , लेकिन मुख्यमंत्री पद पर जिन त्रिवेंद्र सिंह रावत को बिठाया गया | वह भी अपनी अलोकप्रियता के कारण चुनाव से ग्यारह महीने पहले हटा दिए गए थे | हालांकि नारायण दत्त तिवारी के बाद सब से ज्यादा चार साल तक मुख्यमंत्री बनने का रिकार्ड उन्हीं का है | अब पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाते ही पांच साल का यह दूसरा कार्यकाल है , जिस में भाजपा ने तीन मुख्यमंत्री दिए हैं | लेकिन इस बार तीर्थ सिंह रावत को भाजपा ने अपने पूर्व दो मुख्यमंत्रियों निशंक और त्रिवेंद्र की अलोकप्रियता के कारण नहीं हटाया है | बल्कि भाजपा हाईकमान ने अपनी खुद की गलती के कारण हटाया है | या यों कहिए कि हाईकमान की गलती का खामियाजा बेचारे तीर्थ सिंह रावत को झेलना पड़ा है | जिन्होंने अपने सौ दिन के कार्यकाल में ही पूर्व मुख्यमंत्री के कई अलोकप्रिय फैसलों को बदल कर एंटी इनकम्बेंसी को समाप्त कर दिया था |

भाजपा हाईकमान ने 10 मार्च को सांसद तीर्थ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाते समय यह सोचा ही नहीं कि वह विधायक का चुनाव कहाँ से लड़ेंगे | 2012 में जब कांग्रेस ने सांसद विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बना कर भेजा था तो सीट खाली करवाने की जिम्मेदारी उन्होंने खुद ली थी | उन्होंने भाजपा के विधायक किरन चन्द्र मंडल से सीट खाली करवा कर भाजपा की एक सीट घटा दी और कांग्रेस की बढा कर 33 कर ली थी | भाजपा हाईकमान क्या मोदी की लोकप्रियता के चलते कांग्रेस के किसी एक विधायक की सीट खाली करवा कर तीर्थ सिंह को विधायक नहीं बनवा सकती थी | नहीं तो क्या भाजपा के विधायक की मौत से खाली पड़ी कुमाऊँ की सलट सीट से तीर्थ सिंह को जीताने की रणनीति नहीं बना सकती थी |

विजय बहुगुणा ने खुद गढवाल का होते हुए भी कुमाऊँ के सितारगंज से चुनाव जीता था | तो क्या गढवाल से होने के बावजूद ठाकुर होने के नाते तीर्थ सिंह रावत सलट से नहीं जीत सकते थे | सलट सीट का उपचुनाव तो तीर्थ सिंह के मुख्यमंत्री रहते हुए हुआ था | भाजपा के पास तीसरा विकल्प भी था कि वह सतपाल महाराज से चौबटाखाल सीट खाली करवाती | चौबटाखाल तीर्थ सिंह रावत की अपनी सीट थी | 2017 में भाजपा ने तीर्थ सिंह रावत की टिकट काट कर ही कांग्रेस से आए सतपाल महाराज को दी थी | सतपाल महाराज को तीर्थ सिंह की पौड़ी लोकसभा सीट से उप चुनाव लडवा कर केंद्र में मंत्री बनाया जाता |

2001 के सुप्रीमकोर्ट के फैसले के मुताबिक़ कोई मुख्यमंत्री या मंत्री बिना चुनाव जीते सिर्फ छह महीने ही मुख्यमंत्री या मंत्री रह सकता है | छह महीने का कार्यकाल समाप्त होने के बाद वह दुबारा शपथ नहीं ले सकता | उधर चुनाव आयोग की परंपरा है कि जब विधानसभा का कार्यकाल 11 महीने से कम बचा हो तो सीट खाली होने पर उप चुनाव नहीं होता | तो भाजपा को या तो किसी विधायक को ही मुख्यमंत्री बनाना चाहिए था , जैसे अब बनाया है | या तीर्थ सिंह रावत को चुने जाने का रास्ता उसी दिन साफ़ किया जाना चाहिए था | भाजपा ने रणनीति बनाए बिना ही 10  मार्च में तीर्थ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बना कर भेज दिया था | इस लिए तीर्थ सिंह रावत को चार महीनों में ही मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा | भाजपा की इस कानूनी अनपढ़ता के चलते अरुण जेटली की याद आना स्वाभाविक है | वह होते तो क्या भाजपा को इस संकट का सामना करना पड़ता |  

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