सेक्यूलरिज्म की पत्रकारिता को सोचने का वक्त 

Publsihed: 22.Feb.2017, 20:59

सुप्रीम कोर्ट ने पांच राज्यों के चुनावों से पहले एक टिप्पणी की थी | उस टिप्पणी को स्वच्छ राजनीति की जरूरत माना गया | जो वक्त की जरूरत थी | ताकि  देश में लोकतंत्र मजबूत हो | जनता चुनावों में अपनी सरकार से पांच साल का हिसाब मांगे | जनता से वसूले गए टैक्स के खर्चे का हिसाब मांगे | हिसाब-किताब ही वोट का आधार बने | धर्म और जाति के नाम पर न कोई वोट मांगे | न कोई इन मुद्दों पर वोट दे |  चुनाव असली मुद्दों से भटकें नहीं | पर उत्तरप्रदेश के चुनाव में यह होना ही था | जो अब पूरे जोर शोर से शुरू हो चुका | साम्प्रदायिकता चुनाव पर हावी हो गयी | प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना हो रही है | उन ने इस की शुरुआत की | उन ने कह दिया कि रमजान पर बिजली मिले, तो होली पर भी मिले | ईद पर बिजली मिले,तो दिवाली पर भी मिले | कब्रिस्तान के लिए जमीन मिले,तो शमशानघाट के लिए भी मिले | सेक्यूलर मीडिया को मुद्दा मिल गया | मोदी पर साम्प्रदायिकता फैलाने का आरोप जड़ दिया | कांग्रेस चुनाव आयोग जा पहुँची | सुप्रीम कोर्ट ने कहा था-"कोइ धर्म के नाम पर वोट नहीं मांग सकता |" वैसे यह कोइ नई बात नहीं | चुनाव आयोग की आचार सहिंता में यह पहले से शामिल था | पच्चीस साल पहले 1991 में बाम्बे हाईकोर्ट ने दस चुनाव रद्द कर दी थे | मामला यह था कि उनके लिए बाल ठाकरे और प्रमोद महाजन ने हिदुत्व के नाम पर वोट मांगे | मनोहर जोशी का चुनाव भी रद्द हुआ था | मनोहर जोशी ने अपने चुनावी भाषण में कहा था-"महाराष्ट्र को पहला हिन्दू राज्य बनाएंगे |" पर सुप्रीमकोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले बाद में रद्द किए  |  १९९५ में जस्टिस जेएस वर्मा ने एक एतिहासिक फैसला किया | जिस में हिंदुत्व को जीवन पद्धति माना गया | जिन दस विधायको का चुनाव रद्द हुआ था | इन्हीं में से दो विधायक थे अभिराम सिंह और नारायण सिंह | बाम्बे हाई कोर्ट ने उन का चुनाव भी इसी आधार पर रद्द किया था | बाकी सभी को तो राहत मिल गयी, पर इन दोनों को नहीं मिली थी | उसी मामले में अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा-" चुनाव में धर्म और जाति का इस्तेमाल नहीं कर सकते |" अपन शाही इमाम के फतवे सुनते रहे हैं | अपन इमामो के बयान पढ़ते रहे हैं | अपन इंदिरा गांधी को शाही इमाम के पास जाते देखते रहे हैं | मुलायम और मायावती के हक़ में फतवेबाजी होती रही है | सेक्यूलर मीडिया ने कभी इन फतवों पर सवाल नहीं उठाया | वही खुद को सेक्यूलर कहने वाले अब राम के नाम पर चिढ़ते हैं | किसी चुनावी रैली में शंख बज जाए ,तो भौंहे चढ़ जाती हैं | सवाल यह है कि साम्प्रदायिक राजनीति क्या होती है | हज की सबसिडी साम्प्रदायिकता है या नहीं | मदरसों को सरकारी खजाने से पैसा देना साम्प्रदायिकता है या नहीं | मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण रोकने के लिए गठबंधन को क्या कहेंगे | क्या यह साम्प्रदायिकता नहीं | लाशों का धर्म देख कर मुआवजा देना क्या साम्प्रदायिकता नहीं | कब्रिस्तान के लिए 1327 करोड़ लुटाना क्या साम्प्रदायिकता नहीं | और शमशान घाटों  के लिए 600 करोड़ लुटाना क्या साम्प्रदायिकता नहीं | सरकारें जनकल्याण के लिए होती हैं या मुर्दों के लिए | जम्मू कश्मीर के पत्थार्बाजों का समर्थन साम्प्रदायिकता है या नहीं | ब्राहमण सभा किसी एक दल को वोट देने की अपील के, तो यह जातिवाद है या नहीं | प्रदेश के सारे थानों में एक जाति के थानेदार बनाना जातिवाद है या नहीं | सरकारी नौकरियों में 70-80 एक ही जाति की नियुक्ति जातिवाद है या नहीं | एक तरह साम्प्रदायिकता,जातिवाद का खुला खेल | इस खेल को देख आँखें बंद | कोइ यह कह दे कि रमजान में बिजली दो, तो होली-दिवाली में भी दो | तो यह घोर साम्प्रदायिकता | मीडिया में बैठे कुछ लोग, जो खुद को सेक्यूलर कहते हैं | पिछले 30 साल से एक तरफा साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दे रहे थे | अब भी दे रहे हैं | पर उन की सेक्यूलर पत्रकारिता के अब परखचे उड़ रहे | सोशल मीडिया में उनकी टिप्पणियाँ उन की निष्पक्षता की पोल खोल रही |  

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