मनमोहन पर जिद्द का इरादा नहीं सोनिया का

Publsihed: 17.Apr.2009, 07:22

अपने मनमोहन पीएम पद की दौड़ में थे भी नहीं। सोनिया ने दौड़ में शामिल किया। तो तुरुप का पत्ता अपने हाथ में रखा। यानी हाथी के दांत दिखाने के और, खाने के और। अपन तुरुप का पत्ता तो बताएंगे ही। उसकी वजह भी बताएंगे। आडवाणी ने भविष्य के सहयोगियों की तलाश शुरू की। तो कांग्रेस भी भविष्य की रणनीति बनाने लगी। पहले बात आडवाणी की। अपन ने कल लिखा ही था- 'यों तो हमलावर का मतलब घबराहट।' आडवाणी पीएम पद पर पहली पसंद बनते दिखे। तो कांग्रेस में खलबली होनी ही थी। अपन वैसे भरोसा नहीं करते। आईबी कभी भरोसे लायक रही भी नहीं। पर आईबी की रपट में यही खुलासा- 'बीजेपी की सीटें कांग्रेस से ज्यादा होंगी।' ऐसा हुआ, तो नए समीकरण उभरेंगे ही। उसी का इशारा आडवाणी ने किया।

जब उनने कहा- 'जयललिता हो सकती हैं भविष्य की सहयोगी।' अपन तो पहले दिन से लिख रहे। तीसरा मोर्चा चकनाचूर होगा। कांग्रेस को लेफ्ट के सहयोग की उम्मीद। तो एनडीए को जयललिता-मायावती के। अपन यूपीए की बात जानबूझकर नहीं कर रहे। यूपीए अब है कहां। शरद पवार तो कई बार कह चुके- 'मनमोहन यूपीए के नेता नहीं। वह सिर्फ कांग्रेस के उम्मीदवार।' सो लेफ्ट ही नहीं। अलबत्ता पवार और मुलायम भी मनमोहन पर अड़ंगा डालेंगे। सोनिया इन अड़ंगों से बाखबर। सो भविष्य की तैयारी पहले से। इसका राज अपन आगे जाकर खोलेंगे। तब तक बात आडवाणी की। तो गुरुवार को बीजेपी में भी जूता चल गया। फर्क सिर्फ जूते और चप्पल का रहा। पर चिदंबरम की कनखियों से गुजर गया था जूता। तो आडवाणी से दो सौ मीटर दूर रहा। कांग्रेस कुछ बोली तो नहीं। पर बहुत खुश दिखी। आडवाणी की बात कर रहे हैं। तो वरुण गांधी की बात भी करते जाएं। जैसा अपन ने कल उम्मीद जताई ही थी- 'वरुण की रिहाई दूर नहीं।' सो गुरुवार को रिहा हो गए वरुण। पेरोल पर ही सही। शानदार स्वागत से कांग्रेस की परेशानी बढ़ेगी ही। ज्यादा दूर नहीं तो यूपी में जरूर। यों कांग्रेस पहले भी कम परेशान नहीं। मनमोहन सिंह का जिक्र अपन कर ही रहे थे। आडवाणी को नमस्ते का जवाब देने से ही कतरा गए। राजनीतिक लांछनबाजी अलग बात। राजनीतिक भद्रता अलग बात। पर सिर्फ मनमोहन ही क्यों। सोनिया-राहुल-प्रियंका सबके निशाने पर आडवाणी। अलबत्ता पूरी कांग्रेस। आडवाणी को रोकने के लिए कुछ भी करेगा। अपन ने बीजेपी के बड़ी पार्टी उभरने की बात कही। तो फिक्र की लकीरें कांग्रेस की पेशानी पर उभर आई। गुरुवार की बात ही लो। अपने अभिषेक मनु सिंघवी बीजेपी घोषणापत्र की मीन-मेख निकालने लगे। आखिर पंद्रह दिन बाद इसकी जरूरत क्यों पड़ी। पहले दौर की वोटिंग तक तो घोषणापत्र ही पढ़ा सिंघवी ने। अपन सिंघवी के सवालों की बात नहीं करते। उन सभी सवालों का जवाब बीजेपी दे। अपन क्यों दें। वैसे सिंघवी गौर से पढ़ें। तो सब सवालों का जवाब घोषणापत्र में ही। बात पहले दौर के चुनाव की चली। तो बताते जाएं- गुरुवार को पहले दौर के बेलैट पड़े। तो बुलेट और ब्लास्ट भी खूब हुए। अपने लेफ्टियों के संगी-साथियों ने अट्ठारह को भून डाला। माओवादी नेपाल में चुनाव लड़कर सरकार में। पर इंडिया में बेलैट के खिलाफ बुलेट और ब्लास्ट। यों लेफ्टिए कहेंगे- 'हम भी माओवादियों के खिलाफ।' पर अपन याद कराते जाएं। सीताराम येचुरी नेपाल में माओवादियों के पैरवीकार। खैर बात अपने चुनाव की। पहले दौर में अपने लालू-रेणुका और शशि थरूर निपट गए। वही शशि थरूर जो यूएन के सेक्रेटरी जनरल का चुनाव हारे थे। पर बात पहले दौर के चुनाव की। कांग्रेस को वोटिंग से ही भनक लगी होगी। सो 24 अकबर रोड से खबर आई- 'लेफ्ट की मदद के लिए मनमोहन छोड़ना पड़े। तो छोड़ देंगे।' यह बात कहने वाला नेता कोई चंडूखाने का नहीं। सोनिया की किचन केबिनेट का मेंबर। तो कौन हो सकता है आगे? बोले- 'वैसे तो वक्त ही बताएगा। पर प्रणव दा पर सहमत हो सकते हैं लेफ्टिए।' तो यूपीए की सरकार बनवाने के लिए प्रणव दा होंगे सोनिया के तुरुप का पत्ता।

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