चुनाव आयोग से मोदी को नोटिस मिला। अलबत्ता मोदी को नोटिस दिलवाया। तो कांग्रेस बहुत खुश थी। पर मोदी के जवाब ने आयोग की जुबान तो बंद की ही। कांग्रेस की जुबान पर भी ताला पड़ गया। अपन अगर चुनावी दांव-पेंच की पड़ताल करें। तो सोनिया गांधी को बधाई देनी पड़ेगी। जिनके एक वाक्य पर चुनावी घमासान अटक गया। यह वाक्य था- 'गुजरात में शासन चलाने वाले मौत के सौदागर।' सोनिया ने दो काम किए। एक तो सारा चुनाव इसी के इर्द-गिर्द कर दिया। दूसरा- मोदी को मुद्दा बना दिया। वही चाहते थे मोदी। मोदी की बात चली। तो इस बार का खास नारा बताएं। नारा लगा- 'न दर्द चाहिए, न हमदर्द चाहिए। मोदी जैसा मर्द चाहिए।'
अपन को याद आया। जब बाबरी ढांचा टूटा था। तो शिव सैनिकों ने नारा लगाया था- 'तेल लगा के डाबर का, ढांचा तोड़ा बाबर का।' तब डाबर का एक एजेंट अदालत में जा पहुंचा। बोला- 'हमारा ब्रांड बिना वजह बदनाम हो रहा है। हमारा ढांचा तोड़ने में कोई हाथ नहीं।' अपन को लगा- कहीं अब हमदर्द वाले अदालत न चले जाएं। पर बात हो रही थी मौत के सौदागर ब्रांड भाषण की। इस पर सोनिया को नोटिस भी देना पड़ा। मोदी पर आयोग की धार भी भौंथरी हो गई। वरना आयोग अब तक किसी नतीजे पर क्यों नहीं पहुंचा। अब तो सोहराबुद्दीन के मुद्दे पर अदालत भी बीच में। पर एक वांछित खूंखार व्यक्ति की मौत पर मोदी सरकार चली जाए। तो अपना लोकतंत्र सचमुच अनौखा साबित होगा। सोहराबुद्दीन ही नहीं। अफजल भी कांग्रेस के गले की हड्डी बन गई। गुरुवार को संसद पर हमले की छठी सालगिरह थी। संसद की इमारत में श्रध्दांजलि की रस्म अदायगी हुई। पर सरकार की हालत देखने लायक बन गई। जब एक शहीद नानकचंद की विधवा ने शिवराज पाटिल को जलील किया। पाटिल को कटघरे में खड़ा करते हुए बोली- 'अभी तक मेरे साथ इंसाफ नहीं हुआ। पेट्रोल पंप का वादा किया था। अभी तक पेट्रोल पंप नहीं मिला। पंप के लिए जमीन भी नहीं मिली।' दासमुंशी-सुरेश पचौरी भौचक रह गए। मुंह से जुबां नहीं निकली। सुरक्षा कर्मियों का अपना साथी शहीद हुआ। पर सुरक्षा कर्मियों की मजबूरी देखिए। पाटिल को आफत से निकालने के लिए नानकचंद की विधवा को धकेलना चाहा। पर वह अपने पति के साथियों पर भी गुर्राई। तो सुरक्षाकर्मी शर्मसार दिखे। तब आडवाणी गृहमंत्री थे। जब संसद पर हमला हुआ। वह भी मौके पर मौजूद थे। उनने भी पाटिल की ऐसी-तैसी होते देखी। अटल-आडवाणी की सरकार ने ही पेट्रोल पंप दिए। पेट्रोल पंप तो तब मिलता। जब जमीन मिलती। जमीन का झगड़ा कानूनी दांव-पेच में फंस गया। सुषमा बोली- 'झगड़ा निपटता, अगर एनडीए सरकार फिर से चुनकर आती। नई सरकार को जल्द निपटाना चाहिए था। शायद अब अगली बरसी तक जमीन दिला दे।' पर सवाल सिर्फ शहीदों के परिवारों के जीवन बसर का नहीं। सवाल सरकार की नियत का। आप दोनों बातों को जोड़कर देखिए। संसद के हमलावर आतंकी अफजल को फांसी से बचाने की कोशिश। आतंकियों को संसद के भीतर घुसने से रोकने में जान की बाजी लगाने वालों को दुत्कार। यूपीए सरकार की नियत समझिए। यह बात गुरुवार को नरेंद्र मोदी ने उठाई। तो कांग्रेस ने अपनी ब्रीफिंग टाल दी। सोनिया को कोई जवाब नहीं सूझा। अहमदाबाद में बोली- 'यह भूलना नहीं चाहिए- एनडीए सरकार का एक मंत्री आतंकियों को रिहा करने के लिए कंधार ले गया था।' तो क्या सोनिया-मनमोहन की सरकार भी वैसा ही करेगी। एनडीए ने मौलाना अजहर मसूद को छोड़ा। तो यूपीए अब अफजल को फांसी नहीं देगी। आखिर मेरी साड़ी, तुम्हारी धोती से सफेद क्यों हो।
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